लच्छू लाल गोंड का लंबे समय तक टीबी का इलाज चलता रहा। 2022 में पता चला कि उन्हें टीबी नहीं, सिलिकोसिस है। सभी फोटो : विकास चौधरी  
स्वास्थ्य

ग्राउंड रिपोर्ट: गलत इलाज से तिल-तिल मरते सिलिकोसिस पीड़ित

सरकार जीते जी कोई आर्थिक मदद नहीं देती, मरने पर परिवार को 3 लाख रुपए की मदद का प्रावधान है

Bhagirath

“मैं पिछले कई सालों से सिलिकोसिस नामक लाइलाज बीमारी से पीड़ित हूं और ज्यादातर समय बीमार रहता हूं। मेरे घर में 18 साल की लड़की है। पैसों की कमी के कारण मैंने उसकी पढ़ाई भी छुड़वा दी। इस वर्ष मेरी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है। फसल उगाने तक के पैसे नहीं है। मजदूरी करने में भी असमर्थ हूं। मैं अपनी जमीन का एक एकड़ हिस्सा बेचना चाहता हूं ताकि अपना और अपनी बच्ची का भरण पोषण कर सकूं।”   

बडौर निवासी प्यारेलाल को 2011 पता चला था कि उन्हें सिलिकोसिस है। इससे पहले उनकी कई साल तक टीबी की दवा चलती रही।

यह उस पत्र का हिस्सा है जो पैंतालीस साल के दुबले-पतले आदिवासी लच्छू लाल गौंड ने 24 सितंबर 2024 को मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के जिला कलेक्टर लिखा था। लच्छू पन्ना टाइगर रिजर्व के बफर जोन में आने वाले बडौर गांव के रहने वाले हैं। इस क्षेत्र में आदिवासियों को जमीन बेचने की मनाही होने के कारण उन्होंने कलेक्टर से विशेष आग्रह किया है। उनके सभी कागजात तहसीलदार कार्यालय में जमा हैं। कार्यालय ने उन्हें बैंक से अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) लाने को कहा है लेकिन एक लाख रुपए का लोन होने के कारण बैंक उन्हें एनओसी नहीं दे रहा है। बेहद गरीबी में जी रहे लच्छू ने कलेक्टर से विनती की है कि उनकी जमीन बिकवाने की व्यवस्था की जाए।

लच्छू के पिछले आठ साल अस्पतालों के चक्कर काटते हुए बीते हैं। वह अपने इलाज पर सारी जमा पूंजी खर्च कर चुके हैं। अब उनके पास अस्पताल जाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। डाउन टू अर्थ को अपने इलाज के कागजों के ढेर दिखाते हुए वह बताते हैं कि पिछले आठ सालों में वह पांच से छह लाख रुपए खर्च कर चुके हैं। वह जानते हैं कि उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी नहीं है। उनकी उम्र के अधिकांश सिलिकोसिस पीड़ित दुनिया छोड़कर जा चुके हैं। लेकिन फिर भी वह अपनी सांसों को कुछ और समय तक खींचने के लिए पूरी जद्दोजहद कर रहे हैं।

60 साल की कस्तूरा ने 2018 में अपने पति श्यामलिया को सिलिकोसिस के चलते खो दिया। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें 3 लाख रुपये की आर्थिक सहायता मिली

लच्छू ने 17 साल तक एक निजी खदान में काम किया है। वह खदान से पत्थर निकालने के लिए उसमें छेद करते थे। इससे धूल उनकी सांसों के जरिए सीधे फेफड़ों तक पहुंचती रही। 2016 में तकलीफ होने पर सबसे पहले छतरपुर के नौगांव स्थित टीबी अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों ने उनका टीबी का इलाज शुरू कर दिया। इस अस्पताल की दवाएं वह एक साल तक खाते रहे। दवाओं से उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि हालात और बिगड़ गई। 2016 से 2022 तक कभी छतरपुर, कभी रीवा, कभी झांसी तो कभी पन्ना के अस्पतालों द्वारा दी गई टीबी की दवाएं वह खाते रहे। 2022 में उन्होंने झांसी के एक अस्पताल में जांच कराई तो चला कि उन्हें टीबी नहीं सिलिकोसिस है। इस बीमारी के असर से लच्छू को चलने, सांस लेने और खाना खाने में दिक्कत होती है। अक्सर खाते वक्त वह खून की उल्टियां करने लगते हैं।

मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सिलिकोसिस पीड़ितों को जीते जी कोई आर्थिक मदद नहीं मिलती, वह केवल मरने पर 3 लाख रुपए की एकमुश्त मदद करती है। लच्छू जैसे उनके गांव में कई सिलिकोसिस पीड़ित है जो मरने की बाट जोह रहे हैं ताकि उनके परिवार को जीते जी न सही, मरने पर ही कुछ फायदा पहुंचे।

