नवंबर, 2000 के पहले 15 दिन भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए अहम इसलिए माने जाते हैं, क्योंकि इन दिनों तीन नए राज्यों का गठन किया गया। देश की राजनीतिक सीमाओं का यह पुनर्गठन 1956 के बाद राज्यों के ढांचे में सबसे बड़ा बदलाव था। उस समय इसे जनतंत्र की एक जीत भी बताया गया, क्योंकि तीनों नए राज्यों छत्तीसगढ़, उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तरांचल) और झारखंड के लोग इस क्षण के लिए दशकों से आंदोलन कर रहे थे। बहुत से लोगों ने तो अपनी जान तक दे दी। इन लोगों को अपने मातृ-राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से ढेरों शिकायतें थी। वे अपनी अलग पहचान व अस्तित्व के साथ-साथ प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपार संपदा पर नाज करते थे।
लेकिन राज्य का दर्जा मिलना क्या सच में उनके सपनों को हकीकत में बदलने जैसा था। 25 साल बाद हम चिपको आंदोलन के नेता चंडी प्रसाद भट्ट के शब्दों को याद करें। उन्होंने कहा था, “जब आप एक बड़ा पत्थर तोड़ते हैं तो आपको सिर्फ छोटे लेकिन पत्थर ही मिलते हैं।” उनके कहने का आशय था कि पुराने राज्यों से नए राज्यों को विरासत में मिले राजनेताओं, नौकरशाहों और कारोबारी हितों के अपवित्र गठजोड़ से जूझना होगा। भट्ट ने डाउन टू अर्थ को दिए एक साक्षात्कार में यह बात कही थी, जो डाउन टू अर्थ के जनवरी 15, 2001 के अंक की आवरण कथा “पुअर लिटिल, रिच स्टेट्स” में प्रकाशित हुई थी। इस अंक के संपादकीय में डाउन टू अर्थ के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल ने लिखा था, इन राज्यों को अर्थशास्त्रियों की नहीं, बल्कि देश के सबसे बेहतर पर्यावरण प्रबंधकों की जरूरत है। (देखें : पर्यावरणीय गरीबी,)।
दरअसल इन तीनों राज्यों की प्राकृतिक संपदाएं चाहे जंगल हों, खनिज हों या नदियां, को पहले की लापरवाह शासन-व्यवस्था ने पूरी तरह से निचोड़ कर इस्तेमाल किया था। यही वजह थी कि स्थानीय लोग अपने अस्तित्व व विकास के साथ-साथ जल, जंगल व जमीन पर अपना हक चाहते थे। देखते ही देखते 25 साल बीत गए। यानी तीनों नए राज्य जवान हो गए, लेकिन अपने पूर्ववर्ती राज्यों से विरासत में मिली शासन करने की सोच से मुक्ति नहीं मिल पाई। आज भी प्राकृतिक संपदाओं को निचोड़ कर राज्य आगे बढ़ रहे हैं, जबकि राज्य के लोग निर्धन से और निर्धन हो रहे हैं। राज्य के गठन से ही सरकारों पर वही राजनीतिक दल काबिज हो गए, जो पूर्ववर्ती राज्यों में काबिज थे। यही वजह है कि प्राकृतिक संपदाओं पर स्थानीय लोगों को अधिकार अब तक नहीं मिला है। आइए, इसे राज्यवार समझते हैं।
एक नवंबर 2000 को मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ देश का 26वां राज्य बना। कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 1.35 करोड़ हेक्टेयर के मुकाबले 59.82 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (44.31 प्रतिशत) में जंगल है। इन जंगलों से राज्य सरकारों ने कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट, चूना पत्थर, सोना, निकल, क्रोमियम, ग्रेफाइट और अब लिथियम जैसे 28 खनिजों के विशाल भंडार खड़े किए और देश की कुल खनिज उत्पादन में छत्तीसगढ़ का योगदान लगभग 15 प्रतिशत तक पहुंच गया, लेकिन जंगलों में रह रहे आदिवासियों को क्या मिला?
