1893 का भारत; फोटो: आईस्टॉक 
मौसम

थर्मामीटर शेड से स्टीवेन्सन स्क्रीन तक, भारत में तापमान की रिकॉर्डिंग के 150 साल

लंबे समय में मौसम को समझने के यंत्र कई बार बदले होंगे! कभी स्टेशन की जगह बदली, कभी मापने का समय। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पुराने आंकड़े सटीक थे? क्या इन बदलावों से आंकड़ों पर असर पड़ा है? क्या उनमें कोई गड़बड़ी है जिसे अब ठीक किया जा सकता है?

Lalit Maurya

धरती का तापमान साल दर साल बढ़ रहा है। ऐसे में इसे समझने और मापने के लिए वैज्ञानिक बहुत सारे ग्राफ बनाते हैं, जिनमें दिखाया जाता है कि धरती कितनी गर्म हो रही है। इनमें से कुछ ग्राफ 1900 से शुरू होते हैं, तो कुछ में 1880 या 1850 से भी तापमान में आते उतार-चढ़ाव और उसके आंकड़ों को दर्शाया गया है।

लेकिन सोचिए, इतने लंबे समय में मौसम को समझने के यंत्र कितनी बार बदले होंगे! कभी स्टेशन की जगह बदली, कभी मापने का समय। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पुराने आंकड़े सटीक थे? क्या इन बदलावों से आंकड़ों पर असर पड़ा है? क्या उनमें कोई गड़बड़ी है जिसे अब ठीक किया जा सकता है?

भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो देश के पास दुनिया के सबसे पुराने मौसम संबंधी रिकॉर्ड मौजूद हैं, और अगर हम उन्हें सही से समझें तो ये रिकॉर्ड बेहद अहम हैं। देश में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग को समझने के लिए यह आंकड़े बेहद जरूरी हैं।

हाल ही में इसके बारे में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा प्रकाशित जर्नल मौसम में एक नया अध्ययन प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन में भारत के मौसम से जुड़े आंकड़ों को मापने के तरीकों में समय के साथ आए बदलावों पर प्रकाश डाला गया है।

यह अध्ययन खासतौर पर दो बड़े बदलावों पर केंद्रित है — पहला, 1870 के दशक के अंत में जब थर्मामीटर शेड्स लगाए गए, और दूसरा, 1920 के दशक में जब ये शेड्स हटाकर स्टीवेन्सन स्क्रीन लगाए गए।

भारत में कैसे मापते थे पहले तापमान?

चक्रवाती तूफान और फिर बाढ़ की वजह से चौपट हो रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर काबू पाने के लिए 1875 में जब मौसम विभाग की स्थापना की गई, तब देश भर में 86 जगहों पर मौसम स्टेशन थे। उस समय आईएमडी की प्राथमिकता थी कि देश भर के मौसम केंद्रों पर इस्तेमाल हो रहे उपकरणों और मापने की प्रक्रियाओं को एक जैसा बनाना।

ये स्टेशन फौजी छावनियों, अस्पतालों, डाक बंगलों, कॉलेजों और यहां तक कि जेलों और मानसिक अस्पतालों में भी होते थे। वहां काम करने वाले लोग ही थर्मामीटर की माप लेते थे। इन थर्मामीटर को कभी हवादार कमरों में, कभी बरामदे में या किसी छायादार जगह पर टांग दिया जाता था।

बंगाल और मद्रास हट की पुरानी तस्वीर; फोटो: जर्नल मौसम

हालांकि इससे मिले तापमान के माप सटीक नहीं होते थे, क्योंकि धूप, दीवारों या फर्श जैसी सतहों से निकलने वाली गर्मी का असर रीडिंग पर पड़ता था, जिससे थर्मामीटर के आंकड़े गलत हो सकते थे। इसलिए आईएमडी ने तय किया कि थर्मामीटर के लिए खास तरह झोपड़ी बनानी चाहिए, इन झोपड़ियों को ‘थर्मामीटर शेड’ कहा जाता है। इन शेड के लिए एक मानक तय किए गए थे।

सिर्फ तापमान मापने वाले थर्मामीटर सटीक और भरोसेमंद हों, ऐसा नहीं है। इन्हें खास माहौल में रखा जाना भी जरूरी है। इन्हें इमारतों या किसी संरचना से दूर लगाया जाना चाहिए ताकि इनके चारों ओर की हवा स्वतंत्र रूप से बह सके। साथ ही, सीधी धूप, बारिश, बर्फ और तेजी हवाओं से बचाना भी जरूरी है। थर्मामीटर किसी दीवार या जमीन के पास नहीं होने चाहिए, ताकि बाहरी गर्मी का असर उनकी रीडिंग पर न पड़े।

थर्मामीटर शेड से स्टीवेन्सन स्क्रीन तक का सफर

आईएमडी द्वारा जारी दिशानिर्देशों के मुताबिक इस झोपड़ी को खुली हरी जगह में बनाना होता था, जहां हवा आराम से बह सके। यह शेड 18-20 फीट लंबा और 14-16 फीट चौड़ा होता था। इसकी छत घास की होती थी। यह चारों ओर से खुला होता था और ऊपर एक बांस की पाइप (वेंटिलेशन पाइप) होती थी ताकि गरम हवा बाहर निकल सके।

इसे किसी दीवार या गर्मी छोड़ने वाली सतह से कम से कम 50 फीट दूर बनाया जाता था। इसका छज्जा उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा जाता था। थर्मामीटर को इस झोपड़ी के अंदर खास ऊंचाई पर लगाना होता था, इसका मुंह उत्तर की ओर होता था। ये झोपड़ी 'बंगाल हट' या 'मद्रास हट' के नाम से जानी जाती थी। हालांकि इनके डिजाईन में कुछ अंतर रहे होंगे, लेकिन उनका असर तापमान की रीडिंग पर नहीं पड़ता था।

1885 तक भारत और ब्रिटिश शासन और आस-पास के इलाकों में इन मौसम वेधशालाओं की संख्या बढ़कर 134 हो गई। इनमें से ज्यादातर में अब तक थर्मामीटर शेड लगाए जा चुके थे।

जब भारत में ब्रिटिश मौसम विज्ञानी थर्मामीटर शेड लगा रहे थे, वहीं ब्रिटेन में एक और प्रयोग चल रहा था। वहां एक ऐसा उपकरण विकसित किया जा रहा था जो थर्मामीटर को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उसे खुले वातावरण में भी रख सके—और वो भी एक कॉम्पैक्ट डिजाईन में। इसकी शुरुआत सिविल इंजीनियर थॉमस स्टीवेन्सन ने की थी, जो मशहूर लेखक रॉबर्ट लुईस स्टीवेन्सन के पिता थे।

1864 में उन्होंने एक खास डिजाईन की कल्पना की जिसे बाद में स्टीवेन्सन स्क्रीन कहा गया। इस डिजाईन को अपनाने से पहले इसमें कई बदलाव और परीक्षण हुए। आखिरकार, 19वीं सदी के अंत तक यह ब्रिटिश वेधशालाओं के लिए मानक बन गया और फिर दुनिया के कई देशों में भी इसे अपनाया गया। यह एक नई किस्म का तापमान मापने वाला डिब्बा था।

इस सफेद लकड़ी के बॉक्स को लकड़ी के ही बने खंभों पर खड़ा किया जाता था। इसका सफेद रंग सूरज की रोशनी को परावर्तित करने में मदद करता है। इसमें थर्मामीटर होता है और चारों तरफ हवा आने-जाने के लिए छेद (स्लिट्स) होते हैं। इसकी खासियत यह होती है कि सूरज की किरणें थर्मामीटर पर सीधे नहीं पड़तीं हैं।

थर्मामीटर को इसके अंदर या तो खड़ा या लेटा कर लगाया जाता है। स्क्रीन में एक दरवाजा होता है, जिससे रीडिंग ली जाती है। इसकी दिशा ऐसी होती है कि उसे खोलने पर सूरज की किरणें थर्मामीटर पर न पड़ें। इसकी ऊंचाई 4 से 6.5 फीट तक होती है—इतनी कि जमीन से निकलने वाली गर्मी का असर न हो और इंसान आसानी से रीडिंग ले सकें।

भारत में भी 1920 के दशक में सभी थर्मामीटर शेड हटा दिए गए और उनकी जगह स्टीवेन्सन स्क्रीन आ गए। आज भी सभी मैन्युअल मौसम वेधशालाओं में स्टीवेन्सन स्क्रीन का ही इस्तेमाल होता है।

वहीं जहां स्वचालित मौसम स्टेशन लगे हैं—जैसे दूरदराज के इलाकों में—वहां भी थर्मामीटर की जगह डिजिटल सेंसर (जैसे थर्मिस्टर या प्लेटिनम रेसिस्टेंस थर्मामीटर) लगाए जाते हैं। इन्हें भी छोटे-छोटे स्लिट वाले बॉक्स से ढंका जाता है, जो छोटे स्टीवेन्सन स्क्रीन जैसे ही होते हैं। देश और कंपनी के आधार पर इनका डिजाइन थोड़ा-बहुत बदल अलग हो सकता है, लेकिन मूल सिद्धांत एक जैसा ही होता है।

