दिल्ली में वायु प्रदूषण की शुरुआत कैसे हुई, इस बाबत अब तक आपने पढ़ा, 1996 में सीएसई की 'स्लो मर्डर' रिपोर्ट ने खोली थी दिल्ली के प्रदूषण की पोल और टाटा मोटर्स और सीएसई के बीच डीजल विवाद, सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से बदल गई दिल्ली की 'हवा'! लेकिन ये सारी प्रयास नाकाफी साबित हुए।
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दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग बढ़ रहा है।
वित्तीय वर्ष 2023-24 में 11.78% नए वाहन इलेक्ट्रिक थे, जो 2011-12 की तुलना में बड़ी छलांग है।
हालांकि, दिल्ली 25% विद्युतीकरण का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाई, लेकिन यह 10% का आंकड़ा पार करने वाले पहले राज्यों में से एक है।
वित्तीय वर्ष 2023-24 में दिल्ली में जितने नए वाहन रजिस्टर हुए, उनमें से 11.78 प्रतिशत इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) थे। जबकि 2011-12 में इलेक्ट्रिक वाहनों का बाजार न के बराबर था। यह 2011-12 की तुलना में बहुत बड़ी छलांग है, जब केवल 723 ईवी रजिस्टर हुए थे। हालांकि, राज्य वित्तीय वर्ष 2023-24 तक 25 प्रतिशत विद्युतीकरण (वाहनों को इलेक्ट्रिक बनाने) का अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया, लेकिन फिर भी यह 10 प्रतिशत का आंकड़ा पार करने वाले भारत के पहले राज्यों में से एक था और इसकी इलेक्ट्रिक वाहनों में इसकी हिस्सेदारी सबसे ज्यादा थी।
दिल्ली ने 2020 में अपनी ईवी नीति लागू की। इसमें बड़े लक्ष्य थे और इसे खरीदने वालों को सब्सिडी (छूट) और टैक्स में छूट दी गई थी, चाहे वे निजी वाहन हों या व्यावसायिक। इस नीति में पुराने वाहनों को ईवी से बदलने के लिए स्क्रैपेज प्रोत्साहन भी शामिल था। साथ ही, उन कंपनियों को भी मदद दी गई जो पेट्रोल/डीजल वाहनों को ईवी में बदलती हैं।
दिल्ली पहला राज्य था, जिसने अपनी नीति में बैटरी बदलने वाले स्टेशनों को भी शामिल किया। उन्हें चार्जिंग स्टेशन बनाने और बैटरी बेचने में सीधे आर्थिक मदद दी गई। दिल्ली का चार्जिंग नेटवर्क बहुत फैला हुआ है, जो “3 किमीx3 किमी” ग्रिड में विकसित क्षेत्रों के 97 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से को कवर करता है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि लोग निजी वाहनों (दोपहिया और कार) पर ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं। 1994 से यात्रा के लिए निजी परिवहनों की तरफ झुकाव बढ़ता जा रहा है। 1994 में निजी दोपहिया और कारों की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत थी, और बसों की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत थी।
2007 में निजी वाहनों की हिस्सेदारी बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई, जबकि सार्वजनिक परिवहन (बस और मेट्रो) की हिस्सेदारी घटकर 30 प्रतिशत हो गई। 2018 में, 29 प्रतिशत यात्राएं निजी साधनों से की गईं, और 24 प्रतिशत यात्राएं बस या मेट्रो से की गईं। राजधानी में कुल यात्राओं की संख्या 2008 से 94 प्रतिशत तक बढ़ गई है और पिछले 40 सालों में यह पांच गुना से ज्यादा हो गई है।
औसत प्रति व्यक्ति यात्रा दर (पीसीटीआर) में भी बदलाव आया है। हर व्यक्ति द्वारा की जाने वाली यात्राओं की औसत संख्या भी बढ़ी है, 2007 में 1.38 से बढ़कर 2018 में 1.55 हो गई, यह 12 प्रतिशत की वृद्धि है। मोटर से की जाने वाली यात्राओं (पैदल और साइकिल छोड़कर) में भी बढ़ोतरी हुई है। मोटर चालित यात्राओं के लिए पीसीटीआर 2001 में 0.87 था, जो 2018 में बढ़कर 0.905 हो गया।
