प्रदूषण

“स्वास्थ्य नीतियों में कृत्रिम प्रकाश के बढ़ते दायरे पर विचार करना चाहिए”

Richard Mahapatra

इंसानों का विकास प्राकृतिक रोशनी में ही हुआ है। लेकिन अब हम कृत्रिम रोशनी के संपर्क में ज्यादा रहने लगे हैं। इससे हमारी सेंट्रल बायोलॉजिकल क्लॉक पर कैसा असर पड़ रहा है?

हमारी सेंट्रल बायोलॉजिकल क्लॉक प्राकृतिक रोशनी के साथ विकसित हुई है और यह आत्मनिर्भर है। इसका मतलब है कि यह क्लॉक सर्कैडियन रिदम उत्पन्न करने और उसे बनाए रखने की क्षमता रखती है। इन सर्कैडियन रिदम का “सूरज के रोशनी और अंधेरे के चक्र” के साथ तालमेल होना बेहद जरूरी है। हमारी पूरी विकास प्रक्रिया के दौरान सूरज की रोशनी और अंधेरे का यह चक्र हमारे सर्कैडियन रिदम को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कारक रहा है। इसकी तुलना में हमने बस कुछ ही समय पहले कृत्रिम रोशनी के संपर्क में आकर प्रतिक्रिया देना शुरू किया है।

हम जानते हैं कि कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से सर्कैडियन रिदम कई तरह से बाधित हो सकता है, खासकर दिन के कुछ निश्चित समय के दौरान इसका असर ज्यादा पड़ता है। यह रोशनी सर्कैडियन रिदम की टाइमिंग बदल सकती है। इतना ही नहीं, यह हमारी उत्तेजना या सतर्कता भी बढ़ा सकती है, जिससे हमारे सोने-जागने के व्यवहार पर भी असर पड़ता है।

बदलती या बदल चुकी बायोलॉजिकल क्लॉक का हम पर क्या असर होता है?

जीवों के रूप में हम सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ जुड़े रहने के हिसाब से विकसित हुए हैं। हमारे विकास के क्रम में एक समय में हम शाम को सोने की तैयारी करते थे और भोर में जाग जाते थे। यह तब था, जब हमारा तालमेल सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ बना हुआ था।

अब कृत्रिम रोशनी के कारण हममें से ज्यादातर लोगों के लिए रात, आधी रात के बाद शुरू होती है। शाम के समय कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं। हमारे सर्कैडियन रिदम में गड़बड़ी इसका पहला प्रभाव है। दूसरा असर यह है कि कृत्रिम रोशनी हमारे शरीर में मेलाटोनिन हार्मोन के स्राव को कम कर सकती है। मेलाटोनिन हार्मोन हमारी कई महत्वपूर्ण शारीरिक प्रक्रियाओं के लिए जरूरी है, जिनमें से एक नींद को नियंत्रित करने में मदद करना भी शामिल है। मेलाटोनिन का स्राव सर्कैडियन रिदम के अनुसार होता है। लेकिन, जब हम खुद को प्रकाश के संपर्क में लाते हैं, तो इस हार्मोन का स्राव तेजी से घट जाता है और हमारी नींद पर इसका बुरा असर पड़ता है।

क्या सेहत के लिहाज से अंधेरे से बढ़ती दूरी चिंता का विषय है?

मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि अंधेरे के संपर्क में न आने या कम आने से कई स्वास्थ्य-संबंधी समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। हम जानते हैं कि नींद के चक्र में व्यवधान की वजह से डायबिटीज जैसी मेटाबॉलिज्म-संबंधी समस्याओं का खतरा ज्यादा हो जाता है। इसी तरह, हम खुद को दिल से जुड़े रोगों, मोटापे और कई मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित परेशानियों का शिकार बना लेते हैं। और यह तो बताने की भी जरूरत नहीं कि इसका हमारे प्रदर्शन और हमारी उत्पादकता पर कितना बुरा असर पड़ता है। मुझे विशेष रूप से भारत में दिलचस्पी है, जहां हृदय रोग और डायबीटीज जैसी कार्डियो-मेटाबोलिक समस्याएं तेजी से बढ़ती दिख रही हैं। मैं यह सोचने पर विवश हूं कि क्या स्वास्थ्य नीतियों में हमें कृत्रिम रोशनी के बढ़ते दायरे पर विचार करना चाहिए।

क्या प्रदूषण मुक्त आकाश वाली रातें मानवाधिकार मानी जानी चाहिए?

मौलिक अधिकार इंसानों की बुनियादी जरूरत भी हैं, ताकि इंसान बेहतरीन तरीके से काम कर सकें। स्वच्छ पर्यावरण मौलिक अधिकारों में से एक है और इसका विनियमन प्रदूषण को रोकने के लिए जरूरी है। प्रदूषण के अन्य पहलुओं या पर्यावरण में अन्य प्रदूषकों को मनुष्यों की सुरक्षा के लिए विनियमित किया जाता है, लेकिन रोशनी से होने वाले प्रदूषण के बारे में बात नहीं की जाती है।

मैं रात में रोशनी के रेगुलेशन और लाइट के एक्सपोजर को कंट्रोल करने की वकालत करता हूं। हम जानते हैं कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि रात में प्रकाश के संपर्क में आने से लोगों की नींद मे खलल पड़ता है और उन्हें कई तरह की स्वास्थ्य-संबंधी परेशानियों खतरा बढ़ जाता है। यह हर व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों और विशेषाधिकारों का हिस्सा होना चाहिए।

सितारों से भरी रातें हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं। यह विरासत पृथ्वी पर हमारी यादों और हमारे उन अनमोल क्षणों से जुड़ा हुआ है, जिन्हें हम आमतौर पर रातों के साथ जोड़ते हैं। क्या ऐसी रातों का खोना भी हमारे लिए एक तरह का नुकसान ही है?

