साल 2024 की अस्कोट-आराकोट यात्रा की शुरुआत पांगू से की गई। इस साल यात्रियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ (फोटो: पहाड़)
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अस्कोट-आराकोट अभियान: अनवरत यात्रा, अनथक यात्री

उत्तराखंड में पांच दशक से जारी अस्कोट-आराकोट यात्रा स्थानीय समस्याओं को समझने के साथ ही लोगों को जड़ों से जोड़े रखने की कोशिश करती है। हर 10 साल के अंतराल पर होने वाली यह यात्रा 2024 में छठी बार संपन्न हुई और लगभग 350 गांवों, नदियों, घाटियों, बुग्यालों से गुजरते हुए करीब 1,000 किलोमीटर का सफर तय किया

Raju Sajwan

यात्राएं नई खोज करती हैं। यात्राएं इतिहास बनाती हैं। यात्राएं प्रकृति के प्रति नई समझ देती हैं। यात्राएं सभ्यताओं को एक दूसरे से मिलाती हैं। यात्राएं समाजों के प्रति दुनिया की समझ को विकसित करती हैं। यात्राएं दूरस्थ क्षेत्रों में अनजान जीवन जी रहे लोगों को मुख्यधारा से जोड़ती हैं। यात्राओं का महत्व इतना अधिक है कि उनका बखान आसान नहीं है, लेकिन यहां हम जिस यात्रा के बारे में बताने जा रहे हैं, वह कई मायनों में अलग है। यह हिमालय के जंगलों की यात्रा है। यह हिमालय से निकल रही नदियों की यात्रा है। यह हिमालय की ऊंचाइयों–गहराइयों को मापने की यात्रा है। खास बात यह है कि यह हिमालय की उन जनजातियों व समाजों को समझने की यात्रा है, जहां तक सरकारी तंत्र या जन प्रतिनिधि और समाजशास्त्रियों की पहुंच लगभग न के बराबर है। और एक बात, जो इस यात्रा को सबसे अलग बनाती है कि पिछले पांच दशक के दौरान एक ही रूट पर छह यात्राओं का इतिहास शायद ही कहीं और मिलता हो।

इस यात्रा का नाम है, “अस्कोट-आराकोट अभियान”। सत्तर के दशक में जब उत्तराखंड की पहचान पूरी दुनिया में चिपको आंदोलन के लिए स्थापित हो रही थी। उसी समय उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र भी जल–जंगल–जमीन के सवाल पर उद्वेलित हो रहे थे। इन युवाओं को एक कड़ी में पिरोना चाहते थे, चिपको आंदोलन के नेता सुंदर लाल बहुगुणा। उन्हें कुछ युवाओं की तलाश थी। यह तलाश शेखर पाठक नामक युवा के एक लेख पढ़कर पूरी हुई। अपनी पुस्तक “उत्तराखंड में एक सौ बीस दिन, 1974” में बहुगुणा शेखर पाठक का परिचय देते हुए लिखते हैं कि पाठक और उनके साथ के युवा छात्र कुंवर प्रसून प्रताप शिखर चाहते थे कि विश्वविद्यालयों में अध्ययन हो वन विज्ञान का, भू-गर्भ शास्त्र का, जल सम्पदा के उपयोग का और उत्तराखण्ड की पुरानी विरासत वेदान्त और योग का। वे पलायनवादी पीढ़ी से बगावत कर रहे थे, वे चाहते थे कि हम अपना भविष्य पहाड़ की चोटियों और घाटियों में खोजेंगे। यहां के जल, जंगल, खनिज सम्पदा के आधार पर अपना आर्थिक जीवन बनाएंगे, पर इसके लिए जन-जन को जगाना होगा, आत्मविश्वास पैदा करना होगा, इसलिए योजना बनी बिना पैसे पैदल यात्रा की। विश्वविद्यालय की परीक्षा के बाद शुरु हुई “अस्कोट से आराकोट” यात्रा।

