फोटो: विकास चौधरी 
वायु

सांसों का आपातकाल: राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम में कहां हुई चूक?

सीएसई द्वारा हाल ही में प्रकाशित किताब "सांसों का आपातकाल" का चौथा अध्याय में साफ हवा के लिए भारत में चलाए जा रहे राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम की पड़ताल भी की गई है

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“राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम” (एनसीएपी) में कुछ और सुधार करने की जरूरत है, ताकि यह कार्यक्रम ज्यादा प्रभावी हो सके और खासतौर पर उन गरीब और कमजोर लोगों को फायदा पहुंचा सके, जो प्रदूषण से ज्यादा प्रभावित होते हैं।

एनसीएपी को ऐसे तरीके और संकेतक जोड़ने चाहिए, जो यह बता सकें कि वायु प्रदूषण के बहुत ज्यादा संपर्क में आने वाले और प्रदूषण फैलाने वाली जगहों के पास रहने वाले समुदाय कितने कमजोर हैं। इसमें यह भी प्रावधान होना चाहिए कि बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक परियोजनाओं का समुदायों पर क्या असर होगा, इसका आकलन किया जाए।

साथ ही, पर्याप्त सुरक्षा उपाय किए जाएं और प्रदूषण कम करने के ऐसे तरीके अपनाए जाएं, जिनसे लोगों की आजीविका पर कम से कम असर पड़े। एनसीएपी ने पहले से ही शहरों को प्रदूषण के अलग-अलग क्षेत्रों में हुई प्रगति की रिपोर्ट देने के लिए संकेतक दिए हैं। अब इनमें “समता संकेतक” भी शामिल किए जाने चाहिए, ताकि यह देखा जा सके कि प्रदूषण कम करने के प्रयासों का फायदा सभी वर्गों को समान रूप से मिल रहा है या नहीं।

फिलहाल, भारत में हवा की गुणवत्ता की निगरानी का नेटवर्क सीमित है। शहरों और क्षेत्रों में ऐसे बड़े इलाके हैं, जहां प्रदूषण के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इन्हें “डेटा शैडो” क्षेत्र कहते हैं। राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम के तहत अक्टूबर 2023 तक देश में 931 मैनुअल स्टेशन और 516 रियल-टाइम सीएएक्यूएम स्टेशन हैं। इनमें से 512 मैनुअल और 344 सीएएक्यूएम स्टेशन एनसीएपी शहरों में हैं। लेकिन, अभी भी देश का एक बड़ा हिस्सा और बड़ी आबादी इस निगरानी नेटवर्क के दायरे में नहीं है।

भले ही यह कमी हवा को साफ करने की कार्रवाई को बड़े पैमाने पर लागू करने में बाधा न हो, लेकिन फिर भी अभी इस बारे में हमारे पास पूरी जानकारी नहीं है कि कमजोर समुदायों पर वायु प्रदूषण का भौगोलिक रूप से यानी किस इलाके में कितना और क्या असर हो रहा है।

ये प्रदूषित क्षेत्र बहुत व्यापक रूप से फैले हो सकते हैं, जैसे प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्र, बिजली उत्पादन वाले इलाके, भीड़भाड़ वाले ट्रैफिक क्षेत्र, राजमार्गों पर भारी यातायात, कचरा डंप करने वाली जगहें और कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र, झुग्गी-झोपड़ियां और अनधिकृत बस्तियां, नगरपालिका के बाहर की कॉलोनियां और संवेदनशील इलाके जिनमें स्कूल, अस्पताल और वृद्धाश्रम शामिल हैं।  

हर उस जगह पर जहां डेटा नहीं है (डेटा-शैडो एरिया) और जहां कमजोर समुदायों के लोग रहते हैं, उन्हें कवर करने और प्रदूषण मापने के लिए वहां सरकारी निगरानी (जैसे बड़े, महंगे स्टेशन) लगाना महंगा है। इसलिए हमें बहु-आयामी दृष्टिकोण के लिए सैटेलाइट-आधारित निगरानी (उपग्रहों से डेटा लेना) और सेंसर-आधारित निगरानी (छोटे सेंसर का इस्तेमाल करना) जैसे वैकल्पिक तरीके अपनाने जरूरी हैं।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने प्रदूषण के हॉटस्पॉट इलाकों की निगरानी के लिए सेंसर के इस्तेमाल की इजाजत दे दी है, लेकिन इसे अभी कानूनों का पालन कराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसी तरह, सैटेलाइट डेटा की मदद से छोटे-छोटे इलाकों की भी सटीक मैपिंग की जा सकती है कि वहां प्रदूषण कितना है। यह जरूरी है कि लोगों को वायु गुणवत्ता का डेटा मिले, ताकि वे खुद जोखिमों को समझ सकें और कदम उठा सकें।

