बहुत दूर उत्तरी ध्रुव के पास, ग्रीनलैंड नाम की बर्फ से ढकी एक विशाल धरती है। यहां बर्फ इतनी मोटी और फैली हुई है कि इसे देखकर लगता है मानो पूरी धरती पर सफेद चादर बिछी हो। लेकिन अब यह चादर धीरे-धीरे पिघल रही है।
ग्रीनलैंड की यह बर्फ दुनिया की सबसे बड़ी मीठे पानी की भंडारों में से एक है। हर साल यहां की बर्फ लगभग 293 अरब टन पिघलकर समुद्र में मिल जाती है। यह इतना पानी है कि यदि इसे टैंकरों में भरना हो तो अनगिनत टैंकर लगेंगे। गर्मियों के दिनों में यह पिघलना और तेज हो जाता है। खासकर जेकबशावन ग्लेशियर से तो हर सेकंड तीन लाख गैलन पानी समुद्र में गिरता है।
अब सवाल उठता है कि जब इतनी बड़ी मात्रा में बर्फ पिघलकर समुद्र में जाती है, तो उसका असर क्या होता है? क्या यह केवल समुद्र का स्तर बढ़ाती है या फिर और भी कुछ होता है?
कम्युनिकेशन अर्थ नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने देखा कि यह पिघला हुआ पानी बिल्कुल अलग तरह से व्यवहार करता है। समुद्र का पानी खारा होता है, जबकि ग्लेशियर से आने वाला पानी मीठा या ताजा होता है। मीठा पानी हल्का होता है और जब यह खारे पानी में गिरता है तो ऊपर की ओर उठने लगता है।
लेकिन यही ऊपर उठने की प्रक्रिया एक जादू कर जाती है। जैसे ही यह पानी उठता है, यह समुद्र की गहराई में छिपे पोषक तत्वों को भी ऊपर खींच लाता है। इन पोषक तत्वों में आयरन और नाइट्रेट जैसे तत्व होते हैं, जो पौधों और जीवों के लिए खाद का काम करते हैं।
🌱 फाइटोप्लैंकटन का जीवन
समुद्र की सतह पर रहते हैं बेहद छोटे-छोटे जीव जिन्हें हम फाइटोप्लैंकटन कहते हैं। ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें नंगी आंखों से देखना लगभग नामुमकिन है, लेकिन इनका महत्व बहुत बड़ा है।
ये फाइटोप्लैंकटन समुद्र की पूरी भोजन श्रृंखला की नींव हैं। इन्हें छोटे जीव जैसे क्रिल खाते हैं, फिर मछलियां क्रिल खाती हैं और मछलियों को बड़ी मछलियां और व्हेल जैसे जीव खाते हैं। यानी, यदि फाइटोप्लैंकटन न हों तो समुद्र की पूरी खाने की श्रृंखला टूट जाएगी।
और सबसे खास बात यह है कि ये छोटे जीव कार्बन डाइऑक्साइड भी सोखते हैं। यानी ये वातावरण से गैस लेकर समुद्र के पानी को साफ रखने में मदद करते हैं।
🛰️ क्या कहती है वैज्ञानिकों की खोज?
वैज्ञानिक कई सालों से यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर यह पिघलता पानी समुद्र में कैसे असर डालता है। लेकिन ग्रीनलैंड जैसे इलाके में शोध करना आसान नहीं है। वहां की ठंडी हवाएं, बर्फ से ढकी जमीन और विशालकाय हिमखंड रास्ता रोक देते हैं।
इसीलिए वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर का सहारा लिया। नासा और एमआईटी के वैज्ञानिकों ने एक्को-डार्विन नाम का एक सुपरकंप्यूटर मॉडल बनाया। इसमें पिछले 30 सालों के समुद्र से जुड़े आंकड़े भरे गए, जैसे पानी का तापमान, खारापन, गहराई पर दबाव आदि।
जब शोधकर्ताओं ने ग्रीनलैंड के इस ग्लेशियर का मॉडल बनाया तो एक अनोखा नतीजा सामने आया। पता चला कि पिघले पानी से ऊपर लाए गए पोषक तत्वों की वजह से फाइटोप्लैंकटन की संख्या गर्मियों में 15 से 40 फीसदी तक बढ़ सकती है।
🌍 समुद्र और भविष्य
यह खोज सुनकर कुछ लोग खुश हुए कि समुद्र में जीवन बढ़ रहा है। लेकिन वैज्ञानिकों ने चेतावनी भी दी। ग्लेशियर का पिघलना केवल अच्छा असर नहीं डालता। एक तरफ तो यह फाइटोप्लैंकटन की वृद्धि करता है। दूसरी तरफ, यह समुद्र के पानी के तापमान और खारेपन को बदल देता है। साथ ही, समुद्र के पानी की कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता कम हो रही है। लेकिन संतुलन की बात यह है कि फाइटोप्लैंकटन अधिक कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं, जिससे नुकसान की भरपाई हो जाती है।
🐟 समुद्री जीवन की उम्मीद
वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि फाइटोप्लैंकटन बढ़ते हैं तो मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए भोजन की उपलब्धता भी बढ़ेगी। इसका फायदा ग्रीनलैंड और आसपास के समुद्री जीवन को मिल सकता है। लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि लंबे समय में इसका असर कैसा होगा।
ग्रीनलैंड के चारों ओर 250 से अधिक ग्लेशियर हैं। हर एक ग्लेशियर पिघलकर अपने-अपने क्षेत्र के समुद्र को प्रभावित कर रहा है। वैज्ञानिकों को अभी पूरे ग्रीनलैंड और अन्य ध्रुवीय क्षेत्रों पर इसके असर का अध्ययन करना होगा।
इस अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि प्रकृति कितनी जटिल और अनोखी है। एक तरफ हम सोचते हैं कि बर्फ का पिघलना केवल बुरा है, क्योंकि इससे समुद्र का स्तर बढ़ता है और तटीय शहर डूबने का खतरा झेलते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यही बर्फ समुद्र के जीवन के लिए नए अवसर भी लेकर आती है।
छोटे-छोटे फाइटोप्लैंकटन हमें याद दिलाते हैं कि कभी-कभी सबसे छोटे जीव ही सबसे बड़ा बदलाव लाते हैं। ग्रीनलैंड की पिघलती बर्फ हमें यह सिखाती है कि हर बदलाव के साथ अच्छाई और चुनौतियां दोनों आती हैं। असली सवाल यह है कि क्या हम इंसान इस संतुलन को समझकर धरती को सुरक्षित रख पाएंगे या नहीं।