दुनिया में पहली बार ऐसी वैक्सीन को मंजूरी मिली है, जो कोआला को क्लैमाइडिया नामक घातक बीमारी से बचाएगी। फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, हसन होउरी
स्वास्थ्य

कोआला को मिला जीवनदान: ऑस्ट्रेलिया में क्लैमाइडिया से बचाने के लिए पहली वैक्सीन को मंजूरी

दुनिया की पहली कोआला वैक्सीन क्लैमाइडिया से सुरक्षा, जंगली आबादी बचाने और विलुप्ति को रोकने में नया कदम।

Dayanidhi

  • दुनिया की पहली वैक्सीन – ऑस्ट्रेलिया में कोआला को क्लैमाइडिया से बचाने के लिए टीका मंजूर।

  • एक खुराक में सुरक्षा – बूस्टर की जरूरत नहीं, जंगली कोआला पर आसानी से लागू।

  • मौत में 65 फीसदी तक कमी – शोध और परीक्षणों से साबित हुआ कि टीका प्रभावी और सुरक्षित है।

  • वैश्विक सहयोग – ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका और यूरोप के संस्थानों ने मिलकर टीका विकसित किया।

  • राष्ट्रीय रोलआउट की तैयारी – बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण के लिए फंडिंग और दान की आवश्यकता।

ऑस्ट्रेलिया के प्यारे और विलुप्ति के कगार पर खड़े कोआला के लिए हाल ही में एक ऐतिहासिक कदम उठाया गया है। दुनिया में पहली बार ऐसी वैक्सीन को मंजूरी मिली है, जो कोआला को क्लैमाइडिया नामक घातक बीमारी से बचाएगी। यह वैक्सीन ऑस्ट्रेलिया के यूनिवर्सिटी ऑफ सनशाइन कोस्ट (यूनिएससी) के वैज्ञानिकों ने विकसित की है। इसे ऑस्ट्रेलिया की वेटरनरी मेडिसिन अथॉरिटी ने मंजूरी दी है।

यह उपलब्धि सिर्फ कोआला ही नहीं बल्कि पूरे पर्यावरण संरक्षण आंदोलन के लिए एक बड़ी जीत मानी जा रही है, क्योंकि यह बीमारी लंबे समय से कोआला की जान ले रही थी और उनकी प्रजाति को खतरे में डाल रही थी।

क्लैमाइडिया: कोआला के लिए सबसे बड़ी चुनौती

कोआला ऑस्ट्रेलिया के प्रतीक माने जाते हैं। लेकिन दशकों से यह जानवर एक गंभीर बीमारी, क्लैमाइडिया से जूझ रहे हैं। यह संक्रमण उनके लिए बहुत खतरनाक है क्योंकि यह एक दर्दनाक मूत्र संक्रमण है, बांझपन (बच्चे पैदा करने की क्षमता खत्म), अंधापन और अंततः मौत का कारण बन सकता है।

कुछ क्षेत्रों में तो 70 फीसदी तक जंगली कोआला इस बीमारी से प्रभावित पाए गए हैं। यही कारण है कि कोआला की कई बस्तियां धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। अनुमान है कि जंगली आबादी में होने वाली मौतों का लगभग आधा हिस्सा सिर्फ क्लैमाइडिया की वजह से होता है।

वैक्सीन की खोज: एक दशक की मेहनत

इस बीमारी से बचाने के लिए अब तक कोई टीका उपलब्ध नहीं था। पहले केवल एंटीबायोटिक दवाएं दी जाती थीं, लेकिन यह भी समस्या पैदा करती थीं। क्योंकि कोआला केवल नीलगिरी (यूकेलिप्टस) के पत्ते खाते हैं, एंटीबायोटिक उनके पाचन तंत्र को बिगाड़ देती थी और कई बार भूख से मरने की नौबत आ जाती थी। साथ ही, यह दवाएं दोबारा संक्रमण को रोकने में सक्षम नहीं थीं।

इसी कारण यूनिवर्सिटी ऑफ सनशाइन कोस्ट के प्रोफेसर पीटर टिम्स और उनकी टीम ने लगभग 10 साल की मेहनत से एक ऐसा टीका तैयार किया जो न सिर्फ सुरक्षित है बल्कि लंबे समय तक सुरक्षा भी देता है।

कैसे काम करता है यह टीका?

यह टीका क्लैमाइडिया पेकोरम नामक बैक्टीरिया के एक खास प्रोटीन पर आधारित है। इसकी खासियत है कि यह तीन स्तरों पर काम करता है- संक्रमण को कम करता है, बीमारी को गंभीर रूप लेने से रोकता है, और कई मामलों में पहले से मौजूद लक्षणों को भी हल्का कर देता है।

सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह सिर्फ एक खुराक में असरदार है और इसके लिए कोई बूस्टर डोज की जरूरत नहीं पड़ती। जंगली जानवरों के प्रबंधन में यह बहुत मददगार है क्योंकि उन्हें बार-बार पकड़ना और दवा देना आसान नहीं होता।

वैक्सीन की सफलता: परीक्षण और परिणाम

इस टीके को बनाने और जांचने में एक लंबा समय लगा। वैज्ञानिकों ने इसे – जंगली कोआला, कैद में रखे गए कोआला और वन्यजीव अस्पतालों में रह रहे कोआला सभी पर आजमाया।

सबसे बड़ा और सबसे लंबा अध्ययन डॉ. सैम फिलिप्स के नेतृत्व में हुआ। इसमें पाया गया कि यह वैक्सीन 65 फीसदी तक मौतों को रोकने में सफल रही। साथ ही, जिन कोआला को प्रजनन उम्र में यह टीका दिया गया, उनमें लक्षण विकसित होने की संभावना बहुत कम पाई गई।

आगे का रास्ता

अब जबकि इस टीके को आधिकारिक मंजूरी मिल गई है, इसे ऑस्ट्रेलिया की स्वतंत्र कंपनी बड़े पैमाने पर उत्पादन करेगी। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सभी कोआला आबादी तक पहुंचने के लिए अब भी बड़े पैमाने पर फंडिंग और दान की आवश्यकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तो बस शुरुआत है। उन्हें अब भी उत्पाद को और बेहतर बनाने और लंबे समय तक इसके असर को सुनिश्चित करने के लिए शोध जारी रखना होगा।

कोआला न केवल ऑस्ट्रेलिया का प्रतीक हैं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्राकृतिक धरोहर हैं। लेकिन क्लैमाइडिया जैसी बीमारी ने उन्हें विलुप्ति के कगार पर पहुंचा दिया था। अब यह वैक्सीन उन्हें नया जीवन देने वाली साबित हो सकती है। यह सिर्फ कोआला के लिए ही नहीं, बल्कि भविष्य में अन्य जंगली प्रजातियों को बचाने की दिशा में भी एक वैश्विक मॉडल बन सकता है।