तेजी से बढ़ते तापमान का असर हिमशिखरों पर पहले से कहीं अधिक स्पष्ट तौर पर देखा जा रहा है। फुहारों और बर्फबारी की जगह हिमालयी चोटियां बारिश की तीव्र बौछारों का सामना कर रही हैं। इससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। इस वर्ष केदारनाथ की पहाड़ियों में भूस्खलन, वरुणावत पर्वत का धंसना, ओम पर्वत से बर्फ का हटना और अब हिमनद झील रूपकुंड के सिकुड़ने जैसी घटनाएं सामने आई हैं। जलवायु परिवर्तन हिमालयी क्षेत्र के पर्वतों, झीलों, वनों और रास्तों, सबकुछ बदल रहा है।
चमोली में 21 अगस्त से 17 सितंबर के बीच मां नंदा देवी लोकजात यात्रा पर गए श्रद्धालुओं के जत्थे ने मलबे और पत्थरों से सिकुड़ी रूपकुंड झील के बदलाव को देखा। उनके साथ वन विभाग के कर्मचारी भी मौजूद थे। कर्मचारियों द्वारा जून के महीने और 11 सितंबर को यात्रा के दौरान ली गई तस्वीरों में रूपकुंड झील के आकार में स्पष्ट अंतर दिखाई दे रहा था। झील के चारों ओर भूस्खलन का मलबा और गाद जमा था जिससे झील का क्षेत्रफल कम हो गया।
बद्रीनाथ वन प्रभाग के डीएफओ सर्वेश कुमार दुबे इसकी पुष्टि करते हैं। वह डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “4,763 मीटर ऊंचाई पर स्थित रूपकुंड झील के आसपास बारिश के मौसम में आमतौर पर हलकी फुहारों के साथ बर्फ गिरा करती है लेकिन इस बार यहां बारिश ज्यादा हुई है। यह पूरा इलाका प्राकृतिक तौर पर बहुत संवेदनशील है। बारिश के साथ भूस्खलन भी हुआ, जिसका मलबा झील के आसपास इकट्ठा हुआ है।”
डीएफओ कहते हैं कि वैसे तो हर साल ही बारिश के साथ मलबा और गाद आता है लेकिन इस साल ये कुछ ज्यादा ही हुआ है। वन विभाग के कर्मचारियों ने भी इसे नोटिस किया।
रूपकुंड मां नंदा राजजात यात्रा और लोकजात यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह सदियों से पड़ी अस्थियों और नरकंकालों के लिए मशहूर है। एक खड़ी चट्टान की ढलान पर कटोरेनुमा छोटी सी इस झील में ज्यादातर समय बर्फ जमी रहती है। माॅनसून के बाद सितंबर के आसपास यहां बर्फ पिघलने पर हड्डियां दिखाई देती हैं। अब तक के अध्ययन में ये पाया गया है कि ये कंकाल 300-700 लोगों के एक बड़े समूह के हैं। जो लगभग 1,200 साल पहले शायद एक बर्फीले तूफान में झील के पास मारे गए थे।
वाडिया भू विज्ञान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक और ग्लेशियोलॉजिस्ट मनीष मेहता डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “रूपकुंड झील कभी पुरानी कटोरेनुमा झील रही होगी। वहां सर्क ग्लेशियर (कटोरेनुमा हिमनद) रहा होगा। संभव है कि झील के आसपास हिमस्खलन, पत्थर गिरने और भूस्खलन जैसी गतिविधियां होने की वजह से झील का आकार सिकुड़ गया हो। इसके साथ ही बर्फबारी कम होने से झील में पानी भी कम हो गया हो।”
डॉ मेहता अनुमान जताते हैं कि राज्य में किसी हिमनद झील के सिकुड़ने की ये पहली घटना हो सकती है और इसके अध्ययन की जरूरत है। प्रभागीय वन अधिकारी सर्वेश कुमार दुबे भी रूपकुंड के अध्ययन की बात कहते हैं।
