11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है।
1730 खेजड़ली आंदोलन में 363 बिश्नोई वृक्षों की रक्षा करते हुए शहीद हुए।
बिश्नोई समुदाय के 29 नियमों में 8 जैव विविधता की रक्षा के लिए हैं।
वे शव दफनाते हैं और नीले रंग से परहेज करते हैं, ताकि प्रकृति सुरक्षित रहे।
उनका प्रकृति-केंद्रित जीवन दर्शन आज की दुनिया के लिए प्रेरणा है।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में जंगल केवल हरियाली या लकड़ी का स्रोत नहीं हैं, बल्कि वे हमारी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक जीवन रेखा भी हैं। इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए हर साल 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है। यह दिन हमें उन अनगिनत रक्षकों की याद दिलाता है जिन्होंने वनों, वृक्षों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
इसलिए 11 सितंबर को हम उन सभी वन रक्षकों और पर्यावरण प्रेमियों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होंने जंगलों और वन्यजीवों की रक्षा में अपना जीवन बलिदान कर दिया।
प्रकृति से अटूट रिश्ता
राजस्थान के थार मरुस्थल में बसा मुकाम गांव बिश्नोई समुदाय का आध्यात्मिक केंद्र है। बिश्नोई सदियों से प्रकृति संरक्षण के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके जीवन का आधार 29 नियम (नियम या आदेश) हैं, जिन्हें नियम या नियाम कहा जाता है। ‘बिश’ का अर्थ है 20 और ‘नोई’ का अर्थ है नौ। इन 29 नियमों में से आठ नियम विशेष रूप से जैव विविधता संरक्षण से जुड़े हुए हैं। इनमें पेड़ काटने पर रोक, पशुओं की हत्या न करने और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने जैसे सिद्धांत शामिल हैं।
बिश्नोई मानते हैं कि पौधे और जानवर मनुष्यों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे इस धरती पर हमसे पहले आए और उनका अस्तित्व हमारी जरूरतों से कहीं बड़ा है।
करुणा और संवेदनशीलता की परंपरा
बिश्नोई धर्मग्रंथों में लिखा है कि "जीवा ऊपर जोर करीजे, अंत काल होय सि भारु” अर्थात यदि कोई मनुष्य जानवरों पर क्रूरता करेगा तो उसका अंत दुखद होगा। यही कारण है कि बिश्नोई गांवों में अन्य स्थानों की तुलना में अधिक वन्य जीव पाए जाते हैं।
उनका जीवन केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी तरह व्यवहारिक भी है। उदाहरण के लिए, वे अपने मृतकों का दाह संस्कार न कर उन्हें दफनाते हैं ताकि लकड़ी की बर्बादी न हो। वे नीले रंग के कपड़े नहीं पहनते क्योंकि उसका रंग बनाने में बहुत सारी झाड़ियां नष्ट हो जाती हैं। इतना ही नहीं, उनके यहां विधवाएं भी रंग-बिरंगे कपड़े पहन सकती हैं। इस तरह बिश्नोई न केवल प्रकृति के रक्षक हैं बल्कि सामाजिक प्रगतिशीलता का भी प्रतीक हैं।
खेजड़ली का बलिदान : भारत का पहला पर्यावरण आंदोलन
इतिहास में दर्ज है कि सितंबर 1730 में राजस्थान के जोधपुर के पास स्थित खेजड़ली गांव में महाराजा की सेना ने पेड़ों को काटने का आदेश दिया। बिश्नोई समुदाय के लोगों ने इसे प्रकृति पर आक्रमण माना और 363 पुरुषों और महिलाओं ने खेजड़ी के वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। वे पेड़ों से लिपट गए और उनकी बलि दे दी, परंतु वृक्षों को नहीं काटने दिया।
यह घटना केवल बलिदान नहीं थी, बल्कि भारत के पहले पर्यावरण आंदोलन की नींव थी। बाद में इसी से प्रेरणा लेकर उत्तराखंड में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन चला, जिसमें गौरा देवी और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे कार्यकर्ताओं ने जंगल बचाने की मुहिम छेड़ी।
इसी कारण आज भी 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है, ताकि खेजड़ली के बलिदान और देश के सभी वन रक्षकों को सम्मान दिया जा सके।
आधुनिक दुनिया के लिए प्रेरणा
आज के समय में जब हम “ग्रीन लिविंग” या “पर्यावरण मित्र” बनने की बात सोशल मीडिया पर करते हैं, वहीं बिश्नोई समुदाय बिना किसी प्रचार के सदियों से यह जीवन जी रहा है। थार जैसे शुष्क और कठोर इलाके में रहकर भी वे समृद्ध कृषक समुदाय हैं। उनका रहन-सहन इस बात का उदाहरण है कि यदि हम प्रकृति से केवल उतना ही लें जितनी वास्तव में आवश्यकता है, तो जीवन समृद्ध और संतुलित हो सकता है।
उनका जीवन दर्शन मानव-केंद्रित नहीं, बल्कि प्रकृति-केंद्रित है। वे हमें सिखाते हैं कि जंगल, पेड़ और पशु केवल संसाधन नहीं, बल्कि हमारे सहअस्तित्व के साथी हैं।
राष्ट्रीय वन शहीद दिवस हमें यह याद दिलाता है कि प्रकृति की रक्षा केवल पर्यावरणविदों या वन विभाग का कार्य नहीं है, बल्कि यह हम सभी की जिम्मेदारी है। बिश्नोई समुदाय का बलिदान और जीवन दर्शन हमें यह सिखाता है कि असली प्रगति वही है जिसमें प्रकृति और मानव दोनों का संतुलन बना रहे।
आज जब जलवायु परिवर्तन, जंगलों के काटे जाने और प्रदूषण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं, तब 11 सितंबर का यह दिन हमें प्रेरित करता है कि हम भी प्रकृति को उसी श्रद्धा और संवेदना से देखें, जैसे बिश्नोई देखते आए हैं। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन वन शहीदों के लिए, जिन्होंने हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए हरियाली और जीवन बचाया।