प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक 
जंगल

मध्य भारत के खंडवा और उत्तर बैतूल के जंगलों में अधिक है आग लगने का खतरा

Shimali Chauhan, Lalit Maurya

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इंदौर से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि मध्य भारत के खंडवा और उत्तरी बैतूल के जंगलों में आग लगने का जोखिम बहुत ज्यादा है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए इंसानी गतिविधियों के साथ-साथ प्राकृतिक कारणों को भी जिम्मेवार माना है।

अध्ययन में इस क्षेत्र के जंगलों में बढ़ते खतरे को लेकर बेहद चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है, जिसके मुताबिक खंडवा के करीब 45 फीसदी जबकि उत्तरी बैतूल के 50 फीसदी जंगल उन क्षेत्रों में हैं, जहां आग लगने का जोखिम बहुत ज्यादा है। गौरतलब है कि इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट से जुड़ी शोधकर्ता विभा साहू के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के नतीजे 14 अगस्त 2024 को जर्नल एनवायरनमेंटल मॉनिटरिंग एंड असेसमेंट में प्रकाशित हुए हैं।

हालांकि अपने अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने आग लगने की घटनाओं में मामूली वृद्धि देखी है। इस दौरान जहां खंडवा में पहले के मुकाबले तीन घटनाएं अधिक दर्ज की गई। वहीं उत्तरी बैतूल के जंगलों में सालाना आग की घटनाओं में एक की वृद्धि दर्ज की गई है।

शोध में यह भी सामने आया है कि खंडवा में, उच्च जोखिम वाले ज्यादातर क्षेत्र उत्तर और दक्षिण-पूर्वी भागों में मौजूद हैं, जिनमें खालवा, पूर्वी कालीभीत, पश्चिमी कालीभीत, चांदगढ़ और आंवलिया शामिल हैं। वहीं उत्तरी बैतूल के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में आग लगने का जोखिम ज्यादा है, इनमें शाहपुर, बैतूल, सारनी और भौरा के हिस्से शामिल हैं।

अध्ययन में आग लगने की घटनाओं के स्पष्ट समूह सामने आए हैं, जो दर्शाते हैं कि कुछ क्षेत्र वहां की वनस्पति, परिदृश्य और मानवीय गतिविधियों जैसे कारकों के कारण आग को लेकर कहीं ज्यादा संवेदनशील होते हैं। उदाहरण के लिए, सड़कों के नजदीक और घने जंगलों में आग लगने का खतरा कहीं अधिक होता है।

खंडवा के सागौन के जंगलों में कहीं अधिक है आग लगने का खतरा

अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि बैतूल के मिश्रित प्रजाति के जंगलों की तुलना में खंडवा के सागौन के जंगलों में आग लगने का जोखिम कहीं अधिक है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यहां रहने वाले स्थानीय समुदाय महुआ के फूल और तेंदू पत्ते जैसे वन संसाधनों को इकट्ठा करते हैं। हालांकि, उनके संग्रह के तरीके, जिसमें झाड़ियों को जलाना भी शामिल है। इसकी वजह से वो अनजाने में ही सही लेकिन आग के खतरे को बढ़ा सकते हैं।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने इन क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए दावाग्नि के प्रबंधन से जुड़ी योजनाओं की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है।

अध्ययन में पिछले 22 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। विभा और उनके साथी शोधकर्ता मोहम्मद अमीन खान और ओमप्रकाश डी. मडगुनी ने आग की निगरानी करने और उसका मैप तैयार करने के लिए मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (मोडिस) उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग किया है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में आग लगने के जोखिमों का अनुमान लगाने और क्षेत्रों को जोखिम के पांच स्तरों में वर्गीकृत करने के लिए विशेष प्रकार के मॉडल की भी मदद ली है। इसका उद्देश्य यह समझना था कि आग कैसे और कहां शुरू होती है और कितनी दूर तक फैल सकती है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने किन क्षेत्रों में आग का जोखिम सबसे अधिक है, उसको दर्शाने के लिए मैप भी तैयार किए हैं। शोधकर्ताओं को भरोसा है कि यह जानकारी नीति निर्माताओं को प्रकृति और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बेहतर योजनाएं तैयार करने में मदद कर सकती है।

इन उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करके, नीति निर्माता और वन प्रबंधक आग को रोकने और नियंत्रित करने के लिए बेहतर रणनीतियां बना सकते हैं। इससे जंगल और उनपर निर्भर समुदाय दोनों सुरक्षित रहेंगे।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता विभा साहू का कहना है कि, "खंडवा में आग लगने का जोखिम अधिक है। इसका मतलब है कि हमें आग के जोखिम को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिए सावधानीपूर्वक योजना बनाने और संसाधनों का उपयोग करने की आवश्यकता है।"