वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका के दूर-दराज के क्षेत्रों में प्लास्टिक के महीन कणों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। गौरतलब है कि प्लास्टिक के इन महीन कणों को माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जाना जाता है। यह कण आकार में पांच मिलीमीटर से भी छोटे हो सकते हैं।
इन निर्जन क्षेत्रों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी इस बात का सबूत है कि प्लास्टिक कचरा अब पूरी दुनिया पर हावी हो चुका है, जिससे दूर-दराज के क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं हैं। हालांकि प्लास्टिक का इस तरह पाया जाना कोई नई बात नहीं है। पहले भी हिमालय के उंचें पहाड़ों से लेकर समुद्र की गहराइयों तक में प्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत मिले चुके हैं।
लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक यह पहली बार है जब प्लास्टिक के इतने महीन कणों को दूरदराज के क्षेत्र में खोजा गया है।
इनकी मौजूदगी को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने एल्सवर्थ पर्वत के पास यूनियन और शैन्ज ग्लेशियर पर स्थित अनुसंधान शिविरों के आसपास तथा दक्षिणी ध्रुव पर, जहां अमेरिकी अंटार्कटिक कार्यक्रम का अनुसंधान केंद्र है, वहां मौजूद बर्फ का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुए हैं।
वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका की बर्फ में माइक्रोप्लास्टिक्स के इतने महीन कणों को खोजने के लिए एक नई विधि का उपयोग किया है। निष्कर्ष दर्शाते हैं कि यह पहली बार है जब अंटार्कटिका की बर्फ में 11 माइक्रोमीटर जितने छोटे प्लास्टिक के कण मिले हैं।
अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों को प्रति लीटर बर्फ में माइक्रोप्लास्टिक के 73 से 3,099 कण मिले हैं, जहां इनका इतनी बड़ी तादाद में पाया जाना वाकई हैरान कर देने वाला है।
इनमें से प्लास्टिक के ज्यादातर कण (95 फीसदी) आकार में 50 माइक्रोमीटर से भी छोटे थे, जो करीब-करीब मानव कोशिकाओं के बराबर हैं। इससे पता चला है कि पिछले शोधों में कई माइक्रोप्लास्टिक्स की पहचान नहीं हो पाई होगी, क्योंकि उस समय प्लास्टिक की पहचान के उपयोग की गई तकनीकें उतनी उन्नत नहीं थी।
पहले वैज्ञानिकों को प्लास्टिक के टुकड़ों और रेशों का अध्ययन करने के लिए उन्हें हाथ से चुनना पड़ता था। वहीं नई तकनीकी में बर्फ को पिघलाया जाता है, उसे एक फिल्टर से गुजारा जाता है, और फिर इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी का उपयोग करके स्कैन किया जाता है। इसकी मदद से 11 माइक्रोमीटर से बड़े किसी भी प्लास्टिक की पहचान की जा सकती है।
ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे की वैज्ञानिक डॉक्टर एमिली रोलैंड्स ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, "नई तकनीकों की मदद से अब हम पहले की तुलना में बहुत छोटे माइक्रोप्लास्टिक की भी पहचान कर सकते हैं। वास्तव में हमें बर्फ में पहले के अध्ययनों की तुलना में 100 गुणा अधिक प्लास्टिक के महीन कण मिले हैं।“
इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने तीन जगहों से बर्फ के नमूने एकत्र किए थे। इन नमूनों में शोधकर्ताओं को पॉलीमाइड, पीईटी, पॉलीइथिलीन और सिंथेटिक रबर जैसे प्लास्टिक के कण मिले हैं। बता दें कि पॉलीमाइड को कपड़ों में इस्तेमाल किया जाता है, वहीं पीईटी का बोतलों और पैकेजिंग में बड़े पैमाने पर उपयोग होता है।
इनमें से आधे से ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक पॉलीमाइड थे, जो शोध शिविरों के पास पाए गए, हालांकि दूरदराज के क्षेत्रों में नहीं मौजूदगी नहीं देखी गई। शोधकर्ताओं के मुताबिक इसका मतलब है कि पॉलीमाइड के लिए स्थानीय स्रोत जिम्मेवार हो सकते हैं। यह कपड़ों, रस्सियों या शिविर के आसपास सुरक्षित रास्तों को चिह्नित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले झंडों से आ सकता है।
इंसानी प्रभाव से अछूता नहीं धरती का कोई भी हिस्सा
क्या यह माइक्रोप्लास्टिक स्थानीय है, या लंबी दूरी तय कर अंटार्कटिका तक पहुंच रहा है, यह समझने के लिए शोधकर्ताओं ने और अधिक शोध की आवश्यकता जताई है। उनके मुताबिक इसकी मदद से अंटार्कटिका जैसे निर्जन स्थानों पर बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी।
हालांकि वैज्ञानिक अभी भी यह पता लगाने में लगे हैं कि माइक्रोप्लास्टिक अंटार्कटिका को कैसे प्रभावित कर रहे हैं। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि माइक्रोप्लास्टिक बर्फ द्वारा प्रकाश को परावर्तित करने और बर्फ कितनी तेजी से पिघल रही है, इसको प्रभावित कर सकते हैं। इतना ही नहीं माइक्रोप्लास्टिक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में भी फैल सकते हैं।
पहले ही पेंगुइन, सील और मछलियों में इनकी मौजूदगी के सबूत मिल चुके हैं। इतना ही नहीं हालिया अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक के यह कण कार्बन की उस मात्रा को भी कम कर सकते हैं, जिसे क्रिल जैसे जीवों द्वारा समुद्र तल पर पहुंचाया जाता है।
इतना ही नहीं हालिया शोधों से भी पता चला है कि इंसानी शरीर भी माइक्रोप्लास्टिक का घर बनता जा रहा है। वैज्ञानिकों को इंसानी रक्त, दूध, प्लेसेंटा, से लेकर शरीर के अन्य अंगों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के सबूत मिले हैं।
वहीं एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों को डॉल्फिन की सांसों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं।
वहीं पहले किए गए एक अन्य शोध में न्यूजीलैंड के कैंटरबरी विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका में 19 अलग-अलग जगहों से ताजा गिरी बर्फ के नमूने एकत्र किए थे, जिनमें से सभी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता चला था। इन नमूनों में 13 अलग-अलग प्रकार के प्लास्टिक की मौजूदगी का पता चला है, जिसमें सबसे आम पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (या पीईटी) था।
माइक्रोप्लास्टिक न केवल इंसानी स्वास्थ्य बल्कि पर्यावरण के लिए भी बड़ा खतरा हैं। जो जीवों के विकास, प्रजनन के साथ-साथ उनके जैविक कार्यों को भी प्रभावित कर रहा है। इनका असर पूरे इकोसिस्टम पर पड़ रहा है। इतना ही नहीं व्यापक पैमाने पर हवा में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी बर्फ पिघलने की रफ्तार पर भी असर डाल रही है जो इसकी वजह से कहीं ज्यादा तेज हो जाती है। इस तरह प्लास्टिक के यह महीन कण जलवायु पर भी असर डाल रहे हैं।
देखा जाए तो इस अध्ययन के नतीजे इस कठोर वास्तविकता को उजागर करते हैं कि आज पृथ्वी का कोई भी हिस्सा बढ़ते इंसानी प्रभाव से अछूता नहीं है।
अंटार्कटिक जैसे निर्जन क्षेत्रों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी एक गंभीर समस्या को उजागर करती है। ऐसे में इस समस्या की जड़ तक पहुंचना जरूरी है, ताकि यह समझा जा सके कि कैसे बढ़ता प्लास्टिक पूरी दुनिया को लील रहा है।