18 दिसंबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को सभी जिलों में पवित्र उपवनों का सर्वेक्षण पूरा कर उन्हें अधिसूचित करने का निर्देश दिया है।
अदालत ने राज्य वन विभाग से जमीनी सर्वेक्षण और सैटेलाइट की मदद से प्रत्येक पवित्र उपवन की मैपिंग करने के लिए भी कहा है। गौरतलब है कि इन उपवनों को स्थानीय तौर पर ओरण, देव-वन, रुंध जैसे अन्य नामों से जाना जाता है।
वन विभाग से पहचाने गए उपवनों की विस्तृत ऑन-ग्राउंड मैपिंग करने के लिए भी कहा गया है। इसके साथ ही उन्हें 'वन क्षेत्र' के रूप में वर्गीकृत करने का भी निर्देश दिया गया है, जैसा की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की जून 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट में भी सिफारिश की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है यह वर्गीकरण वनों के आकार या विस्तार पर नहीं बल्कि उनके उद्देश्य और स्थानीय समुदाय के लिए उनके सांस्कृतिक और पारिस्थितिक महत्व पर निर्भर होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, राजस्थान ने जिलेवार अधिसूचनाओं के माध्यम से पवित्र उपवनों की पहचान और उन्हें वन के रूप में अधिसूचित करना शुरू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया को शुरू करने में काफी देरी हुई है।
राजस्थान के पवित्र उपवन, जो पारिस्थितिक रूप से बेहद समृद्ध हैं और स्थानीय संस्कृतियों में अत्यंत सम्मानीय हैं। ऐसे में इनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इन्हें औपचारिक रूप से तत्काल मान्यता देने और संरक्षण की आवश्यकता है।
गौरतलब है कि इस मामले में आवेदक अमन सिंह ने राजस्थान में 100 पवित्र उपवनों की सूची प्रस्तुत की है। न्यायालय ने कहा कि पहचान प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों को इस सूची पर विचार करना चाहिए, हालांकि यह "संपूर्ण नहीं है।"
इन पवित्र उपवनों के पारिस्थितिक और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए, उन्हें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत शामिल करने की सिफारिश की गई, तथा धारा 36-सी की मदद से इनके संरक्षण पर जोर दिया गया है, जो 'सामुदायिक रिजर्व' घोषित करने की अनुमति देती है। इससे इन क्षेत्रों को कानूनी सुरक्षा मिलेगी तथा जैव विविधता और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए उनके महत्व को मान्यता मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन पवित्र उपवनों या ओरण की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें सामुदायिक रिजर्व घोषित किया जाना चाहिए ताकि उनकी सुरक्षा की जा सके और भूमि उपयोग में हो रहे अवैध बदलाव को रोका जा सके। राज्य सरकार को स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर इनके पारिस्थितिक और सांस्कृतिक महत्व को संरक्षित करने के लिए काम करना चाहिए।
निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने के लिए, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) और राजस्थान वन विभाग को एक पांच सदस्यीय समिति का गठन करना चाहिए। इस समिति के अध्यक्षता हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज करेंगे, इस समिति में वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी और विशेषज्ञ शामिल होंगे।
समिति में एक विषय विशेषज्ञ, रिटायर्ड मुख्य वन संरक्षक, पर्यावरण मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी और राजस्थान के वन और राजस्व विभागों से एक-एक वरिष्ठ अधिकारी शामिल होंगें। केंद्र और राजस्थान सरकार संयुक्त रूप से समिति की शर्तों और नियमों को अंतिम रूप देंगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने पवित्र उपवनों को स्थाई रूप से संरक्षित करने और उनके संरक्षण से जुड़े समुदायों को सशक्त बनाने के लिए भी सुझाव दिए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि उन पारंपरिक समुदायों की पहचान की जाए, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से इन पवित्र वनों की रक्षा की है। साथ ही इन क्षेत्रों को वन अधिकार अधिनियम के तहत 'सामुदायिक वन संसाधन' के रूप में नामित किया जाए। इन समुदायों ने संरक्षण के लिए मजबूत सांस्कृतिक और पारिस्थितिक प्रतिबद्धता दिखाई है, और संरक्षक के रूप में उनकी भूमिका को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी जानी चाहिए।
वन अधिकार अधिनियम की धारा पांच के तहत, इन समुदायों को ग्राम सभाओं और स्थानीय समूहों के साथ मिलकर वन्यजीवों, जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें पहुंच को नियंत्रित करने और हानिकारक गतिविधियों को रोकने की अनुमति देने से संरक्षण में उनकी भूमिका को बनाए रखने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्थाई सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय को ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनाने चाहिए जो इन समुदायों के अधिकारों की रक्षा करें और उन्हें वन संरक्षण प्रयासों में शामिल किया जाना चाहिए।
अदालत ने की पिपलांत्री मॉडल की सराहना
अदालत ने पिपलांत्री मॉडल की सराहना करते हुए कहा कि यह पिपलांत्री गांव जैसे मॉडल दिखाते हैं कि कैसे समुदाय द्वारा संचालित प्रयास सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से मिलकर निपट सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के पिपलांत्री मॉडल की भी सराहना की है, पिपलांत्री गांव में हर लड़की के जन्म पर 111 पेड़ लगाए जाते हैं। पीठ ने गांव के "दूरदर्शी" सरपंच श्याम सुंदर पालीवाल द्वारा की गई पहल की सराहना करते हुए कहा कि, "इस पहल ने न केवल गांव बल्कि आस-पास के इलाकों में भी पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम किया।"
पिपलांत्री मॉडल के कई सकारात्मक प्रभाव सामने आए हैं। पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण 40 लाख से अधिक पेड़ लगाए गए, जिससे भूजल स्तर करीब 800 से 900 फीट ऊपर उठा है। साथ ही तापमान में तीन से चार डिग्री की गिरावट आई है। इन प्रयासों ने स्थानीय जैव विविधता को बचाने में भी मदद की है। साथ ही इसकी वजह से मिट्टी के कटाव और बढ़ती मरुभूमि से बचाया जा सका है।
ऐसे में सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कार्रवाई करने की आवश्यकता है कि इन विचारों को लागू किया जाए और पूरे देश में फैलाया जाए ताकि सतत विकास और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जा सके।
अदालत ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता देकर, सहायक नीतियां बनाकर तथा सक्रिय कदम उठाकर इन मॉडलों का समर्थन करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सतत विकास और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए इन विचारों को देश के अन्य भागों में भी लागू किया जाए।
इसके साथ ही केन्द्र और राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करके, सहायक नीतियां बनाकर तथा समुदायों को तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान करके इन मॉडलों का समर्थन करना चाहिए।
अदालत ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को पवित्र उपवनों के प्रबंधन और संचालन के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति बनाने की भी सलाह दी है।
इस नीति के एक हिस्से के रूप में, पर्यावरण मंत्रालय को पवित्र उपवनों के राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के लिए एक योजना बनानी चाहिए, फिर चाहे उनका स्थानीय नाम कुछ भी हो। सर्वेक्षण में उनके क्षेत्र, स्थान, आकार की पहचान होनी चाहिए और उनकी सीमाओं को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन वनों की प्राकृतिक वृद्धि और विस्तार के लिए सीमाएं लचीली होनी चाहिए, लेकिन साथ ही कृषि गतिविधियों, बस्तियों, वनों की कटाई या अन्य कारणों से आकार में आने वाली कमी को रोकने के लिए सख्ती के साथ संरक्षण की आवश्यकता है।