जब किसी देश की खरपतवार के प्राकृतिक दुश्मन को किसी नए देश में लक्षित खरपतवार को नष्ट करने के लिए लाया जाता है तो उसे क्लासिकल जैविक नियंत्रण कहा जाता है। यह विधि उस स्थिति में बेहद कारगर साबित होती है, जब एक प्रकार की खरपतवार बड़े स्तर पर फैल जाती है। यह फैलाव आमतौर पर बंजर भूमि, रेंज भूमि या जल निकायों में होता है। ध्यान रहे कि जैविक खरपतवार नियंत्रण फसल के साथ उगने वाली खरपतवार के मामले में बहुत कामयाब नहीं रहा है। हालांकि कुछ विशिष्ट स्थितियों में मानवीय प्रयासों से इसमें सफलता जरूर मिली है, जैसे दलहनी फसलों में बरसात के मौसम में पार्थेनियम के जैविक नियंत्रण के लिए जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा का उपयोग। शाकनाशियों के भारी उपयोग और उनके दुष्प्रभावों ने दुनियाभर में खरपतवारों के जैविक नियंत्रण की आवश्यकता को बल दिया है।
भारत में, ब्रिटिश शासन के समय से लेकर आज तक खरपतवारों के विरुद्ध लगभग 32 विदेशी जैविक नियंत्रण एजेंट या तो गलती से अनजाने में या विभिन्न सरकारी एजेंसियों के माध्यम से लाए गए हैं। इनमें से चार को या तो मेजबान-विशिष्टता परीक्षण में उत्तीर्ण न होने या संगरोध प्रयोगशालाओं में गुणन न होने के कारण क्षेत्र में नहीं छोड़ा जा सका। पांच एजेंट, जिन्हें छोड़ दिया गया था, उन्हें पुनर्प्राप्त नहीं किया जा सका और इसलिए उनकी आबादी को आगे के शोध और उपयोग के लिए बनाए नहीं रखा जा सका जबकि 23 को छोड़ने के बाद पुनः प्राप्त कर लिया गया और वे या तो अच्छी तरह से स्थापित/आंशिक रूप से स्थापित या नगण्य रूप से स्थापित हैं। यहां तक कि 23 जैव नियंत्रण प्रजातियों में भी सफलता की डिग्री अलग-अलग रही है। इनमें से छह प्रजातियां उत्कृष्ट नियंत्रण प्रदान कर रही हैं, चार नगण्य नियंत्रण दिखाती हैं और 13 केवल आंशिक नियंत्रण कर रही हैं। भारत में सभी प्रकार के फसलों और खरपतवारों में जैविक नियंत्रण एजेंटों द्वारा सर्वाधिक सफलता जलीय खरपतवारों (55.5 प्रतिशत) के नियंत्रण करने में दर्ज की गई है। इसके बाद फसलों में (46.7 प्रतिशत) होमोप्टेरौस कीटों (पौधों से रस चूसने वाले कीटों का वर्ग ) और पुनः स्थलीय खरपतवारों (23.8 प्रतिशत) का स्थान है।
भारत में सवर्प्रथम नागफनी (प्रिक्ली पियर) खरपतवार का जैविक नियंत्रण अनजाने में हुआ। 1795 में भारत में ओपुनसिया वल्गेरिस नाम की नागफनी से एक प्रकार की लाल डाई बनाने के लिए डेक्टीलोपियस कॉकस नाम के एक कीट को ब्राजील से भारत में तत्कालीन शासक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा लाया गया था। ज्ञात हो कि ओपंटिया प्रजातियों को (ओ. वल्गेरिस, ओ. स्ट्रिक्टा और ओ. एलाटियर के नाम से जाना जाता है। इनकी उत्पत्ति फ्लोरिडा, अमेरिका और वेस्टइंडीज में हुई) भारत में खाद्य फलों, चारे और कोचीनियल डाई के उत्पादन के लिए लाया गया था, जो बाद में फैल गया और कृषि और गैर-कृषि भूमि के बड़े क्षेत्रों में गंभीर खरपतवार बन गया। पर उक्त कीट से अच्छे प्रकार की डाई तो प्राप्त न हो सकी पर उसके द्वारा नागफनी को ही पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया गया। यह डेक्टीलोपियस कोकस की मादा कीट है जो कैक्टस के लाल बेरीज (फलों) खाती है और अपने शरीर और अंडों में रंग को इकट्ठा करती है। उन्हें