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जलवायु

जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे अधिक चिंतित हैं महिलाएं और युवा, अध्ययन में हुआ खुलासा

रिसर्च से पता चला है कि महिलाएं, युवा और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील लोग इस चिंता से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, लेकिन यही चिंता बदलाव की ताकत भी बन सकती है

Lalit Maurya

यह जलवायु में बदलावों का युग है, ऐसे में इन बदलावों को लेकर चिंतित होना लाजिमी भी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ विशेष समूहों में जलवायु को लेकर चिंता की प्रवृत्ति अधिक देखी गई है।

इन समूहों में महिलाएं, युवा, वामपंथी विचारधारा वाले लोग, भविष्य और पर्यावरण को लेकर गहरी चिंता रखने वाले व्यक्ति शामिल हैं। इसके साथ ही इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो अक्सर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के प्रत्यक्ष संपर्क या उससे जुड़ी खबरों के संपर्क में रहते हैं।

यह जानकारी लीपजिग यूनिवर्सिटी और टीयू डॉर्टमुंड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है। यह पहला मौका है जब वैज्ञानिकों दुनियाभर के शोधों को एक साथ लाकर "जलवायु चिंता" पर एक विस्तृत विश्लेषण पेश किया है।

शोधकर्ताओं ने पाया है कि कुछ समूहों में यह जलवायु को लेकर चिंता दूसरों की तुलना में ज्यादा देखने को मिलती है। इस अध्ययन के नतीजे अंतरराष्ट्रