अध्ययन से पता चला है कि 1990 के दशक से गंगा नदी का प्रवाह पहले के मुकाबले तेजी से कम हुआ है; फोटो: आईस्टॉक 
नदी

वैज्ञानिकों का दावा 1,300 वर्षों के सबसे गंभीर सूखे का सामना कर रही गंगा

अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन, भारतीय महासागर के गर्म होने से कमजोर पड़ते मानसून, और अत्यधिक मात्रा में भूजल के हो रहे दोहन जैसी वजहों ने गंगा के प्रवाह को बुरी तरह प्रभावित किया है

Lalit Maurya

  • गंगा नदी पिछले 1,300 वर्षों के सबसे गंभीर सूखे का सामना कर रही है, जो 16वीं सदी के सूखे से भी अधिक गंभीर है।

  • आईआईटी गांधीनगर और एरिजोना विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार, 1991 से गंगा के प्रवाह में भारी गिरावट आई है, जिससे जल और खाद्य सुरक्षा पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

  • स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में नदी के औसत वार्षिक प्रवाह में स्थाई रूप से भारी गिरावट दर्ज की गई।

  • इस दौरान गंगा का प्रवाह पहले की तुलना में करीब 620 घन मीटर प्रति सेकंड घट गया, यानी हर सेकंड करीब 6.2 लाख लीटर की गिरावट आई

  • यह भी पता चला है कि गंगा नदी के सूखने के पीछे वैश्विक और स्थानीय दोनों कारण जिम्मेवार हैं। जलवायु परिवर्तन, भारतीय महासागर के गर्म होने से कमजोर पड़ते मानसून, और अत्यधिक मात्रा में भूजल के हो रहे दोहन जैसी वजहों ने गंगा के प्रवाह को बुरी तरह प्रभावित किया है।

गंगा नदी, जिसने पिछले हजार वर्षों में सूखे के कई भीषण दौर झेले हैं, लेकिन आज पिछले 1,300 वर्षों के इतिहास के सबसे भीषण सूखे से गुजर रही है। यह जानकारी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गांधीनगर और अमेरिका के एरिजोना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है।

जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित इस स्टडी से पता चला है कि 1991 से 2020 के बीच गंगा की धारा में आई कमी, 16वीं सदी के विनाशकारी सूखे से भी ज्यादा गंभीर है, जिसने उत्तरी भारत में भयंकर अकाल को जन्म दिया था।

स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में गंगा के जल प्रवाह में एक बड़ा परिवर्तन हुआ, और तब से यह प्रवाह लगातार घटता जा रहा है। रिपोर्ट से पता चला है कि 1990 के दशक से गंगा के प्रवाह में आई गिरावट 16वीं शताब्दी में पड़े भयंकर सूखे से भी 76 फीसदी अधिक है।

1991 से 2020 के बीच तीन दशकों में गंगा बेसिन में चार बार ऐसा सूखा पड़ा जिनका प्रभाव तीन साल से अधिक समय तक बना रहा, जबकि इतनी गंभीर सूखे की स्थिति सामान्य तौर पर 70 से 200 वर्षों में एक बार बनती थी। ऐसे में गंभीर सूखे की इन घटनाओं का बार-बार होना बेहद असामान्य है। इस दौरान 1991 से 1997 और 2004 से 2010 के बीच दो बार ऐसा भीषण सूखा पड़ा जिसका प्रभाव लम्बे समय तक बना रहा। इनमें से 2004 से 2010 के बीच पड़ा सूखा पिछले एक हजार वर्षों में सबसे गंभीर माना गया है।

स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में नदी के औसत वार्षिक प्रवाह में स्थाई रूप से भारी गिरावट दर्ज की गई। इस दौरान गंगा का प्रवाह पहले की तुलना में करीब 620 घन मीटर प्रति सेकंड घट गया, यानी हर सेकंड करीब 6.2 लाख लीटर की गिरावट आई, जो प्रवाह में हर घंटे करीब 16 ओलंपिक स्विमिंग पूलों के बराबर पानी कम बहने जितना है। यह बदलाव गंगा के लगातार सूखते प्रवाह का शुरूआती संकेत था।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 700 से 2012 ईस्वी तक यानी पिछले 1,312 वर्षों के जलवायु और जल प्रवाह के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इसके लिए उन्होंने उपकरणों, ऐतिहासिक अभिलेखों और जल प्रवाह के मॉडल की मदद ली है।

इन आंकड़ों के विश्लेषण के बाद वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि गंगा नदी घाटी, जिस पर 60 करोड़ से अधिक लोगों की जीवन और जीविका निर्भर है, इस समय अभूतपूर्व सूखे की स्थिति से गुजर रही है, जिससे जल और खाद्य सुरक्षा पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

घटते प्रवाह के लिए इंसानी गतिविधियां हैं जिम्मेवार

अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि यह गिरावट प्राकृतिक उतार-चढ़ाव से कहीं अधिक है, जो दर्शाती है कि इसके लिए इंसानी गतिविधियां जिम्मेवार हैं।

