इलेस्ट्रेशन: रितिका वोहरा 
प्रदूषण

स्वच्छ हवा की चुनौती, कारगर नहीं है फौरी तरीके!

स्वच्छ हवा के लिए पूरे साल काम करने की जरूरत है और यह तभी काम करेगा जब हम मिलकर और बड़े पैमाने पर काम करेंगे

Sunita Narain

एक बार फिर से साल का वह समय आ गया है, जब दिल्ली उसके उसके पड़ोसी इलाकों के लोग आसमानी आफत का इंतजार करना शुरू कर देते हैं। तापमान गिर रहा है। हवा की गति धीमी होते ही वातावरण में पहले से मौजूद प्रदूषक नीचे बैठ जाएंगे।

हम सांस नहीं ले पाएंगे। हम कुछ कर सकते हैं तो केवल उम्मीद और प्रार्थना कि हवा और बारिश के देवता हमें बख्श दें। ऐसा इसलिए है क्योंकि इतने वर्षों में हमने प्रदूषण से निपटने के लिए कुछ भी नहीं किया है।

ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) को एक आपातकालीन चेतावनी प्रणाली होना था, जिसका उद्देश्य प्रदूषण के चरम पर पहुंचने पर तात्कालिक कार्रवाई करना था। हम कुछ भी तभी करते हैं जब हमारे पास और कोई चारा नहीं बचता और जाहिर तौर पर या बहुत कम और बहुत देर से किया जाता है।

अब हमें बताया जा रहा है कि सरकार (प्रकृति) भगवान की भूमिका निभाएगी, बादलों की सीडिंग की जाएगी और हम कृत्रिम बारिश कराकर प्रदूषकों को धो देंगे। ऐसी स्थिति तब है जब हम अच्छी तरह से समझते हैं कि प्रदूषक नमी में फंस जाते हैं और समस्या का कारण बनते हैं।

तो, चलिए मुद्दे पर आते हैं और समझते हैं कि हम प्रदूषण नियंत्रण के फायदों को कैसे दोबारा से हासिल कर सकते हैं। सर्वप्रथम, जो पहले किया जा चुका है, उसका एक संक्षिप्त विवरण। इस कहानी की शुरुआत 1990 के दशक में शुरू होती है, जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने अपनी रिपोर्ट, "स्लो मर्डर" प्रकाशित की और कार्रवाई के लिए एक एजेंडा प्रस्तावित किया।

प्रदूषण का मुख्य स्रोत (हमें अब इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए) वाहन, ईंधन की खराब गुणवत्ता और वाहन निर्माताओं द्वारा अनुपालन हेतु उत्सर्जन मानकों की कमी थी। 1990 के दशक के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने ईंधन की गुणवत्ता में सुधार करने, वाहनों के लिए उत्सर्जन मानकों को अनिवार्य बनाने (यह भारत स्टेज 1, 2, 3, 4 और अब 6 की शुरुआत थी) और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने हेतु महत्वपूर्ण निर्देश पारित किए।

1998 में कोर्ट ने दिल्ली में 11,000 बसों को सड़क पर उतारने का निर्देश दिया। लगभग 16 साल गुजर जाने के बावजूद शहर में बसों की संख्या इसकी आधी भी नहीं है। लेकिन इस पर बाद में बात करते हैं।

संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) की शुरुआत एक लीपफ्रॉग (लंबी छलांग) विकल्प के रूप में की गई थी, केवल पेट्रोल और डीजल की गुणवत्ता को साफ करने में एक और दशक लग जाता। सीएनजी ने त्वरित राहत प्रदान की जोकि उस समय के लिए एक गेम चेंजर था।

2000 के दशक की शुरुआत में दिल्ली में रहने वाला कोई भी व्यक्ति आपको बता सकता है कि यह निर्णय कितना विवादित था। लेकिन इससे बदलाव आया। आज, जब हम इलेक्ट्रिक वाहनों के रूप में अगले बदलाव को देख रहे हैं, वैसी स्थिति में सीएनजी अपनाने की दिशा में यह छलांग हमें कई सबक देती है।

