डाउन टू अर्थ की खास सीरीज "संपन्न राज्य, विपन्न लोग" के पहले भाग में आपने पढ़ा -
25 साल बाद भी प्राकृतिक संसाधनों पर नहीं मिला हक , दूसरे भाग में पढ़ा- खनिज से छत्तीसगढ़ सरकार हुई अमीर, आदिवासी रहे गरीब के गरीब । तीसरे भाग में पढ़ा - उत्तराखंड में 25 साल बाद भी जारी जल- जंगल-जमीन के लिए संघर्ष । आगे पढ़ें -
चूल्हे पर रखी पतीली में पानी खल-खल उबल रहा है, लेकिन मेरे पास एक मुटठी भी चावल नहीं है कि जिसे मैं उबलते हुए पानी में डाल सकूं। मेरा बच्चा बिलख रहा है और मेरा पति शराब पी कर मस्त (मतवार) है। 60 बरस की फुलमनिया अपना यह दुखड़ा गाकर सुनाती हैं। वह नगेशिया जनजाति से हैं जो कि एक पारंपरिक किसान जनजाति है लेकिन दुर्भाग्य से उनके पास खेती की जमीन नहीं है। उनकी परिवार में जो जमीने थीं वह खनन साइट के कारण अब बंजर हैं।
रांची से करीब 90 किलोमीटर दूर लोहरदगा जिले में पाखर गांव के ऊपरहाट में मूलभूत मानवीय सुविधाओं से कटा हुआ यह इलाका नक्सल प्रभावित जरूर है लेकिन यह भी खनन के दुष्प्रभाव से न बच सका। जंगल में साल के पेड़ों पर लाल रंग की मिट्टी की परत बाक्साइट खनन की निशानी देती है। फुलमनिया का बयान और उनके पाखर गांव को जोड़ने वाली कच्ची और बेतरतीब सड़क इस बात का भी जीता-जागता सबूत है कि भारत का प्राकृतिक संसाधनों से एक सर्वाधिक संपन्न राज्य के लोग कितनी विपन्नता में हैं।
पाखर गांव के डुमरपाट टोले में लातेहार से ब्याह कर 2022 में पहुंची आंगनबाड़ी सेविका लालमुनि कुंवारी गांव में मौजूद दो स्नातकों में से एक हैं। वह बताती हैं कि गांव साफ पानी लेने के लिए आज भी जंगल के बीच से गुजरने वाले झरने पर आश्रित हैं। आठवीं के बाद बच्चों को पढ़ाई के लिए 20 किलोमीटर दूर किसको पंचायत में पढ़ाई के लिए जाना पड़ता है। 15 नवंबर, 2000 की आधी रात को भारत का सबसे नया और सबसे समृद्ध राज्यों में से एक झारखंड का जन्म हुआ था और नई सरकार के द्वारा सदी के पूरा होने पर महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा के स्वशासन की पुकार दी गई थी, लेकिन यह पुकार अब भी अधूरी लग रही। डाउन टू अर्थ झारखंड की राजधानी रांची से करीब 65 किलोमीटर बिरसा मुंडा की जन्मस्थली खूंटी जिले के उलिहातू गांव पहुंचा। चूंकि राज्य अपने 25वें बरस का जश्न मनाने जा रहा था इसलिए जन्मस्थली की साफ-सफाई जारी थी, जहां उत्सव होने थे। हालांकि, बिरसा मुंडा की जन्मस्थली के ही ठीक सामने 42 उमलान पूर्ति और उनका समूह कुसुम और बैर की लकड़ियों से लाख (लाह) निकालने का काम कर रहा है। पूर्ति कहते हैं,“हमें इस काम के पूरे दिन में 100 रुपए दिहाड़ी मिलती है। यदि किसी राज्य में काम हो तो हमें ले चलिए।” उलिहातू के युवा नेल्सन मुंडा बताते हैं, “अकेले मेरे गांव से 60 फीसदी लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में रोजगार और काम की तलाश में हर साल आठ महीने बाहर रहते हैं।”
पलायन और विस्थापन आज भी झारखंड के लिए एक दुस्वप्न की तरह है। ह्यूमेनिटीज एंड सोशल साइंसेज रीव्यूज में मार्च, 2024 में प्रकाशित शोध पत्र ट्रेंड्स एंड पैटर्न ऑफ माइग्रेशन फ्रॉम झारखंड, इंडिया के मुताबिक, झारखंड में पलायन का 74 फीसदी राज्य से बाहर होता है, जिसमें अनुसूचित जातियों (एससी) में प्रति 1,000 व्यक्ति 73 की दर है। यह डिस्ट्रेस-ड्रिवन यानी तंगी से प्रेरित है, जिसमें ग्रामीण-शहरी मौसमी पलायन 50 फीसदी से अधिक है।