खुरचकर अलग कर दिया जाता है और सुखाने के बाद पानी में अल्कोहल और एल्युमिनियम या कैल्शियम लवण जैसे पदार्थ मिलाकर रंग तैयार किया जाता है। बाद में पता चला कि यह डेक्टीलोपियस कॉकस नाम का कीट न होकर डेक्टीलोपियस सिलोनिकस जाति का कीट था। इस घटना ने दुनिया में खरपतवारों के जैविक नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त किया। इससे यह चेतावनी भी मिलती है कि जैविक नियंत्रण कार्यक्रम के तहत बायोएजेंट की सही प्रजाति की पहचान कितनी आवश्यक है। 1863 से 1868 के बीच इस कीट को दक्षिण भारत में नागफनी को नष्ट करने के लिए लाया गया जिसे खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए कीट का पहला सोचा-समझा सफल उपयोग माना जाता है। इसलिए, यह दावा किया जा सकता है कि खरपतवारों का जैविक नियंत्रण दुनिया में भारत से ही आया है।
भारत में आईकॉर्निया कैरासिपेस (जलकुंभी), साल्विनिया मोलेस्टा (वाटर फर्न), हाइड्रिला वर्टिसिलेटा (पानी में डूबी रहने वाली खरपतवार), पिस्टिया स्ट्रेटियोट्स, आइपोमोइया कार्निया आदि समस्याग्रस्त जलीय खरपतवार हैं। जलकुंभी पूरे भारत में सबसे खराब जलीय खरपतवार मानी गई है और इसने उत्तर-पूर्व और केरल में तो एक गंभीर समस्या का रूप ले लिया है। कुछ लोगों का मानना है कि इसका बायोएजेंट नियोचेटीना जलकुंभी को नियंत्रित करने में प्रभावी नहीं हैं। हालांकि, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों में इसकी सफलता की अनेक कहानियां हैं। अनुसंधान ने साबित कर दिया है कि जलकुंभी के सफल जैविक नियंत्रण के लिए जल निकायों की बारहमासी प्रकृति आवश्यक है। नदियों और बहते पानी में जलकुंभी के जैविक नियंत्रण की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि बरसात के मौसम में खरपतवार के साथ बायोएजेंट की आबादी बह जाने के कारण उसका प्रभावी उपयोग असंभव है। हालांकि उपयुक्त जल निकायों में उचित संख्या में बायोएजेंट को व्यवस्थित रूप से छोड़ने से शानदार सफलता मिल सकती है।
जैविक नियंत्रण की सालविनिया मोलेस्टा पर केरल राज्य के बाद सबसे महत्वपूर्ण सफलता मध्य भारत में बायोएजेंट सिर्टोबैगस सालविनी के जरिए प्राप्त हुई है। इस बायोएजेंट को मेरे द्वारा केरल से जबलपुर स्थित खरपतवार अनुसंधान निदेशालय लाया गया था। यहां गहन अनुसंधान के बाद इसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के सालविनिया मोलेस्टा से ग्रसित जल निकायों पर छोड़ा गया। इसकी मदद से मध्य भारत में दो से तीन वर्ष में ही करीब 5,000 हेक्टेयर में फैले जल निकायों को इस खरपतवार से मुक्त कराया जा चुका है।
स्थलीय खरपतवार पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस ने भारत में लगभग 3.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर अपनी जड़ें जमा रखी हैं। इसे फसल उत्पादकता, जैव विविधता और मानव में कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की वजह माना जाता है। 