जलवायु

2032 तक कोयला बिजली संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन में 32 फीसदी तक कटौती संभव: सीएसई रिपोर्ट

रिपोर्ट के मुताबिक 2031-32 तक ताप विद्युत संयंत्रों से होने वाला उत्सर्जन बढ़कर 183.8 करोड़ टन तक पहुंच सकता है। कुशल तकनीक और बायोमास के उपयोग से इसे घटाकर 90 करोड़ टन तक लाया जा सकता है

Lalit Maurya

भारत में बिजली की मांग तेजी से बढ़ रही है और इस मांग को पूरा करने में कोयले की बड़ी भूमिका होगी। अनुमान है कि जल्द ही देश में कोयला आधारित बिजली उत्पादन क्षमता जल्द ही 280 गीगावॉट के पार पहुंच जाएगी। ऐसे में क्या पर्यावरण को बचाने के लिए कोयले से पूरी तरह मुंह मोड़ लेना व्यवहारिक है? इसका जवाब है नहीं।  

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने अपनी रिपोर्ट "डिकार्बनाइजिंग द कोल-बेस्ड थर्मल पावर सेक्टर इन इंडिया" में कहा है कि कोयले का उपयोग पूरी तरह बंद करने की जगह इससे होने वाले प्रदूषण और उत्सर्जन को लक्षित तरीके से कम करने के प्रयास करने चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक इसके लिए कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट्स की कार्यक्षमता में सुधार के साथ बायोमास का समावेश किया जाए, तो यह उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी लाने की दिशा में एक कारगर कदम साबित हो सकता है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है, “भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के 39 फीसदी के लिए बिजली उत्पादन जिम्मेवार है, इसमें भी कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट्स की बड़ी भूमिका है।“ उनका आगे कहना है कि "भारत जैसे देश में कोयले को पूरी तरह बंद करना संभव नहीं है, लेकिन इसे डिकार्बोनाइज यानी कार्बन उत्सर्जन मुक्त जरूर बनाया जा सकता है।”

अक्षय ऊर्जा उत्पादन बढ़ा, पर अब भी महत्वपूर्ण है कोयला

उनके मुताबिक भारत ने मार्च 2025 तक अपनी कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का करीब 46.3 फीसदी हिस्सा गैर-जीवाश्म स्रोतों (जैसे सौर और पवन ऊर्जा) से हासिल कर लिया है, लेकिन इन स्रोतों से बिजली उत्पादन और आपूर्ति अभी भी अनियमित है। इसके साथ ही इनकी हिस्सेदारी अभी भी महज 12 फीसदी के आसपास है।

ऐसे में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए मजबूत और रणनीतिक उपायों की जरूरत है।

रिपोर्ट के मुताबिक अगर मौजूदा रुझान जारी रहते हैं, तो कोयला आधारित ताप विद्युत क्षेत्र से होने वाला उत्सर्जन 2022-23 में 107.67 करोड़ टन से बढ़कर 2031-32 में 133.27 करोड़ टन तक पहुंच सकता है। रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि पिछले कुछ वर्षों में कोयले की हिस्सेदारी जितनी घटनी चाहिए थी, उतनी नहीं घटी है।

ऐसे में अगर कोयले की हिस्सेदारी 73 से 75 फीसदी के बीच बनी रहती है, तो 2031-32 तक यह उत्सर्जन बढ़कर 183.8 करोड़ टन तक पहुंच सकता है।

नई नहीं, पुरानी यूनिटें कर रहीं बेहतर प्रदर्शन

सीएसई ने अपने अध्ययन में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों का उनकी तकनीक और उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर मूल्यांकन किया है। इस विश्लेषण में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। अध्ययन के मुताबिक 25 साल से ज्यादा पुराने आठ संयंत्र देश के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले संयंत्रों में शामिल हैं।