उत्तराखंड का अस्कोट पिथौरागढ़ जिले में नेपाल की सीमा पर आखिरी गांव है तथा आराकोट उत्तरकाशी जिले में हिमाचल प्रदेश की सीमा पर अंतिम गांव। मकसद इतना भर था कि छात्र गर्मियों की अपनी छुट्टियां उत्तराखंड के उन गांवों में बिताएं, जहां न कोई नेता जाता हो, न प्रशासनिक अधिकारी और ना कोई कर्मचारी। वहां के लोगों से बातचीत हो। उनके सुख दुख में एक रात उनके साथ बीते। साथ ही उन्हें शराबबंदी, जंगलों की सुरक्षा, स्त्री व युवा शक्ति का रचनात्मक उपयोग के बारे में बताना। यात्रा पथ पर पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी एवं उत्तरकाशी जिले के गांव पड़े। पौड़ी व नैनीताल के जिले के गांव यात्रा पथ में नहीं थे।

इस तरह शुरू हुई पहली यात्रा

यात्रा 25 मई 1974 को पिथौरागढ़ में अस्कोट (4,000 फुट) के राजकीय इंटर कॉलेज के सैकड़ों छात्र-छात्राओं, अध्यापकों व नागरिकों के बीच शुरू हुई। उस दिन सर्वोदयी नेता सुंदर लाल बहुगुणा भी उपस्थित थे। 45 दिन में उत्तरकाशी से आराकोट पहुंचने तक यात्री 750 किमी से अधिक पैदल चले। 12 बड़ी नदियां, 9,000 से लेकर 14,000 फुट तक के तीन शिखर पार किए। 200 से अधिक गांवों और कस्बों में लोगों से मिले और उत्तराखंड को नए ढंग से समझा। पदयात्रा में पहले चार छात्र थे, धीरे-धीरे और आते गए। विश्वविद्यालय की परीक्षा देर से होने के कारण अनेक शामिल नहीं हो पाए, फिर भी सभी जिलों के 40 छात्र आंशिक या पूर्ण रूप से यात्रा में रहे। अस्कोट में काली और गोरी नदियां बहती हैं, तो आराकोट में टौंस और पाबर। दोनों के बीच का जीवन अभाव, गरीबी और पीड़ाओं में पल रहा है। यह दर्शन उन्हीं के बीच जाकर हो सकता है। मोटर सड़कों तक तो सब ठीक दिखता है। फिर लोग घर से बाहर बन-ठन कर भी निकलते हैं। इसलिए अभाव और गरीबी का दर्शन करने के लिए युवाओं ने गांव-गांव घूमने का कार्यक्रम बनाया।

यात्रा के बाद शेखर पाठक ने अपने एक लेख में लिखा- नेपाल सीमांत से हिमाचल सीमारंभ तक ग्रामीणों की स्थितियों में कोई खास फर्क नहीं था। जो नकारात्मकताएं एवं अधूरेपन कुमाऊं के गांवों में है, वे ही गढ़वाल के गांवों में भी दिखे। पूरे उत्तराखंड के चेहरे पर पड़ा हुआ गरीबी का नकाब साफ देखा जा सकता है। इस यात्रा से उनके सामने यह सिद्ध हो गया कि राजनीति के अधिकांश लोग इन क्षेत्रों की गलत और परिकल्पित स्थितियां खींचा करते हैं। मसलन कुमाऊं में “अधिक विकास” का गढ़वाल के नेता विरोध करते हैं और कुमाऊं क्षेत्र के नेता कहा करते हैं कि गढ़वाल के लिए अधिक धन मिला है, आदि।

इन अगम्य गांवों में जिला स्तर के अधिकारी का आगमन महान घटना होती है और लोग पटवारी से सर्वाधिक भयभीत रहते हैं। तय हुआ था कि गांव-गांव जाकर लोगों से बातचीत करेंगे और उनसे ही खाने-ठहराने का इंतजाम करने को कहेंगे। मकसद था, लोगों से घुलना-मिलना। इसमें थोड़ा बहुत बदलाव यह किया गया कि भोजन किसी एक घर में नहीं किया जाए। गांव के हर परिवार से एक-एक रोटी और उस पर थोड़ी-थोड़ी सब्जी मंगाई जाए। यह एक रोटी उन्हें सभा में आने का निमंत्रण भी थी और किसी एक परिवार पर पूरा बोझ भी न पड़े।

