मौजूदा समय में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, एशिया से लेकर अफ्रीका और यूरोप से लेकर अमेरिका तक विरोध-प्रदर्शनों की लहर चल रही है। इन प्रदर्शनों में युवाओं का प्रभुत्व है और उनके मुद्दों में शासन - परिवर्तन से लेकर बढ़ी महंगाई तक शामिल हैं। अगर हम दुनिया भर में चल रहे इन विरोध-प्रदर्शनों के मुद्दों और उनकी संरचना का परीक्षण करें तो हम देखते हैं कि इनके पीछे कोई औपचारिक नेतृत्व नहीं है और ये काफी हद तक मुद्दों पर ही आधारित हैं।
बांग्लादेश में जहां विरोध की वजह सत्ता में बदलाव था, वहीं भारत में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के पीछे कोलकाता में एक डॉक्टर के बलात्कार और उसकी हत्या के बाद स्वास्थ्य क्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा है, जबकि केन्या में जेन-जेड(1990 के दशक के मध्य और 2010 के दशक के मध्य के बीच पैदा हुई पीढ़ी) ने वहां की सरकार को नए टैक्स प्रस्ताव वापस लेने को मजबूर कर दिया।
दुनिया भर में ऐसे मामले बढ़ रहे हैं, जिनमें युवा ही विरोध-प्रदर्शनों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। यह बात इसलिए सामान्य लगती है क्योंकि फिलहाल दुनिया में युवाओं की आबादी, इतिहास में अब तक की युवा आबादी से सबसे अधिक है।
अंतरराष्ट्रीय मदद के लिए बनी अमेरिकी एजेंसी, यूएसएआईडी के आकलन के मुताबिक, इस समय दुनिया में 10 से 29 साल के युवाओं की आबादी करीब 2 अरब चालीस करोड़ है, जो दुनिया के इतिहास में सबसे ज्यादा युवा-आबादी है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि यह सबसे बड़ी युवा पीढ़ी है।
यूनिसेफ का ‘तमाम तरह के संकटों से घिरी दुनिया में युवाओं के विरोध-प्रदर्शनों’ पर एक ताजा अध्ययन यह बताता है कि 1990 के दशक के बाद मुद्दों को लेकर आम लोगों का विरोध-प्रदर्शनों में शामिल होने को लेकर उत्साह फिलहाल सबसे ऊंचे स्तर पर है।
यूनिसेफ का अध्ययन यह मानता है कि 21वीं सदी की शुरुआत के बाद से विरोध-प्रदर्शनों में दिखाई देने वाले नए और पुराने रुझानों में फर्क ज्यादा साफ नजर आते हैं। इनके तरीकों के तय करने में अब युवा ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
वे कौन से मुद्दे हैं जो युवाओं को इतने बड़े आंदोलनों का नेतृत्व संभालने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। 21वीं सदी की शुरुआत में वैश्वीकरण के खिलाफ बड़े प्रदर्शन हुए, उसके बाद आर्थिक कठिनाईयों के खिलाफ आंदोलन हुए, जबकि हाल के वर्षों में लोकतंत्र और आजादी के साथ ही जलवायु -परिवर्तन के मुद्दे ने वैश्विक लामबंदी को गति दी।
हाल के वर्षों में, खासकर कोरोना की महामारी के बाद, जीने के लिए जरूरी चीजों के पैदा हुए संकट ने विरोध-प्रदर्शनों के लिए आग में घी का काम किया है। एक आकलन के मुताबिक, नवंबर 2021 से अक्टूबर 2022 के बीच डेढ़ सौ देशों में 12,500 विरोध-प्रदर्शन हुए। इनमें से ज्यादातर महंगाई के विरोध में, ऊर्जा की कीमतें बढ़ने या खाने-पीने की चीजों में कमी के चलते हुए। इन सभी आंदोलनों में युवाओं की खास भूमिका रही।
समाज विज्ञानियों और नीति नियंताओं का इन उभरते प्रदर्शनों पर देर से ध्यान गया। यूनिसेफ की तरह ही 21वीं सदी में दर्ज किए गए विरोध प्रदर्शनों के कुछ व्यापक आकलन किए गए हैं। इनमें से ज्यादातर आकलनों में पाया गया है कि युवा आबादी बुनियादी जरूरतों के लिए लामबंद हो रही है और मौजूदा अप्रभावी राजनीतिक नेतृत्व अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा रहा।
ज्यादातर आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा, आर्थिक सुरक्षा, या सीधे कहें तो रोजगार और जीवन-यापन था। तमाम लोग इसे इस बात का संकेत मानते हैं कि विकास का मौजूदा मॉडल उस पीढ़ी के लिए कारगर साबित नहीं हुआ, जो इसे देखते हुए बड़ी हुई है। इसलिए ये आंदोलन उस मॉडल को लागू करने के लिए हैं जो अभी तक या तो परिभाषित नहीं किया गया या विकसित नहीं किया गया।
कुछ साल पहले अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने युवा आबादी के बीच बढ़ते विरोध-प्रदर्शनों पर बढ़ती बेचैनी को ध्यान में रखते हुए कहा था- ‘युवाओं के रोजगार का संकट केवल सुस्त आर्थिक विकास से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि यदि नीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव नहीं लाए गए तो यह एक संरचनात्मक प्रवृति बन सकता है।’
कुछ लोग इन विरोध-प्रदर्शनों को युवाओं की बढ़ती राजनीतिक आकांक्षा की अभिव्यकित की तरह भी देखते हैं। सेज, ओपन में प्रकाशित एक सर्वे में, जो 128 देशों के करीब दस लाख लोगों के बीच साल 2000 से 2017 के बीच किया गया, यह पाया गया कि 40 साल से कम उम्र वालों की तुलना में 40 साल से ज्यादा उम्र वाले लोग अनौपचारिक राजनीतिक गतिविधियों को ज्यादा पसंद करते हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि ऐसा इसलिए क्योंकि युवा एक पारंपरिक और संस्थागत राजनीति की बजाय मुद्दों पर आधारित ऐसी राजनीति में रुचि रखते हैं, जो काम करने में यकीन रखती हो और जिसमें मध्यवर्ती संस्थाओं की कोई जरूरत न हो।
यूनिसेफ का अध्ययन भी पुरानी और नई पीढ़ियों के बीच दृष्टिकोण और जुड़ाव की भूमिका में इस बदलाव का समर्थन करता है। इसके विश्लेषण के मुताबिक, ‘हाल के सालों में वैश्विक अवलोकनों में यह पाया गया है कि पुरानी और नई पीढ़ी में राजनीतिक सहभागिता के तौर पर लोकतंत्र को लेकर अलग-अलग मत हैं। पुरानी पीढ़ी के लोगों की तुलना में युवा पीढ़ी के लोग लोकतांत्रिक संस्थाओं की अक्षमता से ज्यादा निराश हैं।’