दिल्ली में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है, जिस पर काबू करने के लिए सरकार ने पुराने वाहनों को तत्काल प्रभाव से सड़क से हटाने का फैसला ले तो लिया पर जनता के रोष को देखते हुए, सरकार ने 'नियमानुसार अपनी उम्र पार कर चुकी कारों को ईंधन देने से मना करने वाले विवादास्पद आदेश को 'रोक' दिया है। वही हवा में प्रदुषण पर निगरानी करने वाली समिति ने इसे समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में 1 नवम्बर तक के लिए टाल दिया है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के 2015 फैसले के तहत पेट्रोल वाहनों के लिए 15 साल और डीजल वाहनों को 10 साल की उम्र के बाद स्क्रैप करना अनिवार्य है। इसका उद्देश्य पुराने वाहनों को जो शायद सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण फैलाते हैं, सड़कों से हटाना और हवा की गुणवत्ता में सुधार करना है।
कोर्ट और एनजीटी के ठंडे बस्ते में डाले जा चुके इस फैसले को अचानक से लागू करने की सरकारी मंशा शुरू से ही सवालो के घेरे में रही।
क्या ‘पुराने वाहन’ वाकई में ही सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं? क्या यह नीति वास्तव में पर्यावरण के लिए प्रभावी रूप में फायदेमंद भी थी? क्या यह नीति पृथ्वी के सीमित संसाधनों और सतत विकास के दीर्घकालीन लक्ष्य को ध्यान में रख पायेगी?
ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यातायात से प्रदूषण कम करने के लिए क्या गाड़ियों की ‘उम्र’ सबसे कारगर तरीका है?, या कहीं जल्दबाजी में वाहन से असल में निकलने वाले प्रदूषण या वाहन द्वारा तय कि गयी दूरी जैसे प्रभावी मानदंड की अनदेखी हो गयी ? या फिर यह वाहन निर्माता कंपनियों के हितों को बढ़ावा देने का एक तरीका तो नहीं?
जनाक्रोश को भापते हुए सरकार ने बड़े सधे और साफगोई से अपनी बात जनता के सामने रखते हुए वाहन प्रदुषण से जुड़े 'तकनीकी चुनौतियों और जटिल प्रणालियों' पर खासा जोर दिया है।
दिल्ली सरकार की सक्रीय वाहन स्क्रैप नीति, मोटर वाहन अधिनियम 1988 (धारा 59) और राष्ट्रीय हरित अधिकरण, 2015 के निर्देशों पर आधारित है। इसके पीछे तर्क यह है कि पुराने वाहन, जो शुरुवाती उत्सर्जन मानकों (जैसे प्री-भारत स्टेज या प्रारंभिक बीएस मॉडल; बीएस-I या बीएस-II) के हिसाब से बने हैं, नए वाहनों (बीएस-VI मानक) की तुलना में कहीं अधिक प्रदूषण फैलाते हैं।
प्रदूषण फैला रहे वाहनों पर नियंत्रण के लिए वाहन कि केवल आयु ही नहीं, उससे निकलने वाला प्रदूषण का स्तर और वाहन द्वारा तय की गई कुल समग्रता में सबसे जरुरी मानदंड है। प्रदूषण-आधारित मानदंड वाहन के वास्तविक उत्सर्जन पर केंद्रित है, जिससे आयु की परवाह किए बिना सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को लक्षित किया जा सकता है।
इस प्रकार वाहन कि आयु और प्रदूषण मानदंडों के साथ-साथ वाहन द्वारा तय कि गयी कुल दूरी प्रदूषित वाहनों को सड़क से हटाने में एक संपूर्ण दृष्टिकोण दे सकता है। और इस समेकित मानदंड के आधार पर असल में प्रदूषण फ़ैलाने वाली गाड़ियां ही स्क्रैप के लिए चिन्हित की जा सकेगी, तभी जा कर यातायात के हिस्से के प्रदूषण पर प्रभावी नियंत्रण हो सकेगा।
पर मौजूदा वाहन की उम्र आधारित नीति की एक बारीक डोर वाहन निर्माता कंपनियों के हितों को बढ़ावा देने से भी जुडती है क्या? आर्थिक दृष्टिकोण से जब पुराने वाहनों को सड़क से हटाया जाता है, तो नए वाहन के लिए एक बाजार खुलता हैं, जिससे ऑटोमोबाइल उद्योग को सीधा लाभ होता है।
अमेरिका में 2008-2009 के आर्थिक संकट से बचाव के लिए "कैश फॉर क्लंकर्स" कार्यक्रम बहुत प्रभावी साबित हुआ था, जिसके तहत पुराने वाहनों को स्क्रैप कर नए वाहन खरीदने के लिए सब्सिडी दी गई, जिससे कार बिक्री में जबरदस्त तेजी दर्ज की गयी।
भारत में भी, भारतीय ऑटोमोबाइल निर्माता संघ ने ऐसी नीतियों का समर्थन करती आई है जो ऑटोमोबाइल के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देती हो, और ये अर्थव्यवस्था के लिए परम्परागत रूप से जरुरी भी है।
पर सवाल यह है कि क्या वाहन के आयु के आधार पर स्क्रैप करने की मौजूदा नीति वास्तव में पर्यावरण की चिंता से प्रेरित है, क्या यह मानदंड वायु प्रदूषण से बचाव का सबसे प्रभावी रास्ता है या इसके पीछे ऑटोमोबाइल लॉबी की आर्थिकी ज्यादा प्रभावी है?
