कल्पना कीजिए, एक ऐसा रोग जो धीरे-धीरे यादों को निगल जाता है, मां को बच्चे का नाम याद नहीं, पिता घर का रास्ता तक भूल जाते हैं। जब याददाश्त छिनती है, तब उम्मीद सबसे कीमती दवा बन जाती है। लेकिन इस उम्मीद की कीमत आने वाले दशक में करोड़ों डॉलर तक पहुंच सकती है।
नई रिपोर्ट से पता चला है कि दुनिया में बुजुर्गों की बढ़ती आबादी, नई उन्नत दवाओं और इलाज के आने के कारण आठ प्रमुख देशों में अल्जाइमर का बाजार 2023 में 240 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2033 तक 1,700 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। मतलब की इस दौरान बाजार में 608 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी हो सकती है।
इन देशों में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, ब्रिटेन, जापान और चीन शामिल हैं। यह अनुमान डेटा और विश्लेषण के क्षेत्र की अग्रणी कंपनी ग्लोबलडाटा ने अपनी हालिया रिपोर्ट में साझा किए हैं।
इस वृद्धि के पीछे की मुख्य वजह महंगी लेकिन असरदार डिजीज-मॉडिफाइंग थेरेपीज (डीएमटीएस) का बाजार में आना, बुजुर्गों की आबादी में तेजी से होती वृद्धि के चलते मरीजों की संख्या का बढ़ना और भ्रम एवं उत्तेजना जैसे लक्षणों के इलाज के लिए नई दवाओं का लॉन्च होना है।
आंकड़ों के मुताबिक आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे इलाज के विकल्प बढ़ेंगे, डिजीज-मॉडिफाइंग थेरेपीज का उपयोग भी बढ़ेगा। अनुमान है कि यह दवाएं और थेरेपीज 2033 तक बाजार के करीब 69.2 फीसदी हिस्से पर कब्जा कर सकती हैं। इनमें एमाइलॉयड बीटा (Aβ) को लक्षित करने वाली दवाएं प्रमुख भूमिका निभाएंगी।
बता दें कि 'एमाइलॉयड बीटा' एक प्रकार का प्रोटीन टुकड़ा है, जो मस्तिष्क में अल्जाइमर के विकास से जुड़ा माना जाता है।
ग्लोबलडाटा की वरिष्ठ न्यूरोलॉजी विश्लेषक फिलिपा साल्टर के मुताबिक, आइसाई/बायोजेनकी की लेकेबी (लेकेनेमैब) और एली लिली की किसुनला (डोननेमाब) जैसी दवाएं अल्जाइमर बाजार में सबसे ज्यादा बिकने वाली दवाएं बन सकती हैं। अनुमान है कि 2033 तक लेकेबी की अनुमानित वैश्विक बिक्री 290 करोड़ डॉलर और किसुनला की 230 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकती है।
अल्जाइमर कितना खतरनाक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया भर में पांच करोड़ लोग इस रोग से ग्रस्त हैं, जिनके मस्तिष्क की कोशिकाओं में शिथिलता आ चुकी है और उन्हें नुकसान पहुंचा है।
इसके लक्षणों में समय के साथ याददाश्त में कमी आना, सोचने-समझने, तर्क करने और निर्णय लेने की क्षमता पर असर पड़ना शामिल है।
चुनौतियां कम नहीं
हालांकि अल्जाइमर के इलाज के लिए पहली डिजीज-मॉडिफाइंग थेरेपी को मंजूरी मिलना एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इन दवाओं को व्यावहारिक रूप से अपनाने में कई बाधाएं हैं। इन दवाओं को अक्सर आइवी (इंजेक्शन) के जरिए देना पड़ता है और इलाज से पहले पीईटी और एमआरआई स्कैन जैसे महंगे टेस्ट भी जरूरी होते हैं।
ये सभी चीजें इलाज को महंगा और कठिन बना देती हैं, जिससे ज्यादातर मरीजों के लिए इन दवाओं तक पहुंच सीमित हो जाती है।
फिलिपा साल्टर का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “इन नई दवाओं की कीमतें मौजूदा आम दवाओं की तुलना में कहीं अधिक हैं, जिससे बीमा कवरेज और भुगतान को लेकर भी समस्याएं आ रही हैं। उदाहरण के तौर पर जापान में लेकेबी की कीमत में हाल ही में 15 फीसदी की कटौती की गई, जबकि यूके में यह दवाएं एनएचएस के तहत उपलब्ध नहीं है।”
आसान विकल्पों की खोज जारी
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि कुछ ओरल दवाएं भी क्लिनिकल परीक्षण के अंतिम चरण में हैं। ऐसे में यदि उन्हें मंजूरी मिलती है तो इन दवाओं को भी इलाज में शामिल करना आसान होगा। इन दवाओं को टिकिया के रूप में लेना सुविधाजनक है, और ये मौजूदा इंजेक्शन वाली दवाओं (जैसे मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज) की तुलना में ज्यादा सुरक्षित और किफायती भी हो सकती हैं।
इससे ये दवाएं ज्यादा से ज्यादा मरीजों तक आसानी से पहुंच सकेंगी।
फिलिपा साल्टर का मानना है कि आने वाले समय में एक अकेली दवा अल्जाइमर को पूरी तरह ठीक नहीं कर पाएगी। विशेषज्ञों का मानना है कि रोकथाम, लक्षण-प्रबंधन और रोग को धीमा करने वाली दवाओं का संयुक्त उपयोग ही भविष्य के उपचार का मॉडल होगा।
नई डिजीज-मॉडिफाइंग थेरेपी अभी केवल रोग को कुछ हद तक शांत करने में मदद कर रही हैं, इसलिए ऐसी दवाओं की जरूरत है जो न केवल बीमारी को रोकें, बल्कि उससे पूरी तरह निजात भी दिला सकें।
रिपोर्ट के नतीजे दर्शाते हैं कि भले ही आने वाले वर्षों में अल्जाइमर की दवाओं के बाजार में जबरदस्त उछाल हो सकता है, लेकिन अभी भी बेहतर इलाज, खासकर रोग को रोकने या पूरी तरह खत्म करने वाली दवाओं की जरूरत आगे भी बनी रहेगी। साथ ही, मनोवैज्ञानिक लक्षणों जैसे उत्तेजना और भ्रम के लिए भी और अधिक प्रभावी उपचारों की आवश्यकता बनी रहेगी।