एनसीएपी कार्यक्रम के तहत, जिन शहरों में हवा खराब है, उन्हें “हॉटस्पॉट एक्शन प्लान” (सबसे प्रदूषित इलाकों के लिए कार्य योजना) बनाने और लागू करने का निर्देश दिया गया है। अभी हॉटस्पॉट को कचरा जलाने, सड़क की धूल, कंस्ट्रक्शन आदि जैसे बिखरे हुए प्रदूषण स्रोतों के आधार पर परिभाषित किया जाता है।

लेकिन, अभी ऐसी कोई नीति नहीं है कि हॉटस्पॉट की पहचान करते समय यह भी देखा जाए कि वहां रहने वाले स्थानीय समुदायों को प्रदूषण का कितना सामना करना पड़ रहा है। स्थानीय स्तर पर कार्रवाई करने और प्रदूषण स्रोतों के करीब रहने वाले समुदायों की सुरक्षा के लिए इस दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है।

दिल्ली में पहले 13 हॉटस्पॉट पहचाने गए थे, जो बाद में बढ़कर 18 हो गए। इनमें ओखला फेज 2, द्वारका, अशोक विहार, बवाना, नरेला, मुंडका, पंजाबी बाग, वजीरपुर, रोहिणी, विवेक विहार, जहांगीरपुरी और मायापुरी जैसे औद्योगिक क्षेत्रों के साथ ही आनंद विहार (मंडोली सहित), शादीपुर, आईटीओ जैसे ज्यादा यातायात वाले इलाके और आरके पुरम, मंदिर मार्ग, नेहरू नगर, पटपड़गंज, सोनिया विहार, ध्यानचंद स्टेडियम और मोती बाग सहित आवासीय और मनोरंजक क्षेत्र शामिल हैं। 

वायु प्रदूषण से निपटने के लिए भारत में चल रहे प्रयासों में कुछ महत्वपूर्ण कमियां हैं, खासकर जब बात स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले असमान प्रभाव की आती है। इन कमियों को दूर करने के लिए कार्यक्रम और नीतियों में बदलाव की सख्त जरूरत है।

फिलहाल, वायु प्रदूषण के हॉटस्पॉट (सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाकों) के लिए बनाई गई योजनाओं में मुख्य रूप से प्रदूषण के स्रोतों, जैसे सड़क की धूल, निर्माण स्थल, ट्रैफिक जाम और कचरा जलाने को दर्शाया जाता है। लेकिन, इन योजनाओं में कई महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल नहीं किया जाता है। जैसे, यह नहीं बताया जाता कि स्थानीय समुदाय किस हद तक और किस प्रकार के प्रदूषण के सीधे संपर्क में हैं। उन समुदायों की कमजोरी और प्रदूषण से निपटने की उनकी क्षमता का आकलन नहीं किया जाता है।

यह भी स्पष्ट नहीं होता कि स्वच्छ हवा के प्रयासों से इन समुदायों को वास्तव में क्या लाभ मिलेंगे। डेटा की कमी के कारण अक्सर खतरनाक लैंडफिल के पास बसे समुदायों को इन योजनाओं में शामिल नहीं किया जाता। हॉटस्पॉट से जुड़ी इन योजनाओं को और बेहतर व समुदाय-उन्मुख बनाने के लिए अभी इसमें सुधार की काफी गुंजाइश है।

उदाहरण के लिए, मुंडका क्षेत्र में 2018 में प्लास्टिक कचरे को खुले में जलाने पर रोक लगा दी गई, जिससे वहां के स्थानीय श्रमिकों और समुदायों के जहरीले प्रदूषण के संपर्क को कम करने में मदद मिली। लेकिन, यह भी समझना जरूरी है कि ट्रैफिक जाम और कचरा जलाने जैसी समस्याएं सिर्फ स्थानीय प्रयासों से पूरी तरह से हल नहीं होंगी, बल्कि इसके लिए शहर-स्तरीय व्यवस्थित हस्तक्षेप आवश्यक है।

वायु गुणवत्ता प्रबंधन के मौजूदा दृष्टिकोण की एक बड़ी सीमा यह है कि वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 का मुख्य ध्यान केवल वातावरणीय वायु गुणवत्ता पर केंद्रित है। इस कानून में”एक्सपोजर” यानी प्रदूषण स्रोतों के निकट और प्रत्यक्ष संपर्क से उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों को कोई कानूनी मान्यता नहीं दी गई है।