दिल्ली में यात्रा की औसत लंबाई 2007 में 6 किमी से बढ़कर 2018 में 10.9 किमी हो गई है (10 साल में 81 प्रतिशत की बढ़ोतरी)। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि शहर के बाहरी इलाके विकसित हुए हैं और वहां तक सड़कों और सार्वजनिक परिवहन से पहुंचना आसान हो गया है।
निष्कर्ष के तौर पर, दिल्ली में लोग अब पहले से ज्यादा और लंबी दूरी की यात्राएं कर रहे हैं और पिछले कुछ सालों में यह बढ़ोतरी तेजी से हुई है। एनआईयूए के अनुसार दिल्ली में की जाने वाली 52 प्रतिशत यात्राएं काम से संबंधित होती हैं। 15.4 प्रतिशत यात्राएं मनोरंजक होती हैं और 14 प्रतिशत शिक्षा से संबंधित यात्राएं होती हैं।
मेट्रो की औसत यात्रा लंबाई सबसे ज्यादा 16.7 किमी है, जो लंबी दूरी के आवागमन में मेट्रो की भूमिका को दिखाती है। दोपहिया वाहन, कार और बसें 8 से 14 किमी के बीच की मध्यम दूरी की यात्रा के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। 5 किमी से अधिक की सभी यात्राएं मोटर चालित साधनों का उपयोग करके की जाती हैं।
जैसे-जैसे निजी वाहनों का चुनाव करने वालों की संख्या बढ़ती है, सड़क पर भीड़ भी बढ़ती जाती है। इसका सबसे बुरा असर बसों जैसे सार्वजनिक परिवहन पर पड़ता है। बसें पहले से ही नुकसान में हैं और उनकी सेवा अच्छी नहीं है।
ट्रैफिक में फंसने से वे और धीमी हो जाती हैं, लोगों का उनपर से भरोसा उठने लगता है और यात्रियों को बसों में सफर करना मुश्किल लगने लगता है। निजी वाहनों की पसंद का यह दुष्चक्र भीड़भाड़ को और बढ़ाता है, जिससे सार्वजनिक परिवहन का प्रदर्शन खराब होता जाता है, और वे निजी वाहनों के मुकाबले और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाता है।
सड़क पर भीड़भाड़ सिर्फ निजी वाहनों पर निर्भरता की निशानी नहीं है, बल्कि यह सक्रिय रूप से निजी परिवहन को बढ़ावा देती है। जब बसें ट्रैफिक में फंसती हैं तो यात्रा का समय बढ़ता है, बसें समय पर नहीं आतीं, और समय और पैसे दोनों के हिसाब से बसों का सफर महंगा हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि जो लोग निजी गाड़ी खरीद सकते हैं, वे बसों से दूर हो जाते हैं, जिससे निजी वाहनों की संख्या बढ़ती रहती है। और आखिर में इससे प्रदूषण में भी भारी बढ़ोतरी होती है।
ट्रैफिक जाम और गाड़ियों के बार-बार रुकने-चलने या खड़े रहने से भी शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ता है। जाम के दौरान गाड़ियों की “आईडलिंग” यानी इंजन चालू करके खड़े रहने से हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड (एनओएक्स), कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ), पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), और वीओसीएस जैसे हानिकारक प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं।
जब गाड़ी का इंजन रुका होता है या रुक-रुक कर चलता है, तो ईंधन पूरी तरह से नहीं जल पाता। इससे सामान्य गति से चलने वाली गाड़ी की तुलना में ज्यादा प्रदूषण निकलता है। वहीं, “आईडलिंग” के दौरान वाहनों से निकले प्रदूषक जमीन के करीब रहते हैं।
जिससे सतह के पास ओजोन का निर्माण बढ़ जाता है जो खासकर शहरों के घने, भीड़भाड़ वाले इलाकों में फेफड़ों को बहुत नुकसान पहुंचाती है और सांस से जुड़ी गंभीर बीमारियों की वजह बनती है। ट्रैफिक में खड़ी गाड़ियों से निकलने वाला धुआं भी माध्यमिक कार्बनिक एरोसोल (एसओएएस) बनाने में भी मदद करता है। ये कण दिल और फेफड़ों की बीमारियों से जुड़े हैं। इन एसओएएस में अक्सर अल्ट्राफाइन कण (यूएफपीएस) होते हैं।
ये इतने छोटे होते हैं कि फेफड़ों के ऊतकों में घुसकर रक्तप्रवाह में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। इसीलिए लंबे समय तक शहरों के यातायात से निकले प्रदूषकों के संपर्क में रहने से सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचता है।