इसी शोधपत्र के मुताबिक, झारखंड के छोटानागपुर और संथाल परगना जिलों के आदिवासी पिछले सौ साल से अधिक समय से रोजगार की तलाश में लगातार अपने मूल स्थानों को छोड़ रहे हैं। वहीं, सरकारी विकास नीतियों के बाद, बड़ी-बड़ी बांध परियोजनाएं और उद्योग आदिवासी भूमि तथा जंगलों पर बनाए गए। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण ने झारखंड के आदिवासी समुदायों के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी, जिसके कारण विस्थापन की वजह से उन्हें न्यूनतम रोजगार के लिए शहरी केंद्रों की ओर पलायन करना पड़ा। इन विकास योजनाओं ने महिलाओं को भी बुरी तरह प्रभावित किया, क्योंकि परिवार और बच्चों की परवरिश में उनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। शोध में कहा गया है कि राज्य में पुरुष प्रवासियों की तुलना में महिलाओं को रोजगार और शिक्षा के अवसर बहुत कम मिलते हैं। वहीं, इंपैक्ट ऑफ पॉलिसी रिसर्च रीव्यू में जनवरी, 2025 में प्रकाशित पत्र स्टेटस ऑफ ट्राइबल माइग्रेशन फॉर एंपलॉयमेंट इन झारखंड के मुताबिक, खनन और विकास परियोजनाओं से होने वाला विस्थापन मुख्य कारण है।
झारखंड के हर चौक पर रोजाना सैकड़ों श्रमिकों का जमावड़ा होता है। यह श्रमिक रांची के आस-पास जिलों से यहां पहुंचते हैं। इनमें महिलाओं की बड़ी संख्या है जो काम की तलाश में शहर आती हैं। शहरी मजदूर पंकज कुमार ने बताया कि कोविड के बाद से यह संख्या और तेजी से बढ़ी है। पुणे शहर में मजदूरी करने वाले खूंटी के संजय कच्छप मुंडा आदिवासी समुदाय से हैं। वह बताते हैं, जंगल से अब आजीविका के लिए कुछ मिलता नहीं और खेती के लिए सिंचाई के साधन नहीं है। वह सवाल उठाते हैं कि वर्षा आधारित एक फसल (धान) से कैसे काम चले? डाउन टू अर्थ ने पाया कि सूबे में फॉरेस्ट लैंड और पहाड़ों को काटकर धान की खेती का चलन बढ़ रहा है, हालांकि खेती भी बीते एक दशक में सिकुड़ती जा रही है।
भारत सरकार के लैंड यूज स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट के मुताबिक, झारखंड में परती भूमि बीते एक दशक में लगातार बढ़ी है। झारखंड में 2013-14 में 2507 हजार हेक्टेयर भूमि परती थी जबकि 2023-24 (प्रोविजनल) 2886 हजार हेक्टेयर भूमि परती हो गई है जबकि शुद्ध बुआई क्षेत्र यानी एक साल में कम से एक बार बोई गई कुल कृषि जमीन में 35 फीसदी की बड़ी कमी आई है। 2013-14 में झारखंड का शुद्ध बुआई क्षेत्र 1385 हजार हेक्टेयर (2014-15) से घटकर 902 हजार हेक्टेयर (2023-24 प्रोविजनल) हो गया है।
बिरसा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग में डॉक्टर प्रमोद राय ने कहा कि झारखंड में सिंचाई के लिए पानी को रोककर यानी चैकडैम लगाकर लाभ लेने की कोशिश हो रही है। हालांकि, इसके लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्या बहुत कम है।
कई जगह चेकडैम की जगह सिर्फ गड्ढे खोद दिए जा रहे हैं जबकि उसमें विज्ञान नहीं है। वहीं, प्रत्येक दो वर्षों में आने वाली भारत वन स्थिति रिपोर्ट (आइएसएफआर) की रिपोर्ट झारखंड के वनों की बदहाली खुद बयां करती है। 2003 में आइएसएफआर रिपोर्ट में वनों का वर्गीकरण (घने, मध्यम, खुले वन) नहीं था, बल्कि कुल वन आवरण था। लेकिन 2005 में जारी रिपोर्ट से यह वर्गीकरण शुरु हुआ। जब हम बीते एक दशक में जंगल में हुए बदलाव का वर्गीकरण के आधार पर आकलन करते हैं तो पता चलता है कि रिकॉर्डेड यानी सरकारी खाते में दर्ज जंगलों का बहुत बड़ा नुकसान झारखंड में हो चुका है। 2013 में जारी आइएसएफआर से पता चलता है कि 2011 में झारखंड में रिकॉर्डेड वनों में कुल वन आवरण 23,473 वर्ग किलोमीटर था जबकि 2023 में जारी रिपोर्ट में दिए गए रिकॉर्डेड फॉरेस्ट की तुलना करें तो करीब 45 फीसदी वन आवरण कम हो गया है और इसमें सबसे ज्यादा नुकसान खुले और अत्यंत घने वन का हुआ है। जो यह दर्शाता है कि वनों पर काफी दबाव है। (देखें: घटती संपदा,)।