साल 1984 की अस्कोट-आराकोट यात्रा जब रैणी गांव पहुंची तो चिपको आंदोलन की नायिका गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने यात्रियों का स्वागत किया

लगभग 350 गांवों से होकर गुजरने वाली लगभग 1,000 किलोमीटर की यह छठी यात्रा 25 मई 2024 से शुरू हुई और आठ जुलाई 2024 के बीच हुई। इस बार अभियान की केंद्रीय विषयवस्तु या थीम “स्रोत से संगम” रखी गई, ताकि नदियों से समाज के रिश्ते को गहराई से समझा जा सके और जलागमों के मिजाज को समग्रता में जाना जा सके। इस यात्रा में यह समझने की कोशिश भी की गई कि पिछले पांच दशकों में और खास कर अलग राज्य बनने के ढाई दशक बाद उत्तराखंड का प्राकृतिक चेहरा-जल जंगल जमीन, खनन, बांध, सड़क आदि कितना और घटा है? ग्रामीण अर्थव्यवस्था किस बिन्दु पर है? क्या सामाजिक चेतना में कोई बदलाव आया है? सामाजिक-राजनैतिक चेतना में कितना इजाफा हुआ है? राज्य में आर्थिक और सांस्कृतिक घुसपैठ कितनी बढ़ी है? पलायन का क्या रूप है? गांव के हाल कितना बदले हैं? शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, पानी, शराब तथा महिलाओं-बच्चों सहित पर्वतीय जीवन के अन्य पक्षों की क्या स्थिति है? इंटरनेट की पहुंच कहां तक हुई? जल, जंगल तथा जमीन के मामले के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय ऋणों से खड़ी की गई योजनाओं की भी इस दौरान पड़ताल की गई।

नई आर्थिक नीति तथा उदारीकरण के प्रभावों के साथ-साथ उत्तराखंड की जैवविविधता तथा पारम्परिक ज्ञान को जानने की भी कोशिश की गई। माफिया की बढ़ती शक्ति, भ्रष्टाचार तथा सामाजिक अपराध जैसे पक्ष भी देखे गए। चिपको आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो, हिमालय बचाओ तथा पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रभाव तथा उनमें जन हिस्सेदारी के स्वरूप को समझने तथा गैर सरकारी संस्थाओं के योगदान की समीक्षा का प्रयास भी किया गया। 1984 की यात्रा को सुव्यवस्थित करने के लिए पीपुल्स एसोसिएशन फॉर हिमालयन एरिया रिसर्च (पहाड़) का गठन किया गया। यात्रा की शुरुआत नेपाल से सटे पांगू से की गई। अगली यात्राओं में यात्रियों की संख्या बढ़ने पर अलग-अलग रूट बनाए गए, ताकि गांवों की संख्या बढ़े। अस्कोट-आराकोट यात्रा में वे मार्ग भी शामिल थे, जिनका अपना एक बड़ा इतिहास है, जैसे श्वेन त्शांग (ह्वेनसांग) की सातवीं सदी के पूर्वार्द्ध की कालसी–गोविषाण (काशीपुर) यात्रा, आन्द्रादे आदि जैसुइट पादरियों की 1624 की हरद्वार-माणा-छपरांग यात्रा, डैनियल चाचा-भतीजे की 1789 की नजीबाबाद से प्रारम्भ गढ़वाल यात्रा, थामस हार्डविक की 1796 की कोटद्वार-श्रीनगर यात्रा, बिशप हेबर की 1824 की कुमाऊं यात्रा, पिलग्रिम (पी. बैरन) की 1839-1842 की उत्तराखंड यात्रा, पण्डित नैनसिंह रावत तथा स्वामी विवेकानन्द के कुछ यात्रा मार्ग, लार्ड कर्जन की 1903 की नैनीताल-रामणी (इसे कर्जन मार्ग कहा जाता है) यात्रा तथा भूगर्भशास्त्री हीम तथा गानसीर की 1936 की यात्रा मार्ग। इन ऐतिहासिक यात्रा मार्ग को अस्कोट-आराकोट यात्रियों ने कई जगह छुआ। पाठक उम्मीद जताते हैं कि यात्रा का सिलसिला आगे भी अनवरत जारी रहेगा।