भारत में भोजन की एक थाली में 1207 ग्राम खाद्य सामग्री होना चाहिए। फोटो: विकास चौधरी 
खान-पान

भारत में खाद्य महंगाई को जलवायु परिवर्तन ने बनाया 'लाइलाज बीमारी'

Richard Mahapatra

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अगस्त 2024 के बुलेटिन में इसके डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा और उनके दो सहयोगियों, जॉइस जॉन और आशीष थॉमस जार्ज ने बताया कि जलवायु परिवर्तन कैसे खाद्य-पदार्थों के दाम बढ़ने में कारगर भूमिका निभा रहा है।

उनका बयान चिंताजनक है, क्योंकि यह दर्शाता है कि खाद्य-पदार्थों की कीमतें, उनकी आपूर्ति में आने वाली बाधाओं की वजह से ज्यादा बढ़ रही हैं और इन बाधाओं का कारण है - खराब मौसम और चरम मौसम की घटनाएं।

यानी कि कीमतों को निर्धारित करने का मांग और आपूर्ति का पुराना फार्मूला अब कारगर नहीं रह गया है, जिसमें उत्पादन और उपभोग की प्रभावी भूमिका होती थी। इसके बजाय अब, जलवायु परिवर्तन, फसलों के उत्पादन पर और इस तरह उनकी आपूर्ति पर असर डाल रहा है। जैसा कि इस शोध में इसे कहा गया है कि इसने भारत में खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ने को ‘लाइलाज’ बीमारी बना दिया है।

यह एक नई हकीकत है और इसे मूल्य नियंत्रित करने वाली पुरानी सुस्थापित विधियों से संभाला नहीं जा सकता है। इसके साथ ही यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन, मांग और आपूर्ति के क्षेत्र में एक नई बाधा है, जिसके दो प्रभाव हैं - पहला यह उत्पादको यानी किसानों खासकर छोटे और मझोले किसानों, जो भारत की बड़ी गरीब आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर असर डालता है और दूसरे यह कि खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ने से लोग बढ़िया गुणवत्ता वाली चीजें खा-पी नहीं पाते, जो अंततः उनके पोषण पर असर डालता है।

पात्रा का शोध यह बात सामने लाता है कि हाल के दशकों में जलवायु से संबंधित घटनाएं खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ने की मुख्य वजह बन गई हैं। 2016-2020 की अवधि में औसत खाद्य मुद्रास्फीति 2.9 फीसदी थी। यह 2020 में दोगुने से ज्यादा बढ़कर औसतन 6.3 फीसदी हो गई। शोध के मुताबिक, ‘ हाल के समय में इस त्रीव विचलन में एक प्रमुख वजह जलवायु की कई घटनाओं का अतिव्यापी होना रहा है। इन घटनाओं ने मानसून के फैलने और उसके वितरण पर असर डाला है और इनसे तापमान भी बढ़ा जिसका असर फसलों की वृद्धि पर पड़ा है।

एक तरफ 2020 के दशक को सामान्य मानसून के तौर पर चिन्हित किया गया है, वहीं यह रिपोर्ट ‘अत्यधिक तिरछे’ के रूप में पहले से पहचाने जाने वाले मानसून के वितरण की ओर इशारा करती है। शोध के निष्कर्ष के मुताबिक, व्यापक आधार वाली और पिछले चार साल से जारी स्थायी खाद्य-महंगाई ने इस सुविधाजनक धारणा को झुठला दिया है कि किसी खास फसल या स्थानीय कारक की वजह से खाद्य-पदार्थो ंकी कीमतें बढ़ रही हैं।

खाद्य-महंगाई पिछले चार साल में लगभग सार्वभौमिक हो गई है। उदाहरण के लिए, पिछले 48 महीनों (जून 2020-जून 2024) में से 57 फीसदी महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति 6 फीसदी से ऊपर दर्ज की गई थी। ऐसा आपूर्ति में लगातार आने वाली बाधाओं की वजह से हो रहा है। जैसा कि अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु कारक खाद्य-महंगाई को बढ़ाते हैं और इसमें कोई शक नहीं है कि ये कारक क्षणभंगुर प्रकुति के हैं। यही वह स्थिति है, जिसमें खाद्य-महंगाई ‘स्थानीय या विशेष क्षेत्र में फैलने वाली’ बीमारी बन गई है।

फोटो साभार : सीएसई

इससे पहले, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के शोधकर्ताओं ने कहा था कि ग्लोबल वार्मिंग से निश्चित रूप से महंगाई बढ़ेगी और यह भारत सहित विशेष रूप से विकासशील देशों में नियंत्रण से बाहर हो सकती है।

इसका असर इराक, माली, मॉरिटानिया और सऊदी अरब जैसे देशों में ज्यादा साफ दिखेगा। जहां तक भारत का सवाल है, यहां 2035 तक खाद्य मुद्रास्फीति 2 फीसदी और समग्र मुद्रास्फीति 1 फीसदी बढ़ जाएगी।

दुनिया 2021 से ‘जीने की कीमत के संकट’ के बारे में बात कर रही है। जीने के लिए जरूरी दूसरी अन्य चीजो के अलावा इस संकट के केंद्र में जलवायु परिवर्तन और और उसके फलस्वरूप बढ़ी खाद्य मुद्रास्फीति है। ‘जीने की कीमत के संकट’ ने लोगों को कम खाने के लिए मजबूर कर दिया है क्योंकि वे ज्यादा खाने की कीमत चुका नहीं सकते।

यह अंततः उनके पोषण के स्तर और स्वास्थ्य में आई गिरावट के रूप में दिखता है। जिसे ‘पोषक खुराक’ कहा जाता है, लोग उसकी कीमत चुका पाने में सक्षम नहीं हैं।

कुछ किस्सों को छोड़कर ऐसे अध्ययनों की बहुत कमी है, जो इसकी जांच करते हैं कि खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ने का गरीबी के स्तर पर क्या असर पड़ता है। भारत के मामले में, जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से फसलों की बड़े पैमाने पर बर्बादी होती है, जिसका असर किसानों की आय पर पड़ता है।

इसके साथ ही यह उन किसानों के खुद के खाने के लिए अनाज की उपलब्धता पर भी असर डालेगा। जो लोग खाने की चीजें खरीदते हैं, उसकी बढ़ी हुईं कीमतें उन्हें पर्याप्त मात्रा में पोषक खुराक लेने से रोकेंगी। खासकर उन लोगों को जो पहले से ही आर्थिक तौर पर वंचित समूह में शामिल हैं।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के सीनियर रिसर्च फेलो, डेरेक हेडे और मैरी रुएल ने अनुमान लगाया है कि खाद्य मुद्रास्फीति के कारण 24 से 59 महीने के बच्चों का विकास बाधित हो गया है।

उनका निष्कर्ष है कि - ‘जीवन के पहले एक हजार दिनों , यानी गर्भधारण से लेकर दो साल की उम्र तक में, पोषण में होने वाली थोड़ी कमी भी बच्चों की वृद्धि पर असर डल सकती है, यहां तक कि उनके बड़े होने तक भी इसका असर रहता है।

हमने पाया है कि गर्भधारण से पहले के समय खाद्य-पदार्थों की कीमतों में 5 फीसदी की वृद्धि से नवजात बच्चों व शिशुओं का विकास सामान्य तौर पर बाधित होने का खतरा 1.6 फीसदी और गंभीर तौर पर बाधित होने का खतरा 2.4 फीसदी बढ़ जाता है।’