1980 के दशक के दौरान मैक्सिको से लाए गए बायोएजेंट जायगोग्रामा बाइकोलोराटा द्वारा इसके जैविक नियंत्रण से खरपतवार में भारी कमी आई और जैव विविधता की बहाली में मदद मिली है। हालांकि, जैव नियंत्रण पर विश्वास न करने वालों द्वारा दावा किया जाता है कि बायोएजेंट ने पार्थेनियम के फैलाव को कम करने के लिए कुछ नहीं किया है। लेखक द्वारा 2022 में किए गए एक अनुमान में यह पाया गया कि जायगोग्रामा बाइकोलोराटा भारत के 3.5 करोड़ हेक्टेयर संक्रमित क्षेत्र में से लगभग 2.5 करोड़ हेक्टेयर (71 प्रतिशत) में फैल गया है और अच्छी तरह से स्थापित हो गया है। यह बायोएजेंट केवल बरसात के मौसम के दौरान पार्थेनियम को शून्य से 100 प्रतिशत तक विभिन्न स्तरों पर नियंत्रित करता है। पार्थेनियम को केवल 10 प्रतिशत पूर्णत: नियंत्रित कर लेने से ही हर साल लगभग 600 करोड़ रुपए की बचत (हर्बिसाइड पर होने वाले खर्च के संदर्भ में) होती है।
भारत में जैवएजेंटों, मुख्य रूप से कीटों ने नागफनी, ओपंटिया एलाटियर और ओपंटिया वल्गेरिस को डी. सीलोनिकस और डी. ओपंटिया द्वारा; साल्विनिया मोलेस्टा को सिर्टोबैगस साल्विनि द्वारा; जल जलकुंभी को नियोचेटिना ब्रूची, एन. आईकोरनिआ और माइट ऑर्थोगैलम्ना टेरेब्रांटिस द्वारा और पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस को पत्ती खाने वाले कीट जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा द्वारा उत्कृष्ट जैविक नियंत्रण प्रदान किया है। कुछ जैव-कारकों ने सफलता सिद्ध नहीं की, लेकिन आंशिक नियंत्रण जरूर प्रदान किया। मसलन दुनिया की सबसे खतरनाक खरपतवार प्रजातियों में शामिल लैंटाना कैमारा को छोड़े गए 9 बायोएजेेंट में से दो ओफियोमिया लैंटाने और टेलोनेमिया स्क्रूपुलोसा द्वारा ही आंशिक रूप से नियंत्रित करने में सफलता हासिल हुई है। इसी तरह क्रोमोलेना ओडोराटा पर पारियोचैट्स स्यूडोइनसुलेटा और सेसिडाचेरेस कोनेक्सा के जरिए, अजरटीना एडेनोफोरा पर प्रोसेसीडोचेरेस यूटिलिस के जरिए, पानी में डूबी रहने वाली खरपतवार वेलिसनेरिया और हाइड्रिला वर्टीसेलाटा पर ग्रासकार्प की मदद से आंशिक सफलता मिली है।
त्रिनिदाद से एकत्रित एक उष्णकटिबंधीय अमेरिकी रस्ट फंगस (पुक्सिनिआ स्पेगैजिनी) को भारत में असम और केरल में 2005 में छोड़ा गया था। अब तक इस जैवएजेंट ने प्रभावी होने के कोई सबूत नहीं मिले हैं। भले ही यह रस्ट भारत और चीन के खेतों में प्रभावी नहीं रहा लेकिन इस जैवएजेंट ने ताइवान, फिजी में खुद को स्थापित कर लिया और मिकैनिया माइक्रांथा को भारी नुकसान पहुंचा रहा है।
कई जैवएजेंटों की विफलता के बावजूद, हमें दूसरे देशो में ज्ञात प्रभावी जैवएजेंटों को छोड़ने के प्रति आशावादी रुख अपनाना चाहिए। अभी भारत में बहुत से जैवएजेंट लाए नहीं गए हैं। इस तरफ तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। इनमें से कुछ जैसे लिस्ट्रोनोटस सेटोसिपेन्निस, स्टोबेरो कॉन्सिम्मा, बुक्कालाट्रिक्स पार्थेनिका और पुक्सिनिआ एब्रपटा ने पार्थेनियम पर अच्छा असर दिखाया है। इसी तरह पानी में तैरने वाली जलीय खरपतवार एलीगेटर वीड एलटरनैंथेरा फिलोसीरॉयड्स पर कीट प्रजाति अगासीक्लस हाइग्रोफिला, जलकुंभी पर सेमोडेस एल्बिगुट्टालिस, पिस्टिया स्ट्रेटिओट्स पर नियोहाइड्रोनोमस एफिनिस और मिमोसा डिप्लोट्रिचा पर हेटेरोप्सिला स्पिनुलोसा असरदार साबित हुए हैं । इन्हें ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में अच्छी तरह परखा जा चुका है।
(लेखक जबलपुर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-खरपतवार अनुसंधान निदेशालय के सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक हैं)