बडौर में सिलिकोसिस से प्रमाणित भले ही 4 लोग जिंदा हों, लेकिन मनीराम जैसे करीब 15 लोग बीमारी से जूझ रहे हैं, जो टीबी की दवा से ठीक नहीं हुए हैं

बडौर गांव में चार लोग सिलिकोसिस से पीड़ित हैं, जो इस बीमारी से प्रमाणित हुए हैं। 55 साल के प्यारेलाल साहू भी इनमें से एक हैं। डाउन टू अर्थ से बात करने के दौरान वह अक्सर खांसते रहे। लच्छू की तरह उनकी भी 2004 से 2009 तक टीबी की दवा चलती रही। 2011 में पन्ना जिले में पृथ्वी ट्रस्ट की ओर से लगाए गए पहले स्वास्थ्य शिविर में उनमें सिलिकोसिस की पुष्टि हुई। तीन दिन तक चले इस कैंप में कुल 43 लोगों की जांच की गई थी जिसमें से 39 लोग सिलिकोसिस से जूझते पाए गए।

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि जिले में अनगिनत लोग सिलिकोसिस से अपनी जान गवां बैठे होंगे। बडौर गांव में भले ही इस बीमारी से प्रमाणित केवल चार लोग हैं लेकिन हूबहू ऐसे लक्षणों वाले मरीजों की संख्या अनगिनत है जिन पर लच्छू और प्यारेलाल की तरह टीबी की दवाएं बेअसर हैं। ये लोग टीबी की दवाओं का कई कोर्स पूरे कर चुके हैं।

छतरपुर जिले के नौगांव में स्थित टीबी अस्पताल जहां ज्यादातर मरीजों का इलाज चलता है। फोटो : भागीरथ

करीब 15 साल तक पत्थर की खदान में काम कर चुके प्यारेलाल दवाओं पर हर महीने करीब 2,000 रुपए खर्च करते हैं। वह मानते हैं कि उनकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है लेकिन दवाओं से दर्द में कुछ राहत मिल जाती है।  

20 साल तक खदान में करने कर चुके बडौर निवासी 40 साल के मनीराम भले ही सिलिकोसिस पीड़ितों की सूची में शामिल नहीं है, लेकिन उनकी समस्याएं बिल्कुल प्यारेलाल जैसी ही हैं। मनीराम बताते हैं कि उनके जैसे गांव में करीब 15 लोग हैं जिनका टीबी का इलाज चल रहा है। दवाओं से उन्हें खास लाभ नहीं हो रहा है। जिब्बू और बाला आदिवासी ऐसे ही ग्रामीण हैं जो सालों साल से नौगांव के टीबी अस्पताल की दवाएं खा रहे हैं।

बडौर गांव में चारों तरफ पत्थर की सैकड़ों खदानें चलती थीं। गांव के सभी सिलिकोसिस पीड़ित इन खदानों में लंबे समय तक काम करने वाले हैं।

छतरपुर के लवकुशनगर में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के इंचार्ज डॉक्टर एसपी शाक्यवार मानते हैं कि 15 साल तक अगर कोई नियमित रूप से धूल भरी खदानों में काम करता है तो उसमें सिलिकोसिस की संभावना 50 प्रतिशत होती है। उनका कहना है कि कभी-कभी मरीज शिकायत करते हैं कि उन पर टीबी की दवा असर नहीं कर रही है। ऐसा अक्सर टीबी ड्रग्स रेजिस्टेंस के कारण होता है। ऐसी स्थिति में इलाज थोड़ा लंबा चल सकता है।

डाउन टू अर्थ यह जानने के लिए नौगांव स्थित टीबी अस्पताल पहुंचा कि क्या यहां सिलिकोसिस के मरीज आते हैं तो डॉक्टरों ने साफ कहा कि उनके यहां केवल टीबी के मरीजों का इलाज होता है और सिलिकोसिस की जांच की व्यवस्था अस्पताल में नहीं है। डाउन टू अर्थ ने जब डॉक्टरों को बताया कि यहां इलाज कराने वाले बहुत से कथित टीबी मरीजों में सिलिकोसिस का पुष्टि हुई है तो डॉक्टरों से इससे अनभिज्ञता जाहिर की। हालांकि अस्पताल के एक डॉक्टर ने बताया कि सिलिकोसिस के मामलों में मरीजों की वर्क हिस्ट्री काफी मायने रखती है। अगर उसने लंबे समय तक धूल भरी खदानों में काम किया है तो उसमें सिलिकोसिस का खतरा 60 प्रतिशत से अधिक होता है। यह स्थिति पन्ना में दशकों खदानों में काम कर चुके मजदूरों पर पूरी तरह लागू होती है।

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