हांगकांग में आज भी जिंदा है ‘भारतीय शैली’ का तापमान शेड

दुनिया भर में जब थर्मामीटर शेड खत्म हो चुके थे, तब भी हॉन्गकॉन्ग में एक ऐसा शेड बचा रहा। वहां आज भी एक खास झोपड़ी में तापमान मापा जाता है। यह झोपड़ी 1930 से कई बार मरम्मत के बाद आज भी काम में लाई जाती है। इसमें आधुनिक थर्मामीटर लगे हैं, जो शुष्क और नम तापमान को मापते हैं।

गौरतलब है कि हांगकांग वेधशाला की स्थापना 1883 में हुई थी और उस समय भी वहां तापमान मापने के लिए स्टीवेन्सन स्क्रीन का ही इस्तेमाल होता था। लेकिन 1889 के आसपास, एक नया तापमान शेड बनाया गया, जो भारतीय डिजाइन से प्रेरित था। यह डबल छत वाला पाम पत्तियों से बना शेड था। 1913 में यह शेड एक तूफान में उड़ गया, लेकिन बाद में वेधशाला के एक दूसरे हिस्से में फिर से वैसा ही एक शेड बनाया गया।

यह शेड 20 x 15 फीट का था। इसकी छत फिर से डबल पाम-लीफ से बनी थी, जो जमीन से महज तीन फीट ऊपर थी और केवल उत्तर दिशा पूरी तरह खुली रखी गई थी। 1959 में छत की जगह दो परतों वाली मैटिंग का उपयोग किया गया। 1978 में इस शेड को फिर से बनाया गया और स्क्रीन को भी दोबारा लगाया गया। तब से लेकर आज तक, इस शेड की बनावट लगभग वैसी ही बनी हुई है। आज इस शेड में दो प्लैटिनम रेसिस्टेंस थर्मामीटर लगे हैं, जो शुष्क और नम तापमान को मापने के काम आते हैं।

क्या भरोसेमंद हैं भारत में तापमान के पुराने रिकॉर्ड?

1978 में हांगकांग वेधशाला में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) जलवायु वाले क्षेत्रों में पाम पत्तियों वाला शेड, स्टीवेन्सन स्क्रीन की तुलना में अधिक सटीक तापमान दिखाता है। पता चला कि दोपहर में स्टीवेन्सन स्क्रीन का तापमान शेड से थोड़ा ज्यादा आता था और रात में थोड़ा कम। यानी, दोनों में फर्क है। यह तापमान शेड से एक डिग्री सेल्सियस अधिक, जबकि साफ और शांत रातों में 0.5 डिग्री कम था।

जब से थर्मामीटर शेड्स का इस्तेमाल बंद हुआ, तब से स्टीवेन्सन स्क्रीन को ही मानक माना गया। ऐसे में भारत में इन दोनों के बीच तुलना करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता।

हालांकि, कुछ पुराने अध्ययनों में संकेत मिले हैं कि थर्मामीटर की अलग-अलग सेटिंग्स में तापमान को मापने से फर्क आ सकता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में शुरुआती 20वीं सदी में तापमान के रिकॉर्ड में 'गड़बड़ी' यानी ज्यादा गर्मी दर्ज होने की आशंका जताई गई है। इन निष्कर्षों के बावजूद, भारत में 19वीं और 20वीं सदी के थर्मामीटर शेड्स और आज के स्टीवेन्सन स्क्रीन के मापों के बीच कभी कोई व्यवस्थित तुलनात्मक अध्ययन नहीं हुआ है।

शोध के मुताबिक ऐसे में यह जरूरी है कि इस अंतर को बेहतर तरीके से समझा जाए। शोधकर्ताओं के मुताबिक अगर आज एक पुराना थर्मामीटर शेड फिर से बनाया जाए और साथ में स्टीवेन्सन स्क्रीन भी लगाई जाए, तो दोनों से एक साल तक आंकड़ों को इकट्ठा किया जा सकता है।

इससे पता किया जा सकेगा कि पुराने रिकॉर्ड में कोई गड़बड़ी थी या नहीं। अगर थी, तो उन पुराने तापमान के आंकड़ों को सुधार कर 150 वर्षों के तापमान का एक सटीक और विश्वसनीय रिकॉर्ड तैयार किया जा सकता है।