मौजूदा नीति के तहत प्रदूषण मानकों को पूरा करते वाहन भी इस नीति के तहत स्क्रैप कर दिए जायेंगे, जो ना सिर्फ प्रदूषण नियंत्रण के लक्ष्य से भटकाव है बल्कि दीर्घकाल में मानवीय दोहन से पीस रही धरती पर सम्पदा के मूर्खतापूर्ण दोहन का एक अतिरिक्त बोझ भी है।
पिछले एक दशक से राष्ट्रीय राजधानी में विकराल होती वायु प्रदूषण और कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में शायद सरकार इस नीति में ही चमत्कार देख रही थी। अब पुराने वाहन हटेंगे तो उसके बदले प्रभावित लोग नए वाहन का रुख करेंगे और सरकार भी यही चाह रही हैं, नहीं तो इस नीति को प्रभावी रूप से लागू करने से पहले सार्वजानिक परिवहन को चाकचौबंद करती नजर आती।
नए वाहन बनाना एक लम्बी, जटिल और अत्यधिक प्रदूषण और पर्यावरण फुटप्रिंट वाली प्रक्रिया है जिसमें स्टील, एल्युमीनियम, प्लास्टिक और दुर्लभ धातुओं जैसे संसाधनों, पानी, उर्जा, जहरीले रसायन की भारी खपत और बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन भी होता है।
बाकी संसाधनों की खपत छोड़ भी दे तो साधारणतया एक औसत कार के निर्माण में करीब 10 टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होता है। अगर एक पुराना वाहन, प्रदूषण मानदंड को पूरा कर रहा, उसे स्क्रैप कर उसकी जगह नया वाहन लिया जाए, तो कुल मिलाकर पर्यावरण को नुकसान ही होगा। इससे एक अदद कार का "लाइफसाइकिल उत्सर्जन" नजरअंदाज ही होगा और दिल्ली की नीति इस पहलू को भी नजरअंदाज ही कर रही थी।
पृथ्वी पर मानव गतिविधियों का दायरा इतना बढ़ चला है कि अब यहां के संसाधन हमारी आवश्यकता से कम पड़ रहे है, मौजूदा दौर में हम 1.8 पृथ्वी के संसाधन जितना दोहन कर रहे है।
बड़े पैमाने पर खनन, प्लास्टिक की खपत और विकराल होती ऊर्जा की मांग पर्यावरण तंत्र को बेहाल कर रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार ऑटोमोबाइल उद्योग संसाधन निष्कर्षण और दोहन का एक प्रमुख कारण है। ऐसे में प्रदूषण मानदंड को पूरा करते पुराने वाहनों को भी स्क्रैप करना हर लिहाज से घाटे का प्रयोजन है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में, हमें ऐसी नीतियों की जरूरत है जो न केवल तात्कालिक प्रदूषण को कम करें, बल्कि दीर्घकालिक रूप से सतत विकास के प्रारूप के अनुरूप हो। सर्कुलर इकोनॉमी के इस दौर में जब उत्पादों का जीवनकाल बढ़ाने के लिए मरम्मत और रेट्रोफिटिंग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए उस समय यह नीति संसाधनों की बर्बादी को बढ़ावा देती और पृथ्वी पर अनावश्यक बोझ डालती प्रतीत होती है।
जरुरत है कि इस नीति को पर्याप्त संशोधन के साथ लागू हो जिसमे वाकई प्रदूषित करने वाले वाहन स्क्रैप हो और स्क्रैप किए गए वाहनों की जगह कम प्रदूषण वाले वाहनों का विकल्प हो, जिससे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो।
साथ-साथ पुराने वाहनों को कम प्रदूषण वाले इंजन या तकनीक से अपग्रेड करने की व्यवस्था भी कारगर हो सकता है। इस लिहाज से तय की गयी दूरी और प्रदूषण आधारित मानदंड मौजूदा नीति का एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
हालांकि, इसके लिए मजबूत उत्सर्जन परीक्षण व्यवस्था की जरूरत है। भारत में प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र प्रणाली खानापूर्ति बन के रह गयी है जो अभी इतनी सक्षम नहीं है कि सड़क पर उत्सर्जन को सटीक माप सके। लेकिन अगर सरकार परीक्षण सुविधाओं में निवेश करे, तो प्रदूषण-आधारित मानदंड अधिक न्यायसंगत और प्रभावी साबित हो सकता है।
भले यह ‘आयु आधारित’ कार स्क्रैप नीति आर्थिक रूप से लाभकारी हो पर दीर्घकालिक रूप से यह घाटे का सौदा है और पश्चिम की कार संस्कृति की नकल भर है, वो अलग बात है कि अमेरिका को छोड़ अनेक पश्चिमी देश कार के चुंगल से निकल रहे है और हम है कि शहरों में वायु प्रदूषण के बावजूद भी कार के दलदल में धंसते ही जा रहे हैं।
दिल्ली में वायु प्रदूषण संकट के दशक बीत जाने के बाद भी हम उसी अनुतरित सवाल से दो चार है, क्या हम प्रदूषण और प्रकृति संरक्षण के बीच संतुलन बना सकते हैं? क्या हम एक अदद ऐसी नीति बना सकते हैं जो वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ करे? पर दिल्ली सरकार का मौजूदा नीति पर रोक और समग्रता से ‘पुरानी’ के बजाय ‘प्रदूषण फ़ैलाने’ वाले वाहनों के लिए नीति की ओर इशारा एक स्वागत योग्य कदम है।