बाकू में सम्पन्न हुए जलवायु शिखर सम्मेलन यानी कॉप 29 में समृद्ध देशों ने 24 नवंबर 2024 को जलवायु वित्त पोषण के रूप में हर साल 300 अरब डॉलर की सहायता देने पर समझौता किया है। गौरतलब है कि विकासशील देश 1,300 अरब डॉलर की मांग पर अड़े थे, जिसकी वजह से 22 नवंबर 2024 को कॉप का समापन नहीं हो पाया था।
यह राशि विकसित देशों की मदद के साथ-साथ अन्य स्रोतों से दी जाएगी।
दस वर्षों की प्रतीक्षा, दो वर्षों से अधिक की वार्ता, तकनीकी विश्लेषण और दो सप्ताह की राजनीतिक सौदेबाजी और बहस के बाद, अंततः नए जलवायु वित्त लक्ष्य (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल यानी एनसीक्यूजी) पर निर्णय को मंजूरी दे दी गई।
निराशाजनक रहे परिणाम, विकासशील देशों ने किया जोरदार विरोध
गौरतलब है कि सम्मलेन के अंतिम दिनों में पक्षकारों ने इस बात पर चर्चा की थी कि नए लक्ष्यों एनसीक्यूजी में कितना और किस तरह का जलवायु वित्तपोषण शामिल किया जाना चाहिए।हालांकि 23 नवंबर की सुबह अध्यक्ष की ओर से जारी पाठ का विकासशील देशों की ओर से जोरदार विरोध किया गया था।
इस पाठ में सभी पक्षकारों से 2035 तक विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्तपोषण को बढ़ाकर 1,300 अरब डॉलर प्रति वर्ष करने के लिए मदद करने का आग्रह किया है। यह भी सुझाव दिया गया है कि विकासशील देश इसमें स्वेच्छा से योगदान कर सकते हैं। इस तरह यह पाठ लक्ष्य के अंतर्गत सम्पूर्ण वित्त उपलब्ध कराने के समृद्ध देशों के कानूनी दायित्व को कमजोर कर देता है। इससे कहीं न कहीं विकसित देशों की जिम्मेवारी घट जाती है।
इस पाठ में 2035 तक 100 अरब डॉलर के पिछले लक्ष्य को बढ़ाकर 300 अरब डॉलर प्रति वर्ष कर दिया गया है, जोकि पिछले ड्राफ्ट में दिए 250 अरब डॉलर के लक्ष्य से कुछ अधिक है। इसमें विकसित देशों की अग्रणी भूमिका होगी। हालांकि 300 अरब डॉलर का यह आंकड़ा, जरूरत से बेहद कम है।
गौरतलब है कि 130 से ज्यादा विकासशील देशों जिसमें जी-77 और चीन शामिल हैं, ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अमीर देशों से 600 अरब डॉलर के सार्वजनिक वित्त की मांग की थी। वहीं 2030 तक हर साल 1,300 अरब डॉलर की मांग रखी गई थी। हालांकि बाद में वार्ता के अंतिम दिनों में इस मांग को घटाकर 500 अरब डॉलर कर दिया गया था।
विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु कार्रवाई के लिए 1,000 से 1,300 अरब डॉलर की धनराशि की आवश्यकता होगी। इस रकम के जरिए जलवायु प्रभावों के कारण होने वाली हानि व क्षति से निपटने में जरूरतमन्द देशों को मदद दी जाएगी। उनके लिए बचाव, अनुकूलन उपाय किए जाएंगे और स्वच्छ ऊर्जा की नई प्रणालियों का निर्माण किया जाएगा।
यूएनएफसीसीसी द्वारा जलवायु वित्त की आवश्यकता को लेकर जारी रिपोर्ट के मुताबिक विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों (एनडीसी) को हासिल करने के लिए 2030 तक 5,012 से 6,852 अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।
हालांकि सिर्फ अनुकूलन के लिए दिए जाने वाले वित्त में यह अंतर सालाना 194 से 366 अरब डॉलर के बीच है। यह विकसित देशों की ओर से मजबूत प्रतिबद्धता की कमी को दर्शाता है।
निष्कर्ष के रूप में जो पाठ जारी किया गया है, उसमें 'धन मुहैया कराने' और 'धन जुटाने' के बीच के अंतर को स्पष्ट नहीं किया गया है। इससे विकसित देशों को अपनी वित्तीय जिम्मेवारियों को निजी क्षेत्र पर डालने की छूट मिल जाती है। इसमें इस बात का भी उल्लेख नहीं किया गया है कि नया लक्ष्य विकसित देशों से मौजूदा सहायता के अतिरिक्त होना चाहिए या नई योजना के तहत अनुदान के लिए कोई विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। इसमें स्पष्ट शब्दों का आभाव है।
इसके अलावा, पाठ में दी गई समय-सीमा के चलते, विकासशील देशों को 2034 तक बहुत कम धनराशि मिल सकती है, तथा उसके बाद 2035 तक इस धनराशि को बढ़कर 300 अरब डॉलर किया जा सकेगा।
भारत सहित अन्य विकासशील देशों की क्या रही प्रतिक्रिया
कॉप-29 में वार्ता का दौर बेहद कठिन रहा, कई मुद्दों पर तो तकरार इतनी बढ़ गई कि वार्ता विफल होने के करीब तक पहुंच गई।
बेहद कमजोर देशों (एलडीसी) और छोटे विकासशील द्वीपीय देशों (एसआईडीएस) के प्रतिनिधियों ने 23 नवंबर की शाम को वार्ता छोड़ दी क्योंकि वार्ता उनकी जरूरतों और मांगों को संबोधित नहीं कर रही थी। ये देश जी77 और चीन ब्लॉक की मांग के अनुरूप एक पर्याप्त वित्त लक्ष्य की मांग कर रहे थे, जिसमें उनके देशों के लिए विशिष्ट निधि निर्धारित की गई थी।
समापन सत्र में, प्रेसीडेंसी ने नए जलवायु वित्त लक्ष्य (एनसीक्यूजी) के निर्णय को शुरूआत में ही अंतिम रूप दे दिया। भारतीय प्रतिनिधिमंडल, जिन्हें निर्णय को अपनाने से पहले बोलने के लिए कहा गया था, उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति जताई। भारत ने पाठ पर असहमति व्यक्त करते हुए प्रक्रिया में "विश्वास की कमी" बताई।
कुल मिलाकर देखें तो समृद्ध देशों ने महज 300 अरब डॉलर का वादा किया है जो कमजोर देशों की मदद के लिए पर्याप्त नहीं है। मतलब की कहीं न कहीं उत्तर ने जलवायु वित्त के मामले में दक्षिण का साथ छोड़ दिया है, क्योंकि इतने कम पैसे के साथ, वे उन देशों से और अधिक करने के लिए नहीं कह सकते। सौदा अस्पष्ट है, इसलिए पैसे का हिसाब रखना मुश्किल होगा। इसकी वजह से धन के लिए देशों को ट्रैक करना और उन्हें जवाबदेह ठहराना मुश्किल होगा।
अमीर देशों के लिए यह आगे बढ़ने, अपना उचित हिस्सा देने और वैश्विक प्रक्रिया में विश्वास को फिर से कायम करने का आखिरी मौका था, जिसमें वे विफल रहे हैं।