सबसे पहले, तकनीकी चुनौती। किसी भी देश ने 1990 के दशक तक दिल्ली द्वारा प्रस्तावित पैमाने पर वाहनों में सीएनजी का इस्तेमाल नहीं किया था। इसके अलावा वहनीयता की भी चिंता थी। इसका मतलब था कि नीति को प्रौद्योगिकी नवाचार का मार्गदर्शन करना था, सुरक्षा मानकों को डिजाइन करने से लेकर बस प्रोटोटाइप तक। वित्तीय प्रोत्साहन भी प्रदान किए गए, ताकि पुरानी बसों और तीन पहिया जैसे पैराट्रांजिट को हटाया जा सके और सीएनजी वाहन लाए जा सकें। 

दूसरा पहलू था क्रियान्वयन की चुनौती और बड़े पैमाने पर काम करने की आवश्यकता। यहां चंद सीएनजी वाहन या बसें सड़कों पर उतारने की बात नहीं थी। न्यायालय का आदेश था कि दो से तीन वर्षों के भीतर पूरी तरह से बदलाव किया जाए। इसके लिए समन्वय और कुछ कठोर निर्णयों की आवश्यकता थी और वह भी शीघ्रता से।

आज, दिल्ली में ई-बसों के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना तो है, लेकिन यह अभी आकार नहीं ले पा रही है और उस गति से नहीं बढ़ रही है, जिससे निजी वाहनों की वृद्धि को रोका जा सके। 2023 में शहर में पंजीकृत निजी वाहनों की संख्या पिछले वर्ष की तुलना में दोगुनी हो गई।

यह तब है,, जबकि पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ी हैं और घरेलू बजट का एक बड़ा हिस्सा परिवहन पर खर्च किया जाता है। निजी कारों की संख्या में हुई विस्फोटक वृद्धि से न केवल भीड़भाड़ बढ़ती है, बल्कि सड़कें बढ़ाने और फ्लाईओवर और राजमार्ग बनाने और प्रौद्योगिकी और ईंधन में सुधार पर होने वाले सभी खर्चों पर भी पानी फिर जाता है।

कई पुराने वाहन हैं जो अभी भी प्रदूषण फैला रहे हैं। हमारा स्क्रैपेज कार्यक्रम प्रभावी नहीं रहा है। और भले ही नए वाहन स्वच्छ हों, उनकी संख्या में वृद्धि से लाभ खत्म हो जाता है। यह सीधा गणित है!

स्वच्छ आकाश और स्वस्थ फेफड़ों के लिए इस लड़ाई में दूसरा मुख्य स्रोत वह ईंधन है जिसे हम जलाते हैं, घरेलू चूल्हों से लेकर कारखानों और थर्मल पावर प्लांट तक। ज्यादातर मामलों में यह बायोमास या कोयला होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने पेट कोक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था, यह इस तरह के ईंधनों में सबसे गंदा था। दिल्ली सरकार ने कोयले के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसे बाद में पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लागू कर दिया गया। इस बात पर भी सहमति हुई कि थर्मल पावर प्लांट स्वच्छ किए जाएंगे या बंद हो जाएंगे।

हमें मानना पड़ेगा कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है। सीएनजी अपनाने से मिला सबक यह है कि प्रतिबंध के प्रभावी होने के लिए लोगों के पास विकल्प उपलब्ध होना आवश्यक है। जब डीजल बसें बंद कर दी गईं, तो सीएनजी की आपूर्ति सुनिश्चित करना आवश्यक था।

यह लागत के मामले में भी व्यवहार्य होना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट इस बात से सहमत था कि गंदे ईंधन की तुलना में स्वच्छ ईंधन को सस्ता रखने के लिए राजकोषीय उपायों की जरूरत है। अब, जब कोयले पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, फिर भी प्राकृतिक गैस की अधिक कीमत उद्योग को अप्रतिस्पर्धी बना देती है। यह काम नहीं करेगा।

मेरे पास कहने को बहुत कुछ है और में आपसे वादा करती हूं कि मैं इस मुद्दे पर बात करती रहूंगी। सबसे जरूरी बात यह समझना है कि स्वच्छ हवा के लिए पूरे साल काम करने की जरूरत है और यह तभी काम करेगा जब हम मिलकर और बड़े पैमाने पर काम करेंगे।