शोध से यह भी पता चला है कि गंगा नदी के सूखने के पीछे वैश्विक और स्थानीय दोनों कारण जिम्मेवार हैं। जलवायु परिवर्तन, भारतीय महासागर के गर्म होने से कमजोर पड़ते मानसून, और अत्यधिक मात्रा में भूजल के हो रहे दोहन जैसी वजहों ने गंगा के प्रवाह को बुरी तरह प्रभावित किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक गंगा के 2,520 किलोमीटर क्षेत्र में जल स्तर में गिरावट आई है, और इसके कारण कृषि और जलापूर्ति पर गंभीर असर पड़ रहा है। 1980 के दशक से, गंगा बेसिन में पानी की कमी दर साल में 10 सेंटीमीटर तक बढ़ गई है, और आशंका है कि आने वाले दशकों में यह स्थिति और खराब हो सकती है।

वैज्ञानिकों ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि 25 वैश्विक जलवायु मॉडलों (सीएमआइपी6) में से केवल पांच मॉडल ही गंगा घाटी में जारी सूखे को सही तरह से दिखा सके। 100 जलवायु सिमुलेशनों के विश्लेषण में पाया गया कि कोई भी मॉडल वास्तविक परिस्थितियों को दोहरा नहीं सका, यह दर्शाता है कि मौजूदा संकट प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन की सामान्य सीमाओं से कहीं अधिक गंभीर है।

हालांकि अधिकांश वैश्विक जलवायु मॉडल यह अनुमान लगाते हैं कि हाल के दशकों में जलवायु के गर्म होने पर दक्षिण एशिया में बारिश के बढ़ने की संभावना है।

मुख्यतः ऐसा वाष्पीकरण के कारण होगा। लेकिन शोधकर्ताओं के मुताबिक ये मॉडल अक्सर वायुमंडलीय परिसंचरण और भूमि प्रक्रियाओं के जटिल संबंधों को सरल बना देते हैं, जिससे बारिश के पैटर्न की अधूरी और गलत तस्वीर बनती है। हिंद महासागर में तेजी से बढ़ रही गर्मी और उपमहाद्वीप में घटती गर्मी के कारण उत्तर भारत में मानसून कमजोर हो गया है। नतीजन बारिश में कमी के कारण भूजल का स्तर नहीं बढ़ पा रहा है।

1951-2020 के बीच देखें तो वार्षिक वर्षा में 9.5 फीसदी की गिरावट आई है। वहीं भारत के पश्चिमी क्षेत्र में 30 फीसदी से अधिक की कमी देखी गई है। मानसूनी बारिश में आती कमी नदी के प्रवाह में आती गिरावट की एक बड़ी वजह है। ऊपर से बढ़ता तापमान आने वाले समय में इस समस्या को और गंभीर बना सकता है।

वहीं बारिश को लेकर अनिश्चितता की भरपाई के लिए भूजल का दोहन बढ़ गया है, जिसकी वजह से नदी के जलस्तर में गिरावट आई है। इसका असर नदी के प्रवाह पर भी पड़ रहा है। देखा जाए तो गंगा बेसिन में भूजल में आती गिरावट एक खतरनाक स्थिति पैदा कर रही है, क्योंकि नदी का बड़ा हिस्सा भूजल पर निर्भर है।

इस बारे में जर्नल नेचर में साझा जानकारी के मुताबिक पिछले 30 वर्षों में गर्मियों के दौरान गंगा में आने वाला भूजल 50 फीसदी तक घट गया है, जबकि इस मौसम में नदी का करीब 70 फीसदी पानी भूजल से आता है। अनुमान है कि सदी के मध्य तक यह कमी 1970 के दशक की तुलना में 75 फीसदी तक जा सकती है। इससे सिंचाई के लिए सतही जल की उपलब्धता बहुत कम हो जाएगी।

घटता जल प्रवाह आने वाले दशकों में करीब 11.5 करोड़ लोगों की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है, क्योंकि इससे फसलों की पैदावार घटेगी और नदियों से भूजल की ओर जाने वाला पानी भी रुक जाएगा।

कृषि और जल प्रबंधन से भी जुड़ी है समस्या

इस संकट का एक और बड़ा कारण कृषि के लिए बेहद अधिक मात्रा में पानी का हो रहा उपयोग और सिंचाई की खराब विधियां भी हैं। किसानों द्वारा इस्तेमाल होने वाले पानी का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है, जिससे फसलों को कम लाभ होता है। इसमें से केवल एक तिहाई पानी ही फसलों के लिए फायदेमंद होता है, बाकी सब बर्बाद हो जाता है।

रिपोर्ट के मुताबिक गंगा के प्रवाह में इस कमी के चलते न केवल जलापूर्ति प्रभावित हो रही है, बल्कि नदी में प्रदूषण का स्तर भी बढ़ गया है। नदी का जल प्रवाह घटने से प्रदूषकों का घनत्व बढ़ गया है, जिससे गंगा दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में एक बन गई है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर जलवायु परिवर्तन और जल उपयोग के तरीके न बदले गए, तो आने वाले वर्षों में गंगा का प्रवाह और घट जाएगा।

ऐसे समय में, जब गंगा अभूतपूर्व सूखे का सामना कर रही है, मानसूनी बारिश को प्रभावित करने वाले कारकों जैसे बड़े पैमाने पर जलवायु में हो रहे बदलाव और मानव गतिविधियों के पारस्परिक प्रभावों को गहराई से समझने की जरुरत है।

गंगा के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए अब सटीक जलवायु मॉडलिंग, अनुकूल जल प्रबंधन नीतियां, और जल संरक्षण को बढ़ावा देने वाले ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। साथ ही, कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन विकसित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

इसके साथ ही बदलती जलवायु परिस्थितियों में गंगा घाटी की जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारत, नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के बीच मजबूत क्षेत्रीय सहयोग भी बेहद जरूरी है।