राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1905 में शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन की 120वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में सात अगस्त को पूरे भारत में राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस पहली बार 2015 में देश में हथकरघा श्रमिकों के योगदान के सम्मान में मनाया गया था।
राष्ट्रीय हथकरघा दिवस भारत की समृद्ध वस्त्र विरासत और उन अनगिनत बुनकरों के सम्मान में मनाया जाता है जिन्होंने एक-एक धागे से हमारी संस्कृति को संजोए रखा है। यह दिन न केवल हाथ से बुने कपड़ों की सुंदरता की सराहना करने का दिन है, बल्कि भारत के सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में हथकरघा क्षेत्र की गहरी जड़ों को भी पहचानने का दिन है।
जैसे-जैसे फैशन और स्थायित्व पर बातचीत जोर पकड़ रही है, हथकरघा धीरे-धीरे लगातार पुनर्जीवित हो रहा है। केवल विरासत से बढ़कर, इसे आधुनिक भारतीय परिधानों के लिए एक व्यावहारिक और प्रचलित विकल्प के रूप में स्थापित किया जा रहा है। आज के डिजाइनर पुराने जमाने के शिल्प कौशल को आधुनिक डिजाइनों के साथ मिला रहे हैं, जिससे हथकरघा कपड़े युवा पीढ़ी के लिए अधिक सुलभ और आकर्षक बन रहे हैं।
भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार, हथकरघा क्षेत्र में लगभग 35 लाख लोग काम कर रहे हैं, जो विविध पृष्ठभूमि और संस्कृतियों से जुड़े हैं। हर एक क्षेत्र अपनी अनूठी शैलियां और पैटर्न प्रस्तुत करता है, जो जम्मू और कश्मीर के सुदूर उत्तरी क्षेत्र से लेकर तिरुवनंतपुरम के सुदूर दक्षिणी क्षेत्र तक फैले हुए हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों और कम आय वाले परिवारों में, हथकरघा उद्योग महिलाओं को उनकी आजीविका बनाए रखने के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाने में विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहा है।
इस दिन का महत्व भारत की हथकरघा वस्त्रों की समृद्ध विरासत में समाया है। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस, हथकरघा उद्योग की समृद्ध परंपरा और महत्वपूर्ण प्रभाव को संरक्षित करने के प्रयासों को दर्शाता है। हथकरघा उद्योग कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, जिसमें 35 लाख से ज्यादा कारीगर जुड़े हुए हैं।
भारत दुनिया के 95 प्रतिशत हाथ से बुने हुए कपड़े का उत्पादन करता है। भारत में 70 प्रतिशत से अधिक बुनकर महिलाएं हैं और कपड़ा निर्यात और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उनका अहम योगदान है।
राष्ट्रीय हथकरघा दिवस 2025 और जीआई टैग वाले उत्पाद
भारत में वस्तुओं के भौगोलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999, जो 2003 में लागू किया गया था। इसका उद्देश्य विशेष भौगोलिक उत्पत्ति और विशेष गुणों वाले उत्पादों को भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग प्रदान करके हथकरघा निर्माताओं के हितों की रक्षा करना है।
जीआई टैग इन उत्पादों को किसी भी अवैध उपयोग, जिसमें नकल भी शामिल है, से बचाते हैं, जिससे उन परिस्थितियों को समाप्त करने में मदद मिलती है जहां ग्राहकों को अप्रमाणिक वस्तुओं के लिए भुगतान करना पड़ सकता है। जीआई के शोषण को रोकने ने भी इन उत्पादों के बाजार मूल्य को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है।
जीआई टैग वाले कुछ उत्पादों में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी हथकरघा उत्पाद, तमिलनाडु का चेदिबुट्टा साड़ी, राजस्थान का जोधपुर बंधेज शिल्प, जम्मू एवं कश्मीर का बसोहली पश्मीना ऊनी उत्पाद, उत्तराखंड के कुमाऊं का रंगवाली पिछौड़ा, पश्चिम बंगाल की तंगेल साड़ी, गारद साड़ी और कोरियल साड़ी इसमें शामिल हैं।
हथकरघा अपनी प्रकृति से ही, पर्यावरण के अनुकूल है, लेकिन जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ, चुनौतियां भी हैं। यह बिजली का बहुत कम या बिल्कुल उपयोग नहीं करता, प्राकृतिक धागों और रंगों पर निर्भर करता है। बड़े पैमाने पर उत्पादित फैशन का एक विचारशील विकल्प बनकर स्थानीय कारीगरों को आजीविका प्रदान करता है। ये कारण हथकरघे को त्वचा के लिए कोमल और भारत की जलवायु में कहीं अधिक सांस लेने योग्य बनाते हैं, जो इसे सचेत कपड़ों के सभी मानदंडों पर खरा उतरता है।
इन सबके बावजूद राष्ट्रीय हथकरघा दिवस, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल फैशन को बढ़ावा देते हुए, भारत की वस्त्र परंपराओं पर गर्व करने की प्रेरणा देता है। यह हमें हथकरघा वस्त्रों के निर्माण में समाए अद्भुत कौशल और कलात्मकता की याद दिलाता है।