सुप्रीम कोर्ट ने वनशक्ति जजमेंट को पलटते हुए पोस्ट-फैक्टो पर्यावरण मंजूरी को राहत दी है। अब केंद्र सरकार उन प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दे सकेगी, जिन्हें पहले पर्यावरणीय स्वीकृति नहीं मिली थी।
चीफ जस्टिस गवई और जस्टिस चंद्रन ने बहुमत में फैसला दिया, जबकि जस्टिस भुयान ने असहमति जताई।
मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई का कहना है कि पहले से पूरी हो चुकी परियोजनाओं को तोड़ना जनहित में नहीं है। इससे कीमती सार्वजनिक संसाधनों को कचरे में फेंकने जैसा नुकसान होगा।
जस्टिस विनोद चंद्रन ने कहा कि सिर्फ पहले पर्यावरण मंजूरी लेने के लिए पहले से बने ढांचों को गिराना न केवल अनावश्यक कठिनाइयां पैदा करेगा, बल्कि साथ ही इससे निकलने वाला मलबा पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि इस मलबे का दोबारा उपयोग मुश्किल होगा। इससे संसाधनों की बर्बादी के साथ-साथ राजस्व को भी भारी नुकसान होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने 18 नवंबर 2025 को 2:1 के बहुमत से अपने मशहूर ‘वनशक्ति’ फैसले को वापस ले लिया, जिसमें पोस्ट-फैक्टो (बाद में मिलने वाली) पर्यावरण मंजूरियों पर रोक लगा दी गई थी। इसके साथ ही अब केंद्र सरकार उन सभी प्रोजेक्ट्स को क्लियरेंस दे सकेगी, जिन्हें परियोजना शुरू होने से पहले पर्यावरण मंजूरी नहीं मिली थी।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच द्वारा लिया गया है जिसमें चीफ जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस उज्जल भुयान शामिल थे। बेंच में जहां चीफ जस्टिस गवई और जस्टिस चंद्रन बहुमत में थे, जबकि जस्टिस भुइयां जो 2024 में वनशक्ति फैसला देने वाली बेंच में शामिल थे, उन्होंने इस पर असहमति जताते हुए अलग मत रखा।
पोस्ट-फैक्टो पर्यावरण मंजूरी का अर्थ है किसी परियोजना को पहले शुरू कर देना या लगभग पूरा कर देना और उसके बाद में पर्यावरण मंजूरी लेना। यानी निर्माण और कामकाज पहले शुरू हो जाता है, जबकि मंजूरी बाद में ली जाती है।
इस तरीके पर इसलिए विवाद है क्योंकि इससे परियोजना के शुरुआती चरण में पर्यावरण पर असर की सही जांच नहीं हो पाती और नुकसान होने के बाद उसे रोकना मुश्किल हो जाता है। पर्यावरण कानूनों के अनुसार किसी भी बड़े प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले पर्यावरणीय मंजूरी लेना आवश्यक है, यही वजह है कि पोस्ट-फैक्टो मंजूरी को नियमों के खिलाफ माना जाता है।
स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) की ओर से अदालत में पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि सेल का प्रोजेक्ट 2021 के ऑफिस मेमोरेंडम के आधार पर शुरू हुआ था और सभी प्रक्रियात्मक आवश्यकताएं, जैसे कि पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए), पूरी हो चुकी थीं। परियोजना अब पर्यावरण मंजूरी मिलने के अंतिम चरण में होने के बावजूद वनशक्ति फैसले के कारण मंजूरी नहीं मिल पा रही। इसकी वजह से सार्वजनिक खजाने को भारी नुकसान हो सकता है।
जनहित में नहीं पूरी हो चुकी परियोजनाओं को तोड़ना: मुख्य न्यायाधीश गवई
तुषार मेहता ने यह भी बताया कि इसी तरह ओड़िशा में 962 बेड वाला एम्स हॉस्पिटल का निर्माण भी वनशक्ति फैसले (जीयूआर) की वजह से प्रभावित हो रहा है। उन्होंने कहा कि इमारत का निर्माण पूरा हो चुका है और सभी जरूरी प्रक्रियाएं पूरी हो चुकी हैं, ईआईए हो चुका है, और अब यह परियोजना पर्यावरण मंजूरी मिलने के अंतिम चरण में है।
कर्नाटक की ओर से पेश वकील कपिल सिब्बल ने विजयनगर के ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट का उदाहरण देते हुए कहा कि एयरपोर्ट का निर्माण पूरा हो चुका है, लेकिन वनशक्ति फैसले के कारण अब इसे तोडना पड़ सकता है।
इस मामले में मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई का कहना है कि पहले से पूरी हो चुकी परियोजनाओं को तोड़ना जनहित में नहीं है। इससे कीमती सार्वजनिक संसाधनों को कचरे में फेंकने जैसा नुकसान होगा।
जस्टिस विनोद चंद्रन का कहना है सिर्फ पहले पर्यावरण मंजूरी लेने के लिए पहले से बने ढांचों को गिराना न केवल अनावश्यक कठिनाइयां पैदा करेगा, बल्कि साथ ही इससे निकलने वाला मलबा पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि इस मलबे का दोबारा उपयोग मुश्किल होगा। इससे संसाधनों की बर्बादी के साथ-साथ राजस्व को भी भारी नुकसान होगा।
उनका आगे कहना है कि, “इस नियम को बहुत सख्ती से लागू करना उलटा नुकसान करेगा, खासकर उनके लिए जिन्होंने ढील के आधार पर अपनी परियोजनाएं आगे बढ़ाई थीं।“
दूसरी तरफ न्यायमूर्ति उज्जल भुयान ने इस पर असहमति जताते हुए कहा कि सावधानी का सिद्धांत पर्यावरण कानून का बुनियादी आधार है। ‘प्रदूषक भुगतान करे’ महज नुकसान की भरपाई का सिद्धांत है, लेकिन इसकी आड़ में सावधानी के सिद्धांत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
क्या है पूरा मामला
गौरतलब है कि समीक्षा याचिका में सुप्रीम कोर्ट के 16 मई 2025 के उस आदेश को वापस लेने की मांग की गई थी, जो 'वनशक्ति बनाम भारत सरकार' के मामले में दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2025 को 'वनशक्ति बनाम भारत सरकार' के मामले में कहा था कि 2017 की अधिसूचना और 2021 के ऑफिस मेमोरेंडम के तहत कुछ मामलों में पोस्ट-फैक्टो पर्यावरण मंजूरियां दी गई थीं, और जो मंजूरियां पहले ही दी जा चुकी हैं उन्हें छेड़ा नहीं जाना चाहिए।
हालांकि साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 2017 की अधिसूचना, 2021 का ऑफिस मेमोरेंडम, और इन्हें लागू करने के लिए जारी सभी आदेश, सर्कुलर और नोटिफिकेशन गैरकानूनी हैं और इन्हें रद्द किया जाता है।
अपने इस आदेश में जस्टिस अभय ओका और जस्टिस उज्जल भुयान की बेंच ने कहा था कि कोई भी खनन और विकास परियोजना बिना पर्यावरण मंजूरी लिए शुरू नहीं हो सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में केंद्र सरकार पर यह रोक लगा दी थी कि वह आगे से कोई भी सर्कुलर, आदेश, ऑफिस मेमोरेंडम या नोटिफिकेशन जारी न करे जो पोस्ट-फैक्टो पर्यावरण मंजूरी देने या ईआईए नियमों के उल्लंघन को नियमित करने की अनुमति देता हो।