18वीं सदी के मध्य में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद से वायु प्रदूषण लगातार एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है। हाल के दशकों में तेजी से होता शहरीकरण, औद्योगीकरण और खेती में हो रहे नए-नए प्रयोग पर्यावरण, लोगों तथा वन्यजीवों के स्वास्थ्य से कई तरह के खतरों से जुड़े हुए हैं।
नए शोध में इस बात पर गौर किया गया है कि दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण ने समुद्री पर्यावरण को किस तरह प्रभावित किया। विशेष रूप से, इस बात पर गौर किया गया है कि जीवाश्म ईंधन के जलने और खेती में तरह-तरह की प्रथाओं से निकलने वाली नाइट्रोजन उत्तरी हिंद महासागर पर कैसे असर डालती है।
फ्रांस के सोरबोन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानवजनित नाइट्रोजन जमाव में वृद्धि के जवाब में महासागर की मुख्य उत्पादकता का विश्लेषण किया। शुरुआती उत्पादकता से तात्पर्य उस दर से है जिस पर सूक्ष्म फाइटोप्लांकटन जैसे प्रकाश संश्लेषण या रसायन संश्लेषण से ऊर्जा का उपयोग करके कार्बनिक पदार्थ का उत्पादन करते हैं। यह महासागर में खाद्य श्रृंखलाओं की नींव बनाता है और जूप्लांकटन जैसे द्वितीयक उत्पादकों द्वारा इसका उपभोग किया जाता है।
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री क्षेत्र के गर्म होने से महासागर के स्तर में वृद्धि हुई है, जहां तापमान और खारेपन में अंतर के कारण घनत्व के आधार पर अलग-अलग परतें बनती हैं। आखिरकार यह पहले और दूसरे उत्पादकों के लिए उपलब्ध पानी के माध्यम से पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण में अहम भूमिका निभाता है।
इस प्रकार, शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर मॉडलिंग के माध्यम से उत्पादकता पर मानवजनित नाइट्रोजन जमाव और महासागर के गर्म होने के बीच संतुलन की जांच की, साथ ही उपग्रह चित्रों के माध्यम से सतह क्लोरोफिल का मूल्यांकन किया।
आंकड़ों ने शुरुआती फाइटोप्लांकटन और दूसरे जूप्लांकटन उत्पादकता के हॉटस्पॉट दिखाए, साथ ही पोषक तत्वों के बढ़ते हुए इलाकों में 100 मीटर से नीचे कार्बनिक कार्बन निर्यात, जैसे कि पश्चिमी अरब सागर में होता देखा गया।
हालांकि सबसे कम उत्पादकता और निर्यात दक्षिण-पूर्वी अरब सागर और मध्य बंगाल की खाड़ी में हुआ, जहां पोषक तत्व गर्म होते महासागर के कारण सीमित हो गए, जिससे नाइट्रक्लाइन या समुद्र में ऊर्ध्वाधर ढाल जहां गहराई के साथ नाइट्रेट की मात्रा बढ़ती है वह गहरा हो गया।
इसके विपरीत, शोधकर्ताओं ने उत्तरी हिंद महासागर में नाइट्रोजन के जमाव में 60 फीसदी की वृद्धि के जवाब में प्रमुख और दूसरे उत्पादक में मामूली वृद्धि देखी गई। वास्तव में 1980 के बाद से, केवल भारत से मानवजनित नाइट्रोजन की मात्रा में दोगुनी वृद्धि हुई है। साथ ही बांग्लादेश और म्यांमार के तटों पर अतिरिक्त वृद्धि हुई है।
फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से कहा गया है कि मुख्य उत्पादकता में 40 साल की गिरावट को संतुलित करने के लिए पर्याप्त उर्वरक तंत्र है, खासकर नाइट्रोजन जमाव के स्रोतों के पास हॉटस्पॉट में, जैसे कि मध्य अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के पश्चिमी हिस्सों में देखा गया।
यहां महासागर के स्तर में भी धीरे-धीरे बढ़ोतरी हुई। वास्तव में जलवायु परिवर्तन के कारण महासागर के गर्म होने के चलते नाइट्रोजन का जमाव कई जगहों पर 70 से 100 फीसदी तक पहुंच गया।
मॉनसूनी मौसम के प्रभाव भी जटिलता को और बढ़ाते हैं, जो महासागर की परतों के मिश्रण को बढ़ा सकते हैं और इस प्रकार, पहले और दूसरे उत्पादक के लिए पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण कर सकते हैं। अरब की धूल में आने वाले लोहे के कणों के जमाव के साथ यह और भी तीव्र हो जाता है। फिर भी उपग्रह छवियों से क्लोरोफिल की प्रचुरता का विश्लेषण पहले उत्पादक के रुझानों से संबंधित नहीं है और समुद्र के रंग के आधार पर इसकी पहचान की जाती है।
यह शोध समुद्र में वायुमंडलीय नाइट्रोजन किस तरह जमा हो रही है इस तंत्र को सामने लाता है, जो समुद्र के गर्म होने से जुड़ी पहले उत्पादक में गिरावट पर असर डालता है।
शोध के मुताबिक, घुले हुए कार्बनिक नाइट्रोजन, नाइट्रोजन और नदी के द्वारा इसके जमा होने को शामिल नहीं किया गया है, जो समुद्र के नाइट्रोजन बजट में योगदान कर सकते हैं और इसे कम करने के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं।