जल, जंगल, जमीन, जैवविविधता, और पर्यावरण को बचाए रखने में मूल निवासियों ने अहम भूमिका निभाई है; फोटो: सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) 
पर्यावरण

जल, जंगल, जमीन बचाने की जद्दोजहद में भारत के 86 पर्यावरण रक्षकों ने गंवाई जान

Lalit Maurya

हमारे समाज में इससे ज्यादा विडंबना क्या होगी कि जो लोग पूरी मानव जाति की भलाई के लिए संघर्ष कर रहे हैं उनको ही अपने फायदे के लिए निशाना बनाया जा रहा है।

इस बारे में विचलित कर देने वाले आंकड़े सामने आए हैं, जिनके मुताबिक भारत में 2012 से अब तक 86 लोगों की हत्या की जा चुकी है, जो जल, जंगल, जमीन और पर्यावरण को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे।

नल्ला रामकृष्णई, सिंधु मुंडा, शशिकांत वरिशे, वसीम सज्जाद और महम्मद हारून यह वो पांच लोग हैं जिन्होंने 2023 में पर्यावरण को बचाने के प्रयासों में अपने जीवन की आहुति दी थी।

देखा जाए तो पर्यावरण रक्षकों की हत्या का यह सिलसिला केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। 2023 में दुनिया भर में पर्यावरण को बचाने के प्रयासों के चलते 196 लोगों की हत्या की गई। मतलब की करीब-करीब हर दूसरे दिन दुनिया के किसी न किसी हिस्से में कोई न कोई कार्यकर्ता, पर्यावरण को बचाने के लिए अपने जीवन की आहुति दे रहा है।

वहीं 2012 से देखें तो पिछले एक दशक में 2,106 लोगों को उनके प्रयासों के लिए मारा गया है। यह वो लोग थे जो पूरी मानव जाति के अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यह जानकारी पर्यावरण बचाने को लेकर काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय संगठन ग्लोबल विटनेस द्वारा जारी नई रिपोर्ट 'मिसिंग वॉइसेस' में सामने आई है।

यदि आंकड़ों पर नजर डालें तो कोलंबिया दुनिया में पर्यावरक रक्षकों के लिए सबसे खतरनाक देश है, जहां पिछले साल 79 पर्यावरण रक्षकों की हत्या कर दी गई थी। वहीं 2022 में 60, जबकि 2021 में 33 लोगों को इसलिए मारा गया था, क्योंकि वो पर्यावरण को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

ग्लोबल विटनेस द्वारा एक साल में किसी एक देश में दर्ज की गई यह सबसे ज्यादा पर्यावरण रक्षकों की मौतें हैं। 2012 से 2023 के बीच देखें तो कोलंबिया में 461 कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, जो दुनिया में सबसे अधिक है।

इसी तरह पर्यावरण रक्षकों के लिए दक्षिण अमेरिका के सबसे घातक देशों में ब्राजील, मेक्सिको और होंडुरास शामिल थे। 2023 के दौरान ब्राजील में जहां 25 हत्याएं की गई। वहीं मैक्सिको एवं होंडुरास में 18-18 पर्यावरण रक्षकों को भी निशाना बनाया गया।

आवाज दबाने के लिए मूल निवासियों को विशेष रूप से बनाया जा रहा निशाना

मतलब की मध्य अमेरिका दुनिया में पर्यावरण रक्षकों के लिए सबसे खतरनाक क्षेत्रों में से एक है। होंडुरास से जुड़े आंकड़ों को देखें तो वहां प्रति व्यक्ति हत्याओं की संख्या सबसे अधिक रही। इसी तरह निकारागुआ में 10, जबकि ग्वाटेमाला और पनामा में चार-चार पर्यावरण प्रहरियों को मारा गया।

ग्लोबल विटनेस के मुताबिक दुनिया भर में मूल निवासियों को सबसे ज्यादा निशाना बनाया जा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक जहां मूल निवासी दुनिया की आबादी के केवल पांच फीसदी हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। वहीं वैश्विक स्तर पर जल, जंगल, जमीन को बचाने में हुई कुल हत्याओं में उनका हिस्सेदारी 49 फीसदी थी।

हालांकि इसमें कोई दोराह नहीं कि पर्यावरण कार्यकर्ताओं की हत्या के यह जो आंकड़े सामने आए हैं वो वास्तविकता का एक छोटा सा हिस्सा हैं, क्योंकि न जाने ऐसे कितने मामले हैं जो सामने ही नहीं आते और यह सारी दुनिया में हो रहा है। 

ग्लोबल विटनेस और इस रिपोर्ट से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता लॉरा फ्यूरोन्स का कहना है, "जैसे-जैसे जलवायु संकट गहराता जा रहा है, हमारे ग्रह की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले लोगों को हिंसा, धमकियों और यहां तक कि मौत के घाट भी उतारा जा रहा है, यह बेहद चिंताजनक हैं।“

उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा कि, “सरकारें महज मूक दर्शक बनी नहीं रह सकती, उन्हें पर्यावरण रक्षकों को बचाने और उनके खिलाफ होती हिंसा को रोकने के लिए कदम उठाने होंगे।“ “यह कार्यकर्ता और उनके समुदाय जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों द्वारा किए नुकसान से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम और अधिक लोगों की जान नहीं गंवा सकते, हमें इसे बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।"

रिपोर्ट के मुताबिक हालांकि किसी एक रक्षक की हत्या को सीधे तौर पर विशिष्ट कंपनियों से जोड़ना मुश्किल है, लेकिन रिपोर्ट में खनन को इन हत्याओं का सबसे बड़ा कारण पाया है। इनका विरोध करने पर 2023 में 25 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई। इसी तरह मछली पकड़ने को लेकर पांच, वन विनाश की वजह से पांच, कृषि और सड़क एवं बुनियादी ढांचे की वजह से चार-चार, जबकि जल विध्युत को लेकर दो पर्यावरण रक्षकों को मौत के घाट उतारा गया है।

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि पिछले साल दुनिया भर में खनन की वजह से 25 में से 23 हत्याएं दक्षिण अमेरिका में हुई हैं। लेकिन 2012 से 2023 के बीच खनन को लेकर हुए टकराव में जितनी भी मौतें हुई है, उनमें से 40 फीसदी एशिया में रिकॉर्ड की गई हैं। बता दें कि एशिया स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले खनिजों के प्राकृतिक भंडार का भी घर है।

रिपोर्ट में न केवल हत्याओं पर प्रकाश डाला गया है, बल्कि दुनिया भर में इन समुदायों पर होते हमलों के रुझानों को भी दर्शाया गया है। यह विशेष रूप से फिलीपींस और मैक्सिको में जबरन गायब और अपहरण के मामलों के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर कार्यकर्ताओं को चुप कराने के लिए कानूनी आरोपों के बढ़ते उपयोग की ओर भी इशारा करता है।

मतलब की कहीं न कहीं कानून का उपयोग पर्यावरण रक्षकों की आवाजों को दबाने की  रणनीति के रूप में किया जा रहा है।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस तरह अमेरिका और यूरोप में पर्यावरण कार्यकर्ताओं को कड़ी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के खिलाफ आवाज उठाने करने वालों के खिलाफ कानूनों का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इतना ही नहीं वहां जलवायु परिवर्तन के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों को कड़ी सजा दी जा रही है। यह कार्यकर्ताओं को चुप कराने के लिए कानून का इस्तेमाल करने की चिंताजनक वैश्विक प्रवृत्ति का हिस्सा है।

2023 में सेना द्वारा अगवा की गई और अब कानूनी आरोपों का सामना कर रही फिलिपिनो कार्यकर्ता जोनिला कास्त्रो ने रिपोर्ट के हवाले से कहा है, "उन्हें रिहा होने के बाद भी धमकिया मिल रही हैं। हम अपने घरों और समुदायों में वापस लौटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हम पर अभी भी निगरानी हो रही है और ​​रेड-टैगिंग के साथ-साथ धमकियां भी मिल रही हैं।"

उनके मुताबिक पर्यावरण रक्षकों की आवाज दबाने के लिए किए जा रहे हमले पर्यावरण और लोगों के अधिकारों की रक्षा के प्रयासों को खतरे में डाल रहे हैं।

देखा जाए तो पर्यावरण विनाश और मानवाधिकार का उल्लंघन एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। जिनके तार कहीं न कहीं सरकारों और उनके द्वारा संरक्षित उद्योगों से जुड़े हैं। उनके मुताबिक बढ़ते जलवायु संकट और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सरकारों द्वारा पेरिस समझौते किया गया था। साथ ही यह वादा किया गया था कि वैश्विक समुदाय इस पर कार्रवाई करेगा, इसके बावजूद भूमि और पर्यावरण रक्षकों को ग्रह की रक्षा के उनके प्रयासों से रोकने के लिए अधिक हमलों का सामना करना पड़ रहा है। 12 दिसंबर, 2015 को पेरिस समझौते को अपनाए जाने के बाद से देखें तो कम से कम 1,500 रक्षक ने जीवन की आहुति दी है।

इस बारे में 2024 के गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार विजेता और रिपोर्ट की प्रस्तावना के लेखक नॉनहले म्बुथुमा ने रिपोर्ट में कहा, "दुनिया भर में, जो लोग वन विनाश, प्रदूषण और भूमि हड़पने जैसे खनन उद्योगों के हानिकारक प्रभावों को उजागर करते हैं, उन्हें हिंसा या धमकी का सामना करना पड़ता है। यह विशेष रूप से मूल निवासियों के लिए सच है, जो जलवायु परिवर्तन से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन हर साल उन्हें कहीं ज्यादा निशाना बनाया जाता है।"

उनके मुताबिक यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि जब सामान्य लोग, एक आम उद्देश्य के लिए एकजुट होते हैं और न्याय की मांग करते हैं तो यह लोगों की ताकत को दर्शाता है। उनके खिलाफ हमलों की क्रूरता इस बात को रेखांकित करती है कि उनकी आवाज कितनी मायने रखती है।

ऐसे में सत्ताधारियों का भी कर्तव्य है कि वो इनकी बात सुनें और सुनिश्चित करें कि भूमि और पर्यावरण के लिए अपनी आवाज बुलंद करने वाले यह लोग बिना डर के अपनी बात कह सकें। यह जिम्मेवारी न केवल बल्कि दुनिया के हर समृद्ध और साधन संपन्न देश की भी है।