जबकि, यही वह कारक है, जो प्रदूषण स्रोतों के सीधे और निकट संपर्क के कारण समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले स्वास्थ्य जोखिम को निर्धारित करता है। इस संदर्भ में अब तक एकमात्र नीतिगत दिशा 2015 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की “वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर स्टीयरिंग कमेटी की रिपोर्ट” से आई है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के प्रभाव को समझने के लिए यह जानना कहीं अधिक जरूरी है कि लोग प्रदूषण स्रोत के कितने करीब हैं, वे किन रासायनिक तत्वों को सांस के जरिए ग्रहण कर रहे हैं और कितना समय प्रदूषण के इन स्रोतों के करीब बिता रहे हैं। जबकि, अभी प्रदूषण के दुष्प्रभाव की बात करते वक्त सबसे ज्यादा ध्यान इस पर रहता है कि वायुमंडल में कौन से प्रदूषक तत्व मौजूद हैं, जो अक्सर मौसम और जलवायु के प्रभाव में बदलते रहते हैं।

यह जरूरी हो गया है कि केवल वातावरणीय सघनता को नियंत्रित करने वाले दृष्टिकोण यानी “सघनता प्रबंधन” से अब “एक्सपोजर प्रबंधन” की ओर बढ़ा जाए। सिर्फ एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) से स्वास्थ्य जोखिम की सही तस्वीर नहीं मिलती, क्योंकि यह किसी खास समुदाय की सीधी, दीर्घकालिक और स्थानीय प्रदूषण के संपर्क की वास्तविकता को नहीं दर्शाता। इस सिद्धांत को राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) और शहरों, राज्यों व क्षेत्रों की स्वच्छ वायु कार्ययोजनाओं के ढांचे में एकीकृत करना होगा, ताकि ये योजनाएं अधिक समुदाय-केंद्रित बन सकें।

अगर हमें अपनी हवा को साफ करना है, तो सिर्फ प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर ही ध्यान देने से बात नहीं बनेगी। स्वच्छ हवा के लिए कई अलग-अलग क्षेत्रों में काम करना जरूरी है और इसके लिए ऐसे नए निर्माण (जैसे सड़कें, इमारतें) बनाने होंगे, जो ज्यादातर लोगों को पर्यावरण के लिए अच्छे विकल्प चुनने में मदद करें।

जब हम नई सड़कें या इमारतें बनाते हैं या पुराने शहरी इलाकों को नया रूप देते हैं, तो अक्सर इसकी योजना और डिजाइन में इस बात का पूरा ध्यान नहीं रखा जाता कि इससे गरीब या कमजोर समुदायों पर क्या असर पड़ेगा। इन योजनाओं में उन सुरक्षा उपायों की कमी हो सकती है जो इन समुदायों को विस्थापन, आजीविका के नुकसान या प्रदूषण के बढ़ते संपर्क से बचा सकें। यह कमी खासकर परिवहन क्षेत्र में बन रही बड़ी-बड़ी योजनाओं में साफ दिखती है, जहां अक्सर सड़कों, मेट्रो लाइनों आदि के विकास में गरीबों की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। 

वर्तमान में हवा को साफ रखने के लिए जितनी भी योजनाएं बन रही हैं, उन सभी में शून्य-उत्सर्जन वाली किफायती यात्रा विकल्पों को शामिल किया जा रहा है, जैसे पैदल चलना, साइकिल चलाना। ये शहरों में रहने वाले गरीबों के मुख्य यातायात साधन हैं और वायु प्रदूषण के समाधान का भी हिस्सा हैं।

लेकिन, इन्हें सभी के लिए खासकर, उच्च आय वर्ग के बीच भी लोकप्रिय और व्यवहारिक विकल्प के रूप में शामिल करने की जरूरत है। लेकिन, सार्वजनिक परिवहन के लिए योजनाएं बनाते वक्त अक्सर पैदल चलने और साइकिल चलाने को बढ़ावा देने के लिए जरूरी सड़कों और सुविधाओं (बुनियादी ढांचे) की योजनाओं और उनके क्रियान्वयन की अनदेखी कर दी जाती है। 

इसी तरह, वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए मेट्रो और आधुनिक बस सेवाओं को बढ़ावा के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन, सार्वजनिक परिवहन सेवाओं की योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने के तरीके न्यायसंगत और किफायती नहीं हैं। सीएसई द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक मानकों के हिसाब से अगर कोई परिवार अपनी आय का 10-15 प्रतिशत से अधिक परिवहन पर खर्च करता है, तो उसे किफायती नहीं माना जाता है।

सबसे कम आय वाले 20 प्रतिशत परिवार आमतौर पर अपनी आय का 10 प्रतिशत से अधिक परिवहन पर खर्च नहीं कर पाते हैं। दिल्ली की लगभग एक-तिहाई या 34 प्रतिशत आबादी बुनियादी परिवहन सुविधा का सबसे जरूरी हिस्सा मानी जाने वाली गैर-एसी बस सेवाओं के दायरे से बाहर है। यह सस्ती सार्वजनिक परिवहन तक पहुंच में भारी असमानता दिखाती है। परिवहन पर अधिक खर्च का सीधा असर आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों पर पड़ता है, जो आखिर में समावेशी विकास को बाधित करता है।

