भारत के जलवायु संवेदनशील जिलों में बच्चों के कुपोषित होने का खतरा अन्य जिलों की तुलना में 25 फीसदी अधिक है।
इन जिलों में महिलाओं के घर पर प्रसव और बच्चों के ठिगने होने की आशंका भी अधिक है। मतलब कि जलवायु संकट का सीधा असर मां और शिशु के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
अध्ययन से पता चला है कि देश की करीब 80 फीसदी आबादी ऐसे इलाकों में रह रही है जहां बाढ़, सूखा, चक्रवात और भीषण गर्मी जैसी चरम मौसमी आपदाओं का खतरा सबसे अधिक है। इसका सीधा असर उनकी सेहत, पोषण और सुरक्षित प्रसव पर साफ तौर पर दिख रहा है।
इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के मुताबिक उच्च जोखिम वाले जिलों में महिलाओं के घर पर प्रसव होने की आशंका 38 फीसदी अधिक है।
इसके अलावा बच्चों के ठिगने होने की आशंका 14 फीसदी अधिक पाई गई। इसी तरह जिन जिलों में जलवायु जोखिम अधिक है वहां बच्चों में ऊंचाई के अनुपात में कम वजन होने की आशंका (वेस्टिंग) छह फीसदी अधिक दर्ज की गई।
भारत में जलवायु परिवर्तन से सिर्फ मौसम ही नहीं बिगड़ रहा, बल्कि यह बदलाव लोगों की सेहत पर भी सीधा हमला कर रहा है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि देश की करीब 80 फीसदी आबादी ऐसे इलाकों में रह रही है जहां बाढ़, सूखा, चक्रवात और भीषण गर्मी जैसी चरम मौसमी आपदाओं का खतरा सबसे अधिक है। इसका सीधा असर उनकी सेहत, पोषण और सुरक्षित प्रसव पर साफ तौर पर दिखाई दे रहा है।
इस कड़ी में दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ के शोधकर्ताओं ने अपने एक नए अध्ययन में भारत में जलवायु संकट और स्वास्थ्य के बीच गहरे संबंध को उजागर किया है। अध्ययन से पता चला है जलवायु जोखिम वाले जिलों के बच्चों के कुपोषित होने की आशंका 25 फीसदी अधिक है, यानी इन जिलों में बच्चों का वजन उम्र के अनुपात में सामान्य से कम होने का खतरा कहीं ज्यादा है।
जलवायु जोखिम जितना ज्यादा, स्वास्थ्य उतना खराब
शोधकर्ताओं के मुताबिक जलवायु जोखिम वाले जिलों का प्रदर्शन कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य मानकों पर लगातार खराब है। उदाहरण के तौर पर, ऐसे उच्च जोखिम वाले जिलों में महिलाओं के घर पर प्रसव होने की आशंका 38 फीसदी अधिक पाई गई।
इसके अलावा बच्चों के ठिगने होने की आशंका 14 फीसदी अधिक पाई गई। इसी तरह जिन जिलों में जलवायु जोखिम अधिक है वहां बच्चों में ऊंचाई के अनुपात में कम वजन होने की आशंका (वेस्टिंग) छह फीसदी अधिक दर्ज की गई। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल प्लोस वन में प्रकाशित हुए हैं।
यह आंकड़े साफ तौर पर दर्शाते हैं कि जलवायु संकट का सीधा असर मां और शिशु के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है और सबसे अधिक नुकसान उन जिलों को हो रहा है जो पहले ही जोखिम में हैं।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) और सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राइलैंड एग्रीकल्चर के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इस अध्ययन में देश के 575 ग्रामीण जिलों के आंकड़ों को खंगाला गया है। इनमें 154,547 बच्चों और 447,348 महिलाओं से जुड़े आंकड़े शामिल थे। इस शोध के लिए सांख्यिकीय तकनीकों और मल्टीवेरिएट लॉजिस्टिक रिग्रेशन जैसी उन्नत विधियों का उपयोग किया गया है।
अध्ययन के मुताबिक जलवायु जोखिम और स्वास्थ्य परिणामों के बीच गहरा और नकारात्मक संबंध पाया गया है। स्पष्ट रूप से, जिन जिलों में जलवायु जोखिम अधिक है, वे स्वास्थ्य मानकों पर लगातार खराब प्रदर्शन करते हैं। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन सीधे उन समस्याओं को बढ़ा रहा है, जिन्हें अब तक केवल सामाजिक या आर्थिक कारणों से जोड़ा जाता था।
यह साफ संकेत देता है कि जलवायु परिवर्तन सीधे स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है, और केवल सामाजिक-आर्थिक कारकों को देखते हुए स्वास्थ्य में सुधार संभव नहीं है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि कई जलवायु-संवेदनशील जिलों में बुनियादी ढांचे की समस्याओं के कारण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच भी बाधित होती है। बाढ़, लू और अन्य चरम मौसमी घटनाओं से इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।
निष्कर्ष स्पष्ट है कि जलवायु संवेदनशीलता को नजरअंदाज करना स्वास्थ्य असमानताओं को और बढ़ा सकता है। इसलिए, स्वास्थ्य योजनाओं में जलवायु अनुकूल रणनीतियों को तुरंत शामिल करना बेहद जरूरी है।
तत्काल कार्रवाई की है जरूरत
विशेषज्ञों का कहना है कि इससे निपटने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र में जलवायु अनुकूलन को तेजी से अपनाना होगा। साथ ही जोखिम वाले जिलों के लिए विशेष रणनीतियां बनानी होंगी और स्वास्थ्य सेवाओं को इतना मजबूत करना होगा कि वे बढ़ते जलवायु खतरों का भी सामना कर सकें।
दूसरी ओर शोधकर्ताओं ने चेताया है कि अगर स्वास्थ्य नीतियों में जलवायु जोखिम को शामिल न किया गया तो यह राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य लक्ष्यों को हासिल करने में बाधा बन सकता है। साथ ही बढ़ते जलवायु खतरे सतत विकास की दिशा में देश की वर्षों की मेहनत से हुई प्रगति को पीछे धकेल सकते हैं।