वहीं 20 साल से कम उम्र के 49 संयंत्र सबसे कमजोर प्रदर्शन करने वालों में शामिल थे। इतना ही नहीं 25 साल से कम उम्र के 95 सब-क्रिटिकल प्लांट, देश के औसत स्तर से कम दक्षता पर काम कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि केवल संयंत्र की उम्र ही नहीं, बल्कि उसकी देखभाल और तकनीकी दक्षता प्रदर्शन में बड़ी भूमिका निभाती है।

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि सुपर और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों का पर्याप्त उपयोग नहीं हो रहा है। 2022-23 में 72 सुपर क्रिटिकल संयंत्रों में से 14 और 20 अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों में से आठ, 50 प्रतिशत से भी कम क्षमता पर चल रहे हैं। यह इनके पूरी क्षमता से काम न करने को दर्शाता है।

तीनों तकनीकों के औसत प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) की तुलना करें तो सबसे ज्यादा 68 फीसदी पीएलएफ सब-क्रिटिकल संयंत्रों का है। इसके मुकाबले सुपरक्रिटिकल संयंत्रों का प्लांट लोड फैक्टर 62 फीसदी, जबकि अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल संयंत्रों का केवल 54 फीसदी है। यह तब है जब इन संयंत्रों की दक्षता सबसे अधिक मानी जाती है। यानी, जो संयंत्र तकनीकी रूप से सबसे कुशल हैं, उनका उपयोग सबसे कम हो रहा है।

डिकार्बोनाइजेशन के लिए उठाए जा सकते हैं यह कदम

रिपोर्ट में 2031-32 तक कोयला संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन को करने के तीन प्रमुख तकनीकी उपाय सुझाए गए हैं। इसके तहत मौजूदा संयंत्रों की कार्यक्षमता को तय मानकों तक सुधारना। दूसरा सुपर और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल तकनीक से बिजली उत्पादन बढ़ाना। साथ ही कोयले के साथ बायोमास को मिलाकर जलाने की प्रक्रिया को तेज करना और इसकी हिस्सेदारी 20 फीसदी तक ले जाना।

सीएसई में इंडस्ट्रियल पॉल्यूशन प्रोग्राम के प्रबंधक पार्थ कुमार के मुताबिक, अगर ये सभी उपाय अपनाए जाएं तो 2031-32 तक उत्सर्जन घटकर 90 करोड़ टन तक आ सकता है, जो मौजूदा रुझान की तुलना में 32.4 फीसदी की कमी होगी।

उनके मुताबिक अगर ये उपाय अपनाए जाएं, तो जितना प्रदूषण घटेगा, वह भारत में स्टील और सीमेंट फैक्ट्रियों से होने वाले उत्सर्जन से भी ज्यादा होगा।

सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में मौजूदा व्यवस्था में कुछ अहम बदलावों की भी सिफारिश की है, जैसे पावर डिस्पैच नीति में उत्सर्जन मानकों को शामिल किया जाना। बिजली खरीद समझौतों की रूपरेखा पर फिर से विचार करना। साथ ही कोयला उपकर को डिकार्बनाइजेशन यानी प्रदूषण घटाने में इस्तेमाल करना। इसके साथ ही भारत में बिजली की मांग का बेहतर अनुमान लगाने के लिए प्रणाली को बेहतर बनाना शामिल है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में इंडस्ट्रियल पॉल्यूशन कार्यक्रम के निदेशक निवीत कुमार यादव ने सिफारिश की है कि जो नए बिजली संयंत्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं, उन्हें सुधार और आधुनिकीकरण की नीति में शामिल किया जाना चाहिए।

उनके मुताबिक कई संयंत्र घरेलू कोयले और पुरानी (सब-क्रिटिकल) तकनीक का इस्तेमाल करने के बावजूद देश के सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले संयंत्रों में शामिल हैं। इससे स्पष्ट है कि सही तकनीक और प्रबंधन से बदलाव मुमकिन है।