छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के अमनटोला गांव में आदिवासी महिलाएं जलावन के लिए जंगल से लकड़ी ले जाते हुए (फोटो: अंकुर तिवारी)
पर्यावरण

संपन्न राज्य, विपन्न लोग-2: खनिज से छत्तीसगढ़ सरकार हुई अमीर, आदिवासी रहे गरीब के गरीब

नए राज्य के गठन के बाद सरकार के सामने कई चुनौतियां थीं। 25 वर्षों में छत्तीसगढ़ ने विकास की लंबी छलांग लगाई लेकिन धरातल पर अभी भी तरक्की की नई गाथा लिखे जाने का इंतजार है

Anil Ashwani Sharma

पहली कड़ी में आपने पढ़ा - संपन्न राज्य, विपन्न लोग-1: 25 साल बाद भी प्राकृतिक संसाधनों पर नहीं मिला हक

एक नवंबर 2025 को छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण की रजत जयंती समारोह में जब प्रधानमंत्री “नया रायपुर” में अपने भाषण में कहा, “हमारी सरकार ने आदिवासियों के लिए वन धन केंद्र के रूप में लघुवनोपज से अधिक कमाई के लिए नए अवसर बनाए हैं।” ठीक उसी समय भाषण स्थल से 87 किलोमीटर दूर बसे आदिवासी गांव जबर्रा (धमतरी जिला) के आदिवासी अपने गांव की काजल नदी पर एक कच्चा रप्टा (अस्थायी पुल) बनाने में जुटे हुए थे।

क्योंकि इस कच्चे रप्टे के निर्माण के बाद ही आदिवासी जंगलों से एकत्रित अपनी वनोपज को बेच पाएंगे। यह निर्माण कार्य कोई सरकारी विभाग द्वारा नहीं बल्कि ग्रामीण अपनी लघु वनोपज से कमाए गए पैसे आपस में एकत्रित कर रप्टे को पिछले 24 सालों से प्रतिवर्ष बनाते आ रहे हैं।

जबर्रा वन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष माधव सिंह मरकाम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हम इसके लिए जिले के संबंधित सभी विभागों के सामने पिछले ढाई दशक से हर साल धरना-प्रदर्शन करते आ रहे हैं, लेकिन कच्चे रप्टे का निर्माण अब तक हमारी समिति ही करवाती आ रही है।

वह बताते हैं कि हर बारिश में यह बाढ़ में बह जाता है। ग्राम वन प्रबंधन समिति के अनुसार इस पर हर बार 40 से 50 हजार रुपए का खर्च बैठता है। मरकाम कहते हैं कि साल के छह माह तक हम गांव के पास के बाजार में अपनी वनोपज नहीं ले जा पाते और हम सभी की आय आधी हो जाती है।

वन प्रबंधन समिति के अनुसार माह में वनोपज से 6,000 हजार रुपए प्रति व्यक्ति की कुल आय होती है। इसी गांव के रामबाहू ने बताया कि गांव में छह माह का खर्चा जंगल की उपज से चलता है। यहां कोई भी आदमी निजी क्षेत्र में काम नहीं करता है।

जबर्रा जैसे बड़े गांव में राज्य के निर्माण के बाद अब तक केवल एक आदमी को सरकारी नौकरी मिली है, वह भी चपरासी की अन्यथा सभी ग्रामीणों की आजीविका जंगल पर ही पूरी तरह से निर्भर है। ग्रामीण जंगल की उपज का केवल 20 प्रतिशत ही सरकार को बेचते हैं बाकि 80 फीसदी उपज हाट बाजार में जा कर बेचते हैं।

सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य जब बना तब राज्य में केवल 7 वनोपज की ही सरकारी खरीद होती थी। अब 2025 में यह संख्या बढ़कर 67 हो गई है। इस पर सवाल उठाते हुए अबूझमाड़ के आदिवासी ग्रामीण विकास संगठन के अध्यक्ष लक्ष्मण मंडावी ने कहा कि राज्य के निर्माण के 25 साल हो गए लेकिन अब तक सरकार हमें बाजार पहुंचने का रास्ता नहीं दे पाई।