जब बहुत सारी गाड़ियां ट्रैफिक में फंसी होती हैं, रुक-रुक कर चलती हैं, या खड़ी होती हैं, तो उनके धुएं से एक साथ बहुत ज्यादा प्रदूषण निकलता है। इससे खास जगहों पर “प्रदूषण के हॉटस्पॉट” बन जाते हैं। यह खासकर उन जगहों पर ज्यादा होता है, जहां हवा के निकलने की जगह कम होती है, जैसे अगर सड़क के दोनों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतें हों, तो हवा फंस जाती है और प्रदूषण एक सुरंग जैसी जगह में जमा हो जाता है।
चौराहों पर गाड़ियां अक्सर रुकती हैं, जिससे वहां भी प्रदूषण बहुत ज्यादा होता है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि जब कोई गाड़ी खड़ी होती है, लेकिन इंजन चालू रहता है, तो वह सामान्य गति (40-60 किमी प्रति घंटा) पर चलने की तुलना में कई गुना ज्यादा प्रदूषक छोड़ती है।
फरवरी 2025 में प्रकाशित सीएसई की रिपोर्ट “एनाटॉमी ऑफ दिल्लीज कंजेशन” में कई शोधों का हवाला दिया गया है। इन शोधों के अनुसार, बिना रुकावट चलती गाड़ियों की तुलना में ट्रैफिक जाम में फंसे वाहनों से 3 से 7 गुना ज्यादा प्रदूषण उत्सर्जित होता है।
जाम के दौरान वाहनों के प्रदूषण में विशेष रूप से एनओ2 (नाइट्रोजन डाइऑक्साइड), सीओ (कार्बन मोनोऑक्साइड) और सीओ2 (कार्बन डाइऑक्साइड) जैसे प्रदूषक बहुत ज्यादा बढ़ जाते हैं।
सीएसई की रिपोर्ट में 2023 के एक अन्य अध्ययन का हवाला भी दिया गया है, जिसमें दिखाया गया था कि भीड़भाड़ के कारण पीएम 2.5 में 3.5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और ओजोन में 1.1 पार्ट्स प्रति अरब की वृद्धि होती है। रिपोर्ट में दिए गए 2016 के एक और अध्ययन के अनुसार जब ट्रैफिक में देरी होती है, तो एनओ2 में 166 प्रतिशत, एचसी (हाइड्रोकार्बन) में 100 प्रतिशत, सीओ में 180 प्रतिशत और सीओ2 में 71 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है।
ट्रैफिक जाम से बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान भी होता है। अनुमान है कि 2030 तक दिल्ली को इससे लगभग 14.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होगा, जिसमें प्रदूषण और ईंधन की बर्बादी भी शामिल है। इंजन चालू करके खड़ी रहने वाली गाड़ियों से ही रोज लाखों डॉलर का ईंधन बर्बाद होता है।
सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में उन अध्ययनों का हवाला दिया है, जिसमें अनुमान लगाया गया है कि 2030 में ट्रैफिक जाम की वजह से 14,658 मिलियन अमेरिकी डॉलर (प्रदूषण + ईंधन सहित) की चपत लगेगी।
ट्रैफिक जाम में फंसी या खड़ी गाड़ियां सामान्य से कई गुना ज्यादा प्रदूषण छोड़ती हैं। वाहन नाइट्रोजन ऑक्साइड (एनओएक्स) प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत हैं। इसलिए वाहनों और एनओएक्स स्तर में प्रति घंटे आने वाले बदलावों के बीच गहरा संबंध है। दिल्ली में 10 से 16 सितंबर 2024 तक सात दिनों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया।
इसमें यह देखा गया कि जब गाड़ियां सामान्य रफ्तार (बिना ट्रैफिक के) से नहीं चल पातीं, तो एनओ2 गैस का स्तर कैसे बदलता है। आंकड़ों से पता चला कि कामकाज के दिनों में, खासकर “पीक आवर्स” में जब सड़कों पर सबसे ज्यादा भीड़ होती है, तब गाड़ियों की स्पीड कम होने पर एनओ2 का स्तर बहुत ज्यादा हो जाता है।
पीक आवर्स में गति में कमी और एनओ2 स्तरों के बीच सहसंबंध गुणांक -0.534 पाया गया। यानी जब गाड़ियों की गति घटती है, तो एनओ2 प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। उस एक सप्ताह के आंकड़ों के अनुसार, एनओ2 के स्तर में जितना भी बदलाव आया, उसमें से लगभग 28 प्रतिशत बदलाव की वजह गाड़ियों की धीमी गति थी।
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