हमने जिंदगी को जीने के लिए एक ऐसा 24X7 मॉडल तैयार किया है, जहां लोग जब चाहें, जो चाहें हासिल कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि हमारी सोसायटी दिन के चौबीसों घंटे सक्रिय रहती है। प्राचीन संस्कृतियों में ऐसा नहीं होता था। हमें इस बात की समझ थी कि प्राकृतिक पर्यावरण के साथ तालमेल बिठाकर कैसे रहना है। चौबीसों घंटे काम करने वाली यह सोसायटी बनाने के बाद अब हमें एहसास हो रहा है कि प्राचीन संस्कृतियों के पास इस बात की गहरी समझ थी कि आसपास के वातावरण से कैसे तालमेल बनाए रखना है, और कैसे खुद को सेहतमंद रखते हुए अपनी उत्पादकता भी बढ़ानी है।

मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम प्राचीन संस्कृतियों और प्रथाओं में मौजूद गहन ज्ञान की फिर से जांच करें, ताकि हम उन्हें वापस अपने जीवन मे शामिल कर सकें। शायद यहीं से हमें उन कई स्वास्थ्य चुनौतियों का समाधान मिलेगा, जिनका सामना इंसान कर रहे हैं। इनमें प्रकाश के प्रदूषण से पैदा हुईं चुनौतियां भी शामिल हैं।

इस समय पूरी दुनिया में करीब 3 अरब लोग रात में भी बहुत ज्यादा रोशनी में रह रहे हैं। जैसा कि आपने बताया कि 24X7 जागती, काम करती रहने वाली सोसायटी में रोशनी का यह दायरा आगे और भी बढ़ेगा। आप बिना रात के अंधेरे वाली दुनिया की कल्पना कैसे करते हैं?

हमारे शरीर में ऐसे कई जीन्स हैं, जो हमारी “सर्कैडियन क्लॉक” को नियंत्रित करते हैं। हम यह भी जानते हैं कि ऐसे भी कई जीन्स हैं, जो प्रकाश के प्रति हमारी संवेदनशीलता को भी नियंत्रित करते हैं। यही वजह है कि प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता में आनुवंशिक या व्यक्तिगत अंतर होते हैं। इसलिए जिन लोगों के पास ये खास सर्कैडियन जीन्स या प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता को नियंत्रित करने वाले जीन्स हैं, 24 घंटे काम करने वाली सोसायटी में उन्हें इसका ज्यादा फायदा मिल सकता है, समय के साथ वे ज्यादा सफलता हासिल कर सकते हैं। लेकिन, मेरी प्राथमिकता यह होगी कि प्रकाश से हो रहे इस प्रदूषण को नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे इस प्रदूषण के प्रति खुद को ढालने की बजाए इसे नियंत्रित करने पर ध्यान देना चाहिए।

मैं भारत का एक किस्सा बताना चाहूंगा। कुछ साल पहले मैं वहां यह पता करने गया था कि कृत्रिम रोशनी के बिना कोई कम्यूनिटी वहां कैसे व्यवहार करती है। मैंने वहां के एक आदिवासी समुदाय के कुछ लोगों का इंटरव्यू लिया। उनकी नींद का पैटर्न लगभग सूरज के रोशन और अंधकार चक्र से मेल खाता था। यानी, वे सूर्योदय-सूर्यास्त के मुताबिक ही सोते-जागते थे। आसपास के जिन गांवों में बिजली पहुंच गई थी या उन्हें सौर ऊर्जा की सुविधा मिल गई थी, उनकी जिंदगी और व्यवहार पूरी तरह से बदल गया था। उन्होंने शामों का इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों के लिए करना शुरू कर दिया। वे उद्योग-धंधों पर ज्यादा ध्यान देने लगे, कई तरह की चीजें बनाने, बेचने जैसे काम शुरू कर दिए। कृत्रिम रोशनी ने किस कदर हमारे जीने के तरीके को बदल दिया है, कैसे हमारी आर्थिक तरक्की तेज कर दी है, यह इसका बेहतरीन उदाहरण है। इस रोशनी की मदद से हमने दिन लंबे कर लिए हैं और ज्यादा काम कर पा रहे हैं। लेकिन, इसी कृत्रिम प्रकाश ने हमारे व्यवहार को भी बदल दिया है, शरीर के काम करने की प्रक्रिया में बदलाव आया है और इस सबका हमारी सेहत पर भी बुरा असर पड़ रहा है। मुझे लगता है कि यह इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे सिर्फ एक स्विच की मदद से हम एक झटके में इंसानों को, उनके व्यवहार को और उनकी सेहत पर पड़ने वाले बुरे असर को बदल सकते हैं।