संसाधनों के साथ उन्हें बचाने वालों की सत्ता भी कमजोर हुई है। झारखंड में आदिवासी ग्राम सभाएं नाममात्र की रह गई हैं और पंचायतों से इनका तालमेल टूट गया है। खूंटी के फूदी गांव में प्रवेश करते ही राज्य पुनर्गठन आंदोलन की याद दिलाता पत्थर दिखता है, जिसे जयपाल मुंडा ने लगाया था। बुधु मुंडा कहते हैं कि आदिवासी होने के बावजूद जल, जंगल, जमीन पर प्रभावी अधिकार नहीं है, और अपने हक की बात करने पर अपराधी जैसा व्यवहार होता है।
परंपरागत पाहन-मुंडा ग्रामसभा, जो पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में स्वशासन की मूल इकाई है, निष्प्रभावी हो चुकी है। ग्रामसभा के प्रधान दाउद मुंडा बताते हैं कि पानी, बिजली और स्कूल जैसे मुद्दों पर सहमति बनने के बाद भी पंचायत स्तर से सहयोग नहीं मिलता।
संवाद संस्था से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता घनश्याम का कहना है कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में पंचायती राज विस्तार अधिनियम, 1996 (पेसा) के नियम तैयार हैं, पर लागू नहीं हुए। अदालतें और संस्थाएं मांग उठाती हैं, पर सरकार टालती रही है।
वह आगे कहते हैं, खान और खनिज से संपन्न झारखंड के पुनर्गठन से पहले ही कई छोटे-बड़े आंदोलन चल रहे थे, वह मांगे अब भी जारी हैं। नेतरहाट आंदोलन जिसमें आदिवासी समुदाय द्वारा सेना के “नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज” का विरोध अब भी जारी है। झारखंड को कमजोर करने की कोशिशे हुई हैं लेकिन वह सफल नहीं हुई वरना यहां का आदिवासी भूमिहीन होता। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम ( सीएनटी एक्ट), संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) और कोल्हान या विल्किंसन नियमावली भूमि संरक्षण प्रणाली के तौर पर काम कर रही है। जबकि पहले मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी ने जब औद्योगिक नीति बनाई थी तो इन नियमों को कमजोर करने की बात कही थी। झारखंड तब बना जब दुनिया को इसके खनिज की जरूरत थी, एक राज्य के तौर पर यहां की मूल लड़ाईयां अब भी जारी है।
लोहरदगा के ग्राम स्वराज्य संस्थान के सीपी यादव ने कहा, “गांव का झगड़ा गांव में सुलझाएं, कोई कोर्ट-कचहरी न जाएं।” यह नारा दरअसल ग्राम सत्ता पाने के लिए था। हालांकि, झारखंड में यह लागू नहीं है। वहीं अगस्त 2025 की प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो रिपोर्ट बताती है कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत झारखंड में 31 मई 2025 तक 20,679 दावे लंबित हैं, जो भारी देरी और बैकलॉग का संकेत है। चाईबासी में सामाजिक कार्यकर्ता आशीष मुंडा के अनुसार मनरेगा ने लोगों को रोका जरूर है, पर राज्य की बुनियादी समस्याएं इससे हल नहीं होतीं। राजनीतिज्ञ और पर्यावरण के जानकार सरयू राय कहते हैं कि 25 साल में कई सरकारें बदलीं, पर संतुलित विकास योजना नहीं बन सकी। कई विभागों में कर्मचारी तक नहीं हैं और आउटसोर्सिंग से काम चल रहा है। सरांडा रिजर्व फॉरेस्ट तक में अतिक्रमण और कटाई जारी है। आर्थिक सूचकांक प्रगति दिखाते हैं, पर लाभ जमीन तक नहीं पहुंचा है।