ग्लेशियर लेक यानी हिमनदीय झीलों की उत्पत्ति के स्थान के आधार पर मोटे तौर पर पांच श्रेणियां हैं। हिमनदों के बिलकुल सामने बनी प्रो-हिमनद झीलें, हिमनदों की उपरी सतह पर बनी सुप्रा-हिमनद झीलें, हिमनद के नजदीक या उनके मलबे पर बनी पेरी-हिमनद झीलें, पहाड़ों के बीच कटोरे के आकार में बनी सर्क-हिमनद झीलें। इसके अलावा ऐसी झीलें भी हैं जो इन श्रेणियों में नहीं आतीं।
जलवायु परिवर्तन और मौसमी बदलावों के चलते एक तरफ रूपकुंड झील सिकुड़ने की स्थितियां बन रही हैं वहीं ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ने से ऐसी हिमनद झीलें बढ़ रही हैं जो भविष्य के लिए खतरा साबित हो सकती हैं।
पिछले वर्ष 2023 में सिक्किम में ल्होनक झील का तटबंध टूटने से आई आपदा इसका एक उदाहरण है। वर्ष 2021 में चमोली में हिमस्खलन और हिमनद झील टूटने से बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ। 2013 की केदारनाथ आपदा भी चौड़ाबाड़ी झील टूटने से भयावह हुई थी।
उत्तराखंड में करीब 1,400 छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। वर्ष 2015 के अध्ययन के मुताबिक, राज्य में 500 वर्ग मीटर आकार से बड़ी करीब 1,353 झीलें हैं। इनमें सबसे ज्यादा 713 झीलें चमोली में हैं। उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन विभाग इनमें से 13 हाई रिस्क जोन में रखी गई झीलों की मॉनिटरिंग कर रहा है, जिनके टूटने (ग्लोफ) का खतरा है।
इन 13 में से एक झील चमोली जिले में धौली गंगा बेसिन में रायकाना ग्लेशियर की प्रोग्लेशियल झील वसुंधरा ताल है। 60 के दशक में रायकाना हिमनद के आगे, भीमताल झील के आकार से करीब 15 प्रतिशत छोटी, हिमनद झील (0.14 वर्ग किमी) थी। तापमान बढ़ने के साथ हिमनद पीछे खिसकने की रफ्तार बढ़ी। 90 के दशक में रायकाना ग्लेशियर के झील का आकार बढ़कर भीमताल झील के आकार से करीब 15 प्रतिशत अधिक हो गया।
अगले दो दशकों में ग्लेशियर के पीछे हटने की रफ्तार 15 से बढ़कर 30 मीटर प्रति वर्ष हो गई। रायकाना ग्लेशियर की झील का आकार वर्ष 2021 में करीब 4 गुना ज्यादा (0.59 वर्ग किमी) हो गया। यही वसुंधरा ताल अब आपदा के लिहाज से संवेदनशील हो गया है।
ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ मनीष मेहता बताते हैं कि वाडिया संस्थान वसुंधरा ताल समेत 13 झीलों का अध्ययन कर रहा है। जबकि आपदा प्रबंधन विभाग इनकी मॉनिटरिंग कर रहा है।
ये ग्लेशियर बदलते मौसम, बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट प्रतीक हैं। वर्ष 2024 माॅनसून में अकेले उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में इसके कई स्पष्ट संकेत मिले। डाउन टू अर्थ ने इस वर्ष 31 जुलाई में केदारनाथ में एक बार फिर भारी बारिश से हुए नुकसान, अगस्त में वरुणावत पर्वत से 20 वर्ष बाद फिर हुए भूस्खलन और ओम पर्वत से 'ऊं' की आकृति से पहली बार हटी बर्फ के वैज्ञानिक पहलुओं पर रिपोर्ट की। अब रूपकुंड झील के सिकुड़ने की तस्वीरें इस स्थिति की गंभीरता और इस पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत दर्शाती हैं।