ऐसे में जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के विकास की अवधारणा को परखें तो पाएंगे कि अब भी यहां की स्थिति जस की तह बनी हुई है। डाउन टू अर्थ ने अबूझमाड़ के 4 गांवों को दौरा किया। इन गांवों में सरकारी योजनाओं का केवल प्रवेश हुआ है।

किसी भी गांव में सड़क, पेयजल, बिजली, उज्जवला गैस, शौचालय या प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी मूलभूत योजनाएं मूर्त रूप में कहीं दिखाई नहीं पड़ती हैं। कंदाड़ी गांव के युवा आदिवासी मनकू गोंड ने बताया, “सड़क बनाने जैसी गतिविधियां हमारे गांव में 2024 में शुरू हुईं थीं लेकिन यह सड़क का स्वरूप नहीं ले पाईं।”

ध्यान रहे कि जंगलों व पहाड़ों के बीच हर पांच से दस कदम पर छोटे-बड़े नाले हैं और इस पर छोटी-छोटी पुलियों के निर्माण की जरूरत है। केवल इसी गांव में सड़क जैसी चीज दिखाई पड़ती है लेकिन वह भी कच्ची है।

हालांकि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत देशभर में बनाई की गई अधिकांश सड़कें पक्की बनाई गई हैं। सुकुमा जिले कोंटा विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने डाउन टू अर्थ से कहा, “हम आदिवासियों को बहुत चौड़ी सड़क की दरकार नहीं है हमारे लिए तो पगडंडीनुमा ही सड़क पर्याप्त है।” वहीं प्रधानमंत्री ने रजत जयंती समारोह में अपने भाषण में दावा किया कि राज्य में कुल 40 हजार किलोमीटर लंबी सड़कों का निर्माण पिछले 11 साल में हो चुका है।

छत्तीसबढ़ आर्थिंक सर्वेक्षण 2024-25 के अनुसार राज्य के 50 प्रतिशत गांवों की सीमाएं वनों के पांच किलोमीटर के परिधि में है और इन गांवों में आदिवासी अपनी आजीविका के लिए मुख्यत: वनों पर ही निर्भर हैं। सर्वेक्षण के अनुसार वनों से आदिवासियों को प्रतिवर्ष 2,000 करोड़ रुपए का लघु वनोपज प्राप्त होता है। जब राज्य का गठन हुआ था, तब तेंदुपत्ता के सौ पत्ते की कीमत 120 रुपए थी लेकिन अब यह बढ़कर 550 रुपए हो गई है।

इस बढ़ी हुई कीमत पर अबूझमाड़ के अमनटोला गांव के बुजुर्ग मंगड़ूराम मंडावी ने कहा कि हम मई माह की चिलचिलाती गर्मी में तेंदुपत्ता बिनते हैं और यह कोई एक जगह तो होता नहीं, जंगल के दूर-दराज इलाकों में जाकर एकत्रित करते हैं और उसे सुखाते हैं, फिर गड्डी बनाते हैं और जब हम इसे बेचने जाते हैं तो सरकारी अफसर हमारी उपज का एक बड़ा हिस्सा यह कह कर खारिज कर देते हैं कि यह टूटा हुआ और खराब है।

वह बताते हैं कि पिछले ढाई दशक से हमें ऐसे ही ठगा जा रहे है। उनके पास ही खड़ी उनकी पत्नी अमिल मंडावी कहती हैं कि ऐसे में सरकार कीमत कितनी ही बढ़ा ले जब वह हमारी उपज को लेगी ही नहीं तो कहां से हमारा भला होगा? इस संबंध में पूर्व कृषि राज्य मंत्री अरविंद नेताम कहते हैं “राज्य सरकारें अब भी आदिवासियों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं, मोटे आनाज का सही मूल्य मिलना चाहिए आदिवासियों को लेकिन वह भी नहीं मिलता।” छत्तीसगढ़ का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 1.35 करोड़ हेक्टेयर है।

राज्य में 59.82 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वन है। इन वनों की गोद में कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट, चूना पत्थर, सोना, निकल, क्रोमियम, ग्रेफाइट और अब लिथियम जैसे 28 खनिजों के विशाल भंडार हैं। देश की कुल खनिज उत्पादन में छत्तीसगढ़ का योगदान लगभग 15 प्रतिशत तक पहुंच चुका है।

यही कारण है कि अब छत्तीसगढ़ को भारत का मिनरल हब भी कहा जाने लगा है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (एसजीडीपी) में खनिज की हिस्सेदारी 9.38 प्रतिशत है। राज्य के कुल आय में खनिज राजस्व का योगदान लगभग 23 प्रतिशत है। इस संबंध में छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा कि खनिज राजस्व में 2000 से 2025 के बीच 30 गुना वृद्धि हुई है लेकिन यह वृद्धि उन आदिवासी समूहों के विकास पर खर्च न कर सरकारी योजनाओं पर खर्च कर दी गई यानी शहरी विकास योजनाओं पर खनिज राजस्व को खर्च किया गया है और यह प्रक्रिया लगातार जारी है।

शुक्ला ने कहा कि स्पष्ट है कि खनिज राजस्व ने न केवल राज्य की आय बढ़ाई, बल्कि सरकार की महतारी वंदन योजना, कृषक उन्नत योजना, तेंदू पत्ता बोनस, जल जीवन मिशन और बोधघाट बहुउद्देशीय बांध जैसी परियोजनाओं के सफलता पूर्वक क्रियान्वयन के लिए पूंजी उपलब्ध कराई है।

लेकिन उन्होंने कहा, “1980 से अब तक 28,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र को खनन के लिए परिवर्तित किया जा चुका है जो राज्य के कुल वन क्षेत्र का 0.47 प्रतिशत है। इनमें से 27 भूमिगत खदानों में 12,783 हेक्टेयर वन क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।”

छत्तीसगढ़ 1947 में स्वतंत्रता के बाद मध्यप्रदेश का हिस्सा बना रहा। सबसे पहले 1920 में स्वतंत्र छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठी। 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सामने यह मांग रखी गई, लेकिन स्वीकृति नहीं मिली। 1955 में नागपुर विधानसभा में फिर यह मांग सामने आई।

अंतत: 1990 के दशक में आंदोलन ने तेजी पकड़ी और इसी आंदोलन ने छत्तीसगढ़ राज्य को जन्म दिया। राज्य बनने के बाद इसके लिए नई राजधानी के निर्माण कार्य शुरू हुआ है। रायपुर से 22 किलोमीटर दूर स्थित 41 गांवों की 60 हजार एकड़ जमीन अधिग्रहित करने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके चलते इन गांवों के लगभग 72 हजार लोगों ने अपने खेत की जमीन सरकार को बेची। सरकार ने 2006 में तीन चिटफंड कंपनियों को लाइसेंस दिया और इन कंपनियों ने किसानों को मुआवजे में मिली धनराशि को दोगुना करने का लालच देकर अधिकांश किसानों को कंगाल बना दिया और 2015 में फरार हो गईं। प्रभावित गांव कोटराभाटाा के सरपंच ललित यादव ने बताया कि हमारे गांव के अधिकांश किसान अब मजदूरी करने रायपुर और आसपास के जिले में जाने पर मजबूर हैं। अधिग्रहित किए गए बरौदा गांव के किसान रुपन चंद्राकर और कामता प्रसाद रात्रे ने बताया, “सरकार ने हमसे तो पांच लाख 80 हजार रुपए प्रति एकड़ जमीनें खरीदीं लेकिन अब वह इन जमीन का प्लाट काटकर महंगे दाम में बेच रहीं हैं जबकि वायदा किया था कि इसमें 20 फीसदी जमीन का मलिकाना हक किसानों को मिलेगा।” रात्रे ने कहा कि अब तो हम किसानों ने सिर पर सफेद कफन बांध लिया है जब तक सरकार 20 प्रतिशत जमीन हमें नहीं देती हमारी आरपार की लड़ाई जारी रहेगी। रूपन चंद्राकर कहते हैं कि नया राज्य हमें मिला लेकिन हम किसान से मजदूर बन गए। राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा, “खनन केवल उद्योग का नहीं, बल्कि समाज का आधार है।” लेकिन क्या इससे राज्य की 32 प्रतिशत आदिवासी आबादी को लाभ मिला? इसका जवाब अबूझमाड़ के विनीगुंडा गांव के आइतू पट्डा ने कहा, “मेरे आसपास के दर्जनों गांव में किसी को अब तक खदानों में काम नहीं मिला।”