राज्य सरकारें सार्वजनिक परिवहन के लिए कुछ नीतियां बनाती हैं, लेकिन उनमें टिकाऊ वित्तीय मॉडल की कमी है। उदाहरण के तौर पर कई राज्य सरकारें कुछ खास समूहों, जैसे महिलाओं के लिए बसों का किराया मुफ्त कर देती हैं। यह एक अच्छा कदम है। लेकिन, उनके पास इस व्यवस्था को चलाने के लिए कोई टिकाऊ वित्तीय मॉडल नहीं होता।

अक्सर उन्हें यह नहीं पता होता कि लंबे समय तक इन सुविधाओं को कैसे चलाया जाएगा, फिर चाहे वह सब्सिडी देना हो, कर सुधार हों या आय के दूसरे स्रोत हों। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को सस्ता और टिकाऊ बनाने के लिए लंबी अवधि की नई रणनीतियों की जरूरत है। दूसरी तरफ, मेट्रो और बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम जैसे आधुनिक परिवहन बुनियादी ढांचे का विकास गरीबों को शहर से बाहर धकेल सकता है।

इससे उनकी आजीविका बाधित होती है, क्योंकि उन्हें अपने काम की जगह तक पहुंचने के लिए ज्यादा दूरी तय करनी पड़ती है, जिससे यात्रा का समय और खर्च दोनों बढ़ जाते हैं। आईआईटी दिल्ली के ट्रांसपोर्ट रिसर्च एंड इनजीनियरिंग पॉलिसी प्लानिंग (टीआरआईपीपी) के एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली मेट्रो के कारण झुग्गियां विस्थापित हुईं। जिन परिवारों को दूसरी जगह बसाया गया, उनके लिए साइकिल या बस से तय की जाने वाली दूरी और यात्रा का समय दोनों कई किलोमीटर बढ़ गए। इसी तरह, शैक्षणिक और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की औसत दूरी और यात्राओं की संख्या भी बढ़ गई, जिसके परिणामस्वरूप पैदल चलने और साइकिल के उपयोग में गिरावट देखी गई।

इसी तरह, सीईपीटी के एक अध्ययन से पता चलता है कि बीआरटी मेट्रो परियोजना के कारण आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से के लिए घरेलू बजट में परिवहन पर खर्च बहुत बढ़ गया, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च स्थिर रहा। अहमदाबाद बीआरटी परियोजना से लगभग 2,000 रेहड़ी-पटरी वाले (वेंडर) विस्थापित हुए जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानता और बढ़ गई और समुदायों की संकट सहन करने की क्षमता और कमजोर हो गई।

इसलिए यह आवश्यक है कि “गरीबों के अनुकूल गतिशीलता” (गरीबों के लिए मददगार साबित होने वाली परिवहन व्यवस्था) और आवास योजनाओं को वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों के साथ जोड़ा जाना चाहिए। ऐसा करने से लोगों को आजीविका के कई विकल्प मिल पाएंगे और श्रम बाजार भी अधिक कुशल बन पाएगा।

भारत में ऐसी परिवहन नीतियां मौजूद हैं, जो अगर सही ढंग से लागू हों तो वे शहर के विकास की ऐसी समावेशी योजना बनाने में मदद कर सकती हैं, जो सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलें।

उदाहरण के लिए, ट्रांजिट ओरिएंटेड डेवलपमेंट (टीओडी) एक ऐसी नीति है, जो परिवहन के मुख्य केंद्रों (जैसे मेट्रो स्टेशन या बस स्टॉप) के पास घनी आबादी वाले और व्यवस्थित शहरी विकास पर जोर देती है। जो मिश्रित-उपयोग (ऐसी इमारतें या क्षेत्र जहां रहने की जगह, काम करने की जगह, दुकानें और मनोरंजन की सुविधाएं एक साथ हों) और मिश्रित-आय (ऐसे विकास जिसमें अलग-अलग आय वर्ग के लोग एक साथ रह सकें, ताकि गरीब लोग भी परिवहन केंद्रों के पास रह सकें) और सुलभ परिवहन (जिससे लोगों का आना-जाना आसान हो) के विकास को प्रोत्साहित करे।

इन नीतियों को जमीन पर उतारने के लिए सरकारी और अन्य संस्थानों को अधिक कुशल बनाने की जरूरत है। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जो नीतियां गरीबों के लिए बनाई जा रही हैं, उन्हें बनाते और लागू करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि वे वास्तव में गरीबों की जरूरतों और समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों। यानी, सिर्फ कागज पर नहीं, बल्कि व्यवहार में भी गरीबों को फायदा मिल सके।

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