पुणे में अप्रैल के दौरान कई ऐसे दिन ऐसे दर्ज हुए जब दिन का अधिकतम तापमान 40 से 43 डिग्री सेल्सियस के बीच रहा। वैज्ञानिकों के मुताबिक महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में स्थिति इससे भी खराब रही, जब तापमान इससे भी कहीं ज्यादा अनुभव किया गया।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके चलते अप्रैल में कई बार ऐसी स्थिति पैदा हो गई जब तापमान बुजुर्गों (65 वर्ष से अधिक) की सहन क्षमता से बाहर हो गया। मतलब कि इस दौरान कई बार तापमान 'खतरनाक पर्यावरणीय सीमा' को पार कर गया।
गौरतलब है कि मानव शरीर का भीतरी तापमान आमतौर पर शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा बेहद संतुलित रहता है। इसमें सामान्य दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों के दौरान शायद ही कभी एक डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा का उतार-चढ़ाव होता है।
देखा जाए तो शरीर के सुचारू कामकाज के लिए इस कोर तापमान को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। लेकिन जब शरीर का अंदरूनी तापमान बढ़ जाता है, जैसे बुखार के समय होता है, तो तापमान में यह इजाफा शरीर की सामान्य स्थिति में आने वाले बदलाव को दर्शाता है। शरीर को ठंडा रखने का मुख्य तरीका पसीने का वाष्पीकरण है। इसी वजह से गर्मी में ज्यादा पानी पीने की सलाह दी जाती है।
वहीं जब वातावरण बेहद गर्म या ठंडा होता है तो शरीर के कोर तापमान को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। गर्मी की स्थिति में खासतौर पर जब पसीना पूरी तरह से न सूखे, तब शरीर खुद को ठंडा नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति को 'क्रिटिकल एनवायरनमेंटल लिमिट' कहा जाता है और यह बेहद खतरनाक होती है। युवाओं की तुलना में खासकर बुज़ुर्गों और बीमार लोगों के लिए यह स्थिति कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण होती है।
भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसन्धान संस्थान (आईआईएसईआर), पुणे के छात्र और वैज्ञानिक, जो पर्यावरण की स्थिति पर नजर रख रहे हैं, उन्होंने पाया कि अप्रैल में पाया कि दोपहर 12 बजे से शाम 4 बजे के बीच पुणे में कई दिन ऐसी स्थिति रही जब तापमान बुजुर्गों के लिए महत्वपूर्ण इस पर्यावरणीय सीमाओं को पार कर गया।
आईआईएसईआर, पुणे के छात्र और वैज्ञानिक, जो अप्रैल के दौरान पर्यावरण की स्थिति पर नजर रख रहे हैं, ने पाया है कि बुजुर्ग व्यक्तियों (65 वर्ष से अधिक) के लिए महत्वपूर्ण पर्यावरणीय सीमाएं अप्रैल के आरंभ से कई दिनों तक पार हो गई हैं।
उन्होंने एक विशेष हीट बजट मॉडल के जरिए शरीर पर गर्मी के असर को मापा और पाया कि कई बार शरीर का तापमान नियंत्रित नहीं हो पाया।
हालांकि 'क्रिटिकल एनवायरनमेंटल थ्रेशोल्ड' यानी खतरनाक पर्यावरणीय सीमाएं बेहद गंभीर स्थिति को दर्शाती है, लेकिन शरीर का तापमान इससे कम गर्मी में भी बढ़ सकता है। ऐसा तब होता है जब पसीना पूरी तरह नहीं सूख पाता और शरीर को ठंडा करने के लिए जरूरत से ज्यादा पसीना बनता है। इन चरम दिनों में ऐसी स्थितियां लंबे समय तक अनुभव की गई।
अप्रैल की गर्मी में बुजुर्गों के लिए यह स्थिति सुबह 9:30 बजे से शाम 6 बजे तक बनी रही। यह अवधि आम सार्वजनिक स्वास्थ्य सलाह से कहीं ज्यादा लंबी थी, जिसमें लोगों से दोपहर 12 से शाम 4 बजे के बीच बाहर जाने से बचने के लिए कहा जाता है।
विदर्भ में सामने आए हैं हीट स्ट्रोक के कई मामले
अप्रैल में वैज्ञानिकों ने पाया कि हर दिन खतरनाक पर्यावरणीय सीमा शून्य से चार घंटे तक पार हुई, जबकि शरीर को ठंडा रखने के लिए जरूरत से ज्यादा पसीना निकलने की स्थिति प्रतिदिन तीन से आठ घंटे तक बनी रही। ऐसा सबसे ज्यादा तब हुआ जब दिन का अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया।
आईआईएसईआर पुणे में असिस्टेंट प्रोफेसर जॉय मोंटेरियो ने कहा, "हमने देखा कि पुणे जैसे हरे-भरे इलाके में भी बुज़ुर्गों के शरीर का तापमान नियंत्रण से बाहर हो रहा था। वहां बुजुर्गों के शरीर के तापमान के नियंत्रण से बाहर होने वाली स्थिति अब दिन में ज्यादा समय तक बनी रहती है। ऐसे में विदर्भ जैसे गर्म क्षेत्रों में, जहां तापमान और अधिक था, वहां हीट स्ट्रोक के कई मामले सामने आए हैं, मतलब की वहां स्थिति और गंभीर रही होगी।"
उन्होंने आगे कहा, "हमें याद रखना चाहिए कि शरीर के कोर तापमान में मामूली बढ़ोतरी अपने आप में खतरनाक नहीं है, और यह आमतौर पर शारीरिक श्रम या व्यायाम जैसी गतिविधियों के दौरान हो सकती है। हालांकि, इस महीने हमने जो चरम पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना किया है, उस दौरान ऐसी गतिविधियां करने से शरीर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने का खतरा बहुत बढ़ जाता है, जिससे हीट स्ट्रोक हो सकता है।”
उन्होंने बताया कि, “ऐसी पर्यावरणीय स्थितियां संभवतः पहले भी रही होंगी, लेकिन यह पहली बार है जब हमने ऐसी परिस्थितियों से जुड़े स्वास्थ्य संबंधी खतरों को मापने में सफलता पाई है। यह इसलिए अहम है क्योंकि अब हमें ऐसी स्थितियों का पहले से अधिक बार सामना करना पड़ रहा है।“
उन्होंने पाया कि अधिकतम पसीना आने की दर महज उम्र के कारण नहीं घटती, बल्कि कुछ स्वास्थ्य समस्याओं जैसे डायबिटीज और डिहाइड्रेशन की वजह से भी घट सकती है। उदाहरण के लिए, महिलाओं के लिए यह आम बात है कि वे साफ शौचालय की कमी जैसे डर से जानबूझकर कम पानी पीती हैं। उनका कहना है कि इससे गर्मी से जुड़ी बीमारियों का खतरा युवाओं में बढ़ सकता है। इससे खासकर महिलाओं में भी हीट स्ट्रेस का खतरा बढ़ जाता है।