भारत में बच्चों में विटामिन डी और जिंक की कमी तेजी से बढ़ रही है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ सकता है।
रिपोर्ट के अनुसार, 10 से 19 साल के 24 फीसदी किशोर विटामिन डी की कमी से जूझ रहे हैं। यह कमी हड्डियों की मजबूती और रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करती है। जिंक की कमी से बच्चों में नाटेपन और बार-बार बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है।
हैरानी की बात है कि भारत जैसे देश में जहां धूप प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वहां भी बच्चे विटामिन डी की कमी से जूझ रहे हैं।
रिपोर्ट से पता चला है कि जिंक की सबसे ज्यादा कमी किशोरों में पाई गई, 10 से 19 साल के 32 फीसदी किशोर इस समस्या से जूझ रहे हैं। जबकि एक से चार साल के 19 फीसदी और 5 से 9 वर्षीय 17 फीसदी बच्चों में इसकी कमी मिली है।
भारतीय बच्चों में कुपोषण को लेकर एक नई चिंता सामने आई है। केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) की हालिया रिपोर्ट “चिल्ड्रेन इन इंडिया” से पता चला है कि देश में 10 से 14 साल के बच्चों में विटामिन डी और जिंक की कमी तेजी से बढ़ रही है।
रिपोर्ट के मुताबिक देश में एक से चार साल के 14 फीसदी बच्चे, 5 से 9 साल के 18 फीसदी बच्चे और 10 से 19 साल के 24 फीसदी किशोर विटामिन डी की कमी से जूझ रहे हैं। गौरतलब है कि विटामिन डी हड्डियों की मजबूती, रोग प्रतिरोधक क्षमता और बच्चों के समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी है। इसकी कमी से गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
हैरानी की बात है कि भारत जैसे देश में जहां धूप प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वहां भी बच्चे विटामिन डी की कमी से जूझ रहे हैं।
जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक इसके लिए कई वजहें जिम्मेवार हैं, देश में बच्चे धूप में पर्याप्त समय नहीं बिताते, खानपान में विटामिन डी और कैल्शियम की कमी होती है, प्रदूषण से सूरज की किरणें अवरुद्ध हो जाती हैं और मोटापा व अन्य आनुवांशिक कारण भी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही फाइटेट व फॉस्फेट का अधिक सेवन, कैफीन लेना, त्वचा का गहरा रंगा आदि कारण भी जिम्मेवार हैं।
रिपोर्ट से पता चला है कि जिंक की सबसे ज्यादा कमी किशोरों में पाई गई, 10 से 19 साल के 32 फीसदी किशोर इस समस्या से जूझ रहे हैं। जबकि एक से चार साल के 19 फीसदी और 5 से 9 वर्षीय 17 फीसदी बच्चों में इसकी कमी मिली है।
जिंक बच्चों की वृद्धि और बेहतर स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। इसकी कमी से बच्चों में नाटेपन और बार-बार बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है। इसकी कमी से नाटेपन (स्टंटिंग) की समस्या बढ़ जाती है। 2021 में किए एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया में छोटे बच्चों की बीमारियों और मौतों का करीब 4 फीसदी कारण जिंक की कमी है।
2021 के किए एक और अध्ययन में भी यही पाया गया कि 31 फीसदी किशोरों में जिंक की कमी सबसे ज्यादा है, जबकि 5 से 9 साल के बच्चों में यह 16 फीसदी और एक से चार साल के बच्चों में 18 फीसदी रही। यह कमी खासकर उन बच्चों में अधिक दिखी जो नाटेपन, कम वजन या अन्य बीमारियों जैसे दस्त, खांसी, मलेरिया या डेंगू से पीड़ित थे।
पैर पसार रही जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां
रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि 10 से 19 साल के किशोरों में शुगर और कोलेस्ट्रॉल जैसी बीमारियां भी तेजी से पैर पसार रही हैं। इनमें प्री-डायबिटीज (10.4 फीसदी), डायबिटीज (0.6 फीसदी), हाई कोलेस्ट्रॉल (3.7 फीसदी) और हाई ब्लड प्रेशर (4.9 फीसदी) शामिल हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच से नौ वर्ष के एक तिहाई (34 फीसदी) बच्चों में हाई ट्राइग्लिसराइड का खतरा पाया गया है। मतलब की इनमें रक्त में वसा की मात्रा सीमा से अधिक है। इसी तरह 10 से 19 साल के 16 फीसदी किशोर इस समस्या से पीड़ित हैं।
छोटे बच्चों में यह समस्या सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल, सिक्किम और असम में देखी गई, जबकि किशोरों में पश्चिम बंगाल, सिक्किम और मणिपुर शीर्ष पर रहे। विशेषज्ञों का कहना है कि बचपन से ही बढ़ा ट्राइग्लिसराइड भविष्य में आगे चलकर दिल की बीमारियों के खतरे को बढ़ा सकता है।
शिशु मृत्यु दर में मामूली गिरावट
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि भारत में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 2023 में घटकर 25 प्रति हजार जन्म हो गई, यह आंकड़ा 2022 में 26 दर्ज किया गया था। ग्रामीण इलाकों में यह दर 28 दर्ज की गई, जो अब भी शहरी क्षेत्रों में 18 से काफी अधिक है। यह स्वास्थ्य क्षेत्र में फैली असमानता को दर्शाता है।
छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में यह दर सबसे अधिक 37, जबकि केरल में सबसे कम पांच दर्ज की गई है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 29 प्रति हजार दर्ज की गई, जो ग्रामीण क्षेत्रों में 33, जबकि शहरी क्षेत्रों में 20 रही।
सबसे अधिक मृत्यु दर मध्य प्रदेश (44), उत्तर प्रदेश (42) और छत्तीसगढ़ (41) में है, जबकि केरल में यह आंकड़ा सबसे कम 8 दर्ज किया गया है।