इसका जवाब देते हुए अबूझमाड़ के आदिवासी ग्रामीण विकास संगठन के अध्यक्ष लक्ष्मण मंडावी ने कहा, “2000 में छत्तीसगढ़ राज्य जब बना तब राज्य में केवल 7 वनोपज की ही सरकारी खरीद होती थी, अब यह बढ़कर 67 हो गई, लेकिन बाजार पहुंचने का रास्ता नहीं होने के कारण आदिवासियों के लिए यह बढ़ी हुई संख्या कोई मायने नहीं रखती।” यही नहीं, जंगलों पर अधिकार के लिए जिन आदिवासियों ने राज्य की लड़ाई लड़ी, वे पिछले कई सालों से अपने जंगल बचाने की लड़ाई “अपनी” ही सरकार के साथ लड़ रहे हैं।
हसदेव अरण्य का मामला भारत में विकास बनाम पर्यावरण और आदिवासी अधिकार बनाम कॉरपोरेट खनन के टकराव का सबसे बड़ा उदाहरण बन गया है। यह 1,70,000 हेक्टेयर से अधिक फैला छत्तीसगढ़ का घना और जैवविविधता-समृद्ध जंगल है, जहां हाथी, गौर, स्लॉथ भालू जैसे कई महत्वपूर्ण जीव पाए जाते हैं। यही क्षेत्र देश के बड़े कोयला भंडारों में से भी एक है, जिसके चलते सरकार और निजी कंपनियां यहां कोयला खनन को बढ़ावा देना चाहती हैं, जबकि वन अधिकार कानून (एफआरए) के तहत यहां के समुदायों के पास “सामुदायिक वनाधिकार” हैं, इसलिए खनन से पहले ग्राम सभाओं की स्वतंत्र सहमति अनिवार्य है, परंतु स्थानीय समुदायों का कहना है कि कंपनियों ने दबाव, जालसाजी या अधूरी जानकारी के आधार पर अनुमतियां ले ली। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा, “1980 से अब तक 28,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र को खनन के लिए परिवर्तित किया जा चुका है जो राज्य के कुल वन क्षेत्र का 0.47 प्रतिशत है। इनमें से 27 भूमिगत खदानों में 12,783 हेक्टेयर वन क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।”
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एक सूबे के तौर पर झारखंड के पुनर्गठन से पहले कई छोटे-छोटे आंदोलन चल रहे थे, जिनमें कई अब भी जारी हैं। खनिजों की चाहत में राज्य के वह सभी जगहें, जहां आदम जीवन बसता और पनपता रहा है, उन्हें विस्थापन देखना पड़ रहा है। जबकि एक राज्य के तौर पर इनकी भागीदारी सबसे पहले सुनिश्चित करनी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर, 2025 को ही पश्चिमी सिंहभूम जिले में स्थित एशिया के सबसे बड़े साल वनों में से एक सरांडा को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने राज्य सरकार को 1968 की मूल अधिसूचना (बिहार सरकार द्वारा जारी) के आधार पर 31,468.25 हेक्टेयर यानी लगभग 314 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को सरांडा वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने का आदेश दिया है। यह लंबे समय से चल रहे आंदोलन का ही हिस्सा है। सरांडा में भारत के 25 फीसदी लौह अयस्क भंडार हैं, हालांकि स्थानीय लगातार जैवविविधता के संरक्षण की मांग उठाते रहे हैं। एक अहम चीज यह है कि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस फैसले से आदिवासियों (हो, मुंडा, ओरांव आदि जनजातियों) या आदिवासियों के व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार (वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत) प्रभावित नहीं होंगे। राज्य सरकार को इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया गया। हालांकि, सूबे में पेसा कानून का अब तक लागू न होना और आदिवासियों के अधिकार को सुनिश्चित करने का एजेंडा अभी तक अधूरा है।
झारखंड में पिछले 15 वर्षों (2008-09 से 2022-23) में कोयला खनन व अन्य गैर-वन उपयोग के लिए कुल 15,691 हेक्टेयर वन भूमि का डायवर्जन मंजूर किया गया है, जो राज्य में वन क्षेत्र पर खनन के बढ़ते दबाव को दर्शाता है। झारखंड एक अलग राज्य बनने के बाद भी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के लिए लगातार लड़ रहा है।
25 साल बाद एक ओर उत्तराखंड सरकार कई तरह के कार्यक्रम कर रही है तो दूसरी ओर राज्य में आंदोलनों की झड़ी लगी है। नवंबर माह में राज्य में अलग-अलग मुद्दों पर दर्जन भर धरने प्रदर्शन हुए। वहीं, राज्य का पहाड़ी हिस्सा अभी तक मॉनसून के दौरान आई आपदाओं के दर्द से नहीं उबर पाया है। राज्य सरकार ने उन्हें बसाने के लिए कोई वैकल्पिक इंतजाम नहीं किया है। संवेदनशील हिमालयी पारिस्थितिकी की समझ को दरकिनार कर परियोजनाएं लागू की जा रही है। सड़कों को चौड़ा करने के लिए जंगलों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और कभी इन जंगलों को “अपना” समझने वाले लोग बेबस नजरों से निहार रहे हैं। बड़े बांधों की बजाय छोटी-छोटी वाटर मिल को पुनर्जीवित करने में जुटी संस्था हिमालयन एनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंवर्जवेशन ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक अनिल जोशी ने डाउन टू अर्थ से कहा, “उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य में नदियों के किनारे बने घराट का बड़ा महत्व है। एक घराट से 1.5 किलोवाट से लेकर 8 किलोवाट तक बिजली पैदा की जा सकती है। केंद्र व राज्य सरकार की ओर से इस दिशा में कुछ काम भी किया गया है, इसमें तेजी लाकर स्थानीय लोगों को बिजली के साथ-साथ रोजगार से जोड़ा जा सकता है।” जोशी कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से सरकारों को समझ आ रहा है कि विकास मॉडल में कुछ दिक्कतें हैं, लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो रहा है।
पहाड़ पर रह रही राज्य की आधी आबादी की आमदनी क के नए जरिए नहीं ढूंढ़ गए। विशेषज्ञ कहते रहे कि जैव विविधता से भरपूर उत्तराखंड में जड़ी-बूटी व बागवानी को आर्थिकी से जोड़ना चाहिए, लेकिन इस दिशा में जमीनी काम नहीं हो पाए हैं। वरिष्ठ औद्यानिकी अधिकारी रहे राजेंद्र कुकसाल के अनुसार कभी प्रदेश में ऐसे 104 बगीचे सक्रिय थे, लेकिन अब लगभग सभी बेकार हो चुके हैं। राज्य आंदोलन में सक्रिय रहे वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी कहते हैं, “25 साल बाद फिर से जल, जंगल व जमीन पर अपना हक मांगने के लिए नए जनांदोलन की जरूरत है।”