वैज्ञानिकों के मुताबिक इनमें से कई ‘शुगर-फ्री’ केमिकल इतने स्थाई हैं कि इन्हें हटाना करीब-करीब नामुमकिन है; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक 
प्रदूषण

भारत सहित कई देशों में सीवर से नदियों तक फैल रहा मिठास का 'जहर'

रिसर्च से पता चला है कि सुक्रालोज और एसेसल्फेम जैसे कृत्रिम स्वीटनर्स को सीवेज ट्रीटमेंट की मदद से हटाना मुश्किल होता है, जिससे ये आसानी से पर्यावरण में फैल जाते हैं

Lalit Maurya

सॉफ्ट ड्रिंक्स, प्रोसेस्ड फूड और टूथपेस्ट जैसे 'शुगर-फ्री' उत्पादों में इस्तेमाल होने वाली कृत्रिम मिठास अब सिर्फ आपके खाने तक सीमित नहीं हैं। एक नई रिसर्च में खुलासा हुआ है कि ये रासायनिक मिठासें अब सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स से होकर नदियों, झीलों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र तक पहुंच रही हैं। इनकी वजह से पर्यावरण व दूसरे जीव-जंतुओं के लिए खतरा पैदा हो गया है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक इनमें से कई ‘शुगर-फ्री’ केमिकल इतने स्थाई हैं कि इन्हें हटाना करीब-करीब नामुमकिन है।

देखा जाए तो इनका असर केवल जल गुणवत्ता पर ही नहीं, बल्कि जलीय जीवन, पारिस्थितिकी तंत्र और आने वाली पीढ़ियों पर भी पड़ रहा है। यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी (यूटीएस) से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स में प्रकाशित हुए हैं।

भारत सहित 24 देशों पर किए इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स में कृत्रिम मिठास की मौजूदगी, उनकी मात्रा में होता बदलाव, और उन्हें साफ करने की क्षमता का गहराई से अध्ययन किया है।

गर्मियों में 30 फीसदी तक अधिक पाई गई इन स्वीटनर्स की मात्रा

अध्ययन से पता चला है कि सुक्रालोज, एसेसल्फेम, सैकरिन और साइक्लामेट दुनिया भर में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले कृत्रिम स्वीटनर हैं। अमेरिका, स्पेन, भारत और जर्मनी के सीवेज में इनकी मात्रा सबसे अधिक दर्ज की गई है।

अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि ज्यादातर देशों में गर्मियों के दौरान कृत्रिम स्वीटनर्स की मात्रा 10 से 30 फीसदी अधिक पाई गई, जबकि चीन में यह मात्रा सर्दियों में सबसे अधिक थी। सीवेज के पानी में पाए जाने वाले अन्य कृत्रिम स्वीटनर्स में नियोटेम, स्टीविया, एसेसल्फेम-के और नियो हेस्पेरिडिन डाइहाइड्रोचाल्कोन (एनएचडीसी) शामिल थे।

वैज्ञानिकों के मुताबिक ये कृत्रिम मिठासें, प्राकृतिक शक्कर से अलग होती हैं। इन्हें इस तरह से बनाया जाता है कि यह आसानी से शरीर में नहीं पचती। यही वजह है कि इनका ज्यादातर हिस्सा शरीर में बिना पचे ही बाहर निकल जाता है, और सीधे सीवेज सिस्टम में पहुंच जाता हैं। वहां भी सामान्य ट्रीटमेंट प्रक्रियाएं इन्हें पूरी तरह साफ नहीं कर पातीं। नतीजन यह इन प्लांट्स से होते हुए नदियों, झीलों, समुद्रों तक पहुंच जाती हैं।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि कि सैकरिन और साइक्लामेट को सीवेज ट्रीटमेंट की मदद से हटाया जा सकता है, लेकिन सुक्रालोज और एसेसल्फेम जैसे कृत्रिम स्वीटनर्स को हटाना मुश्किल होता है, जिससे ये साफ किए बिना ही पर्यावरण में फैल जाते हैं।

गौरतलब है कि कृत्रिम स्वीटनर्स को लेकर लंबे समय से स्वास्थ्य पर बुरे प्रभावों की आशंका जताई जाती रही है। इन्हें टाइप-2 डायबिटीज, दिल की बीमारियों और कैंसर से जोड़ा गया है। इसके अलावा, ये जलीय जीवों के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकते हैं।

अध्ययन में पाया गया कि सुक्रालोज जेब्राफिश में जन्म सम्बन्धी विकार पैदा कर सकता है, जबकि सैकरिन की अधिक मात्रा मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकती है।

'स्वस्थ विकल्प' या 'धीमा जहर'

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर वांग ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया, “सुक्रालोज जैसी मिठासें बेहद स्थिर होती हैं। इनकी रासायनिक संरचना इतनी स्थिर होती है कि ये सामान्य और उन्नत ट्रीटमेंट प्रक्रिया के बावजूद बच जाती हैं और सीधे नदियों-समुद्र में पहुंच जाती हैं। जहां वो जलीय जीवन को प्रभावित करती हैं।“

यह खतरा ठीक वैसा ही है जैसा पीएफएएस जैसे 'फॉरएवर केमिकल्स' के मामले में देखा गया है, क्योंकि ये केमिकल पर्यावरण और पीने के पानी में जमा हो जाते हैं और जीवों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ठीक इसी तरह, कृत्रिम मिठासें भी पर्यावरण में धीरे-धीरे जमा होती रहती हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह खोज पर्यावरण संरक्षण एजेंसियों, जल प्राधिकरणों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये केमिकल न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं बल्कि इंसानों द्वारा किए जा रहे प्रदूषण का भी स्पष्ट संकेत देते हैं।

वैज्ञानिक सीवेज के पानी का विश्लेषण करके यह भी पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि पूरे समाज में कृत्रिम मिठासों का कितना उपयोग हो रहा है। अक्सर लोग यह नहीं जानते कि उनके प्रोटीन शेक या टूथपेस्ट में भी कृत्रिम मिठास मौजूद होती हैं।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने पर्यावरण पर मंडराते इनके खतरे को कम करने के लिए निरंतर निगरानी, सख्त नियमों और बेहतर उपचार तकनीकों की आवश्यकता जताई है।