हरियाणा के यमुनानगर जिले के हथनी कुंड बैराज के पास यमुना नदी में बैराज से कुछ आगे मुस्ताक अहमद व वसीम अहमद हर लट्ठे के लिए अपनी जान यूं जोखिम में डाल देते हैं। फोटो संजय झा  
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बाढ़ में कारोबार: बहती लकड़ियों को पकड़ने के लिए जान जोखिम में डालते हैं ये लोग

यमुना नदी में बह कर आती लकड़ियों को पकड़ना लोगों का कारोबार बन गया है

Manoj Thakur

बाढ़ जहां ज्यादातर लोगों के लिए त्रासदी है, वहीं दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से लोग है, जिनके लिए बाढ़ कमाने का मौका है। ये लोग यमुना नदी में दिन रात तैर-तैर कर पहाड़ों से बह कर आ रहे पेड़ों के लट्ठे पकड़ते हैं। इस काम में जान का जोखिम तो हैं, लेकिन मुनाफा भी है। जो उन्हें जान लेवा बाढ़ में भी डूबकी लगाने के लिए प्रेरित करता है।

हथनी कुंड बैराज से कुछ आगे यमुना नदी के पानी पर मुश्तैदी से नजर रख रहे मुश्ताक अहमद व वसीम अहमद ने बताया कि वह दोनों भाई हैं। पांच साल से वे लोग नदी से लकड़ी पकड़ने का काम कर रहे हैं। उन्हें हर साल बाढ़ का इंतजार रहता है। इस दौरान वे पहाड़ से बह कर आने वाली लकड़ी को पकड़ते हैं। यह लकड़ी काफी महंगी बिकती है। फर्नीचर के लिए लकड़ी काफी अच्छी मानी जाती है। इसलिए स्थानीय लकड़ी की बजाय इसके रेट बहुत ज्यादा मिल जाते हैं।

यमुनानगर जिले के लापरा गांव के निवासी रामदीन व उनकी पूरी टीम भी इसी तरह से लकड़ी पकड़ने के काम में लगी हुई है। फोटो संजय झा

उन्होंने बताया कि एक सीजन में उनकी टीम, जिसमें पांच से सात सदस्य होते हैं, दो से तीन लाख रुपए की लकड़ी नदी से निकाल लेते हैं।

उन्होंने बताया कि इसमें खतरा तो रहता है, लेकिन जब कुछ कमाना है तो खतरा तो उठाना ही होगा। हालांकि यमुना समिति के सदस्य कनालसी निवासी राणा कर्मसिंह चौहान कहते हैं कि इसकी आड़ में लकड़ी की तस्करी भी होती है। पहाड़ पर नदी के आस पास पेड़ों को काट कर नदी में डाल दिया जाता है। जिसे यहां पकड़ लिया जाता है। इस पर रोक लगनी चाहिए।

वसीम अहमद का कहना है कि यह आरोप गलत है। बल्कि उनकी वजह से पानी का बहाव सुचारू हो जाता है। लट्ठे निकलने से पानी का बहाव बढ़ जाता है। उनके मुताबिक वे लोग तस्करी करने वाले लोगों से नहीं जुड़े हैं।

लकड़ी पकड़ना सीख रहे लापरा गांव के निवासी रामदीन 19 ने बताया कि इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। तेज लहर से लकड़ी पकड़ कर बाहर लाना आसान काम नहीं है। एक गलत कदम जानलेवा साबित हो सकता है।

रामदीन ने बताया कि लकड़ी की पहचान भी होनी चाहिए। तभी रिस्क लेना भी अच्छा लगता है। क्योंकि स्थानीय लकड़ी की यहां ज्यादा कीमत नहीं मिलती,इसलिए उनकी नजर हमेशा ही पहाड़ से बह कर आने वाली लकड़ी पर रहती है। इसमें साल व सागवान की लकड़ी ज्यादा अच्छी मानी जाती है। इसके अलावा शीशम जैसी लकड़ी मिल जाए तो बात बन जाती है।

नदी से निकली लकड़ियां आसपास के कारीगर खरीदते हैं। बाढ़ का सीजन खत्म होने के बाद उनके पास लकड़ी के खरीददार आना शुरू कर देते हैं। जो ज्यादा कीमत देता है, उसे बेच देते हैं। उसने बताया कि इस काम में मजा आता है। इसलिए जब भी बाढ़ आती है तो उसका ज्यादातर समय नदी के किनारे पर ही बीतता है।