भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी के वैज्ञानिकों ने दूषित पानी से सीसा (लेड) को हटाने का एक पूरी तरह प्राकृतिक और किफायती तरीका खोज लिया है। यह समाधान नीले हरे शैवाल (साइनोबैक्टीरिया) नामक सूक्ष्मजीवों की मदद से काम करता है, जो बैक्टीरिया जैसे होते हैं, लेकिन प्रकाश-संश्लेषण कर सकते हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक यह तकनीकी सस्ती, किफायती होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल भी है, जो दुनिया में पर्यावरण से जुड़ी सबसे गंभीर समस्याओं में से एक सीसा प्रदूषण से निपटने में मददगार साबित हो सकती है।
दुनिया के लिए लेड यानी सीसा एक गंभीर खतरा बन चुका है, जो हर साल तकरीबन 55.5 लाख जिंदगियों को निगल रहा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इससे दुनिया भर में 80 करोड़ से ज्यादा बच्चे प्रभावित हैं, जिनमें से 27.5 करोड़ भारतीय हैं। यूनिसेफ के मुताबिक दुनिया में हर तीन में से एक बच्चे के रक्त में लेड (सीसे) की मात्रा पांच माइक्रोग्राम प्रति डेसीलीटर से ज्यादा है, जोकि उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है।
पानी में सीसा आमतौर पर औद्योगिक कचरे, कृषि, और पुरानी पाइपलाइनों के जरिए पहुंचता है। पानी का कोई स्रोत यदि एक बार इससे दूषित हो जाए तो यह दशकों तक बना रह सकता है और जीवित प्राणियों के शरीर में जमा होकर तंत्रिका तंत्र, दिल, किडनी और बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर गंभीर असर डालता है।
हालांकि इसे साफ करने के कई पारंपरिक तरीके जैसे रासायनिक उपचार और कृत्रिम अवशोषक मौजूद हैं, लेकिन वे महंगे होते हैं और कई बार कई बार खुद ही नए प्रदूषक पैदा कर देते हैं।
साइनोबैक्टीरिया का कमाल
इन चुनौतियों से निपटने के लिए आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने बायोरिमेडिएशन तकनीक अपनाई है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें सूक्ष्मजीव दूषित पर्यावरण को साफ करते हैं। ऐसे सूक्ष्मजीव मिट्टी और पानी में स्वाभाविक रूप से मौजूद होते हैं और पारिस्थितिकी संतुलन को बहाल करने में मदद करते हैं।
अपनी इस खोज में शोधकर्ताओं ने प्रकाश पर निर्भर साइनोबैक्टीरिया की एक विशेष प्रजाति 'फॉर्मिडियम कोरियम एनआरएमसी-50' की मदद ली है। स्टडी के दौरान शोधकर्ताओं ने इस साइनोबैक्टीरिया के अलग-अलग हिस्सों का अध्ययन किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि सीसा सोखने और हटाने में कौन सा हिस्सा सबसे अधिक प्रभावी है।
यह अध्ययन आईआईटी गुवाहाटी में प्रोफेसर देबाशीष दास, डॉक्टर अभिजीत महाना और केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर तपस मंडल द्वारा किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स में प्रकाशित हुए हैं।
अध्ययन में पाया गया कि साइनोबैक्टीरिया का एक्सोपॉलिसैकेराइड्स (ईपीएस) नाम का हिस्सा सबसे ज्यादा प्रभावी है। यह दूषित पानी से 92.5 फीसदी तक सीसा हटाने में सक्षम है।
शोध के नतीजों पर प्रकाश डालते हुए आईआईटी गुवाहाटी के बायोसाइंसेज और बायोइंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर देबाशीष दास ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “ये साइनोबैक्टीरिया आधारित बायोसॉर्बेंट बहुत कम ऊर्जा में काम करते हैं और बिना किसी जटिल ढांचे के बड़े स्तर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
इसी वजह से ये आम उपयोग के लिए अधिक किफायती हैं। शुरुआती अनुमान बताते हैं कि इस तकनीक की मदद से पानी को साफ करना पारंपरिक तरीकों की तुलना में करीब 40 से 60 फीसदी सस्ता है, जबकि इसकी क्षमता समान या उससे भी बेहतर है।"
ऐसे में उनके मुताबिक किफायती और पर्यावरण अनुकूल होने के कारण यह तरीका उद्योगों और नगर निकायों के लिए एक सस्ता और बेहतर पर्यावरण अनुकूल विकल्प बन सकता है।
सूरज की रोशनी से चलने वाली तकनीक
शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तकनीक न सिर्फ सीसा बल्कि कीटनाशक, रंग, रसायन, हाइड्रोकार्बन, सिंथेटिक डाई और हानिकारक औद्योगिक पदार्थ भी सोख सकती है। इतना ही नहीं साइनोबैक्टीरिया द्वारा सोखी गए धातुओं से बाद में बायोचार, बायोप्लास्टिक और बायोफ्यूल जैसे उपयोगी उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं।
चूंकि ये सूक्ष्मजीव खुद बढ़ते हैं, उनकी लागत बेहद कम है और इन्हें सिर्फ सूरज की रोशनी, कार्बन डाइऑक्साइड और थोड़े से पोषक तत्व चाहिए होते हैं, इसलिए ये दुनिया में इस्तेमाल हो रहे महंगे सिंथेटिक अवशोषकों का बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं। यह तकनीक अभी शुरूआती चरणों में है।
अब अगले चरण में शोधकर्ता इस तकनीक को लैब से बाहर निकालकर पायलट स्तर पर ले जाने और वास्तविक गंदे पानी पर परखने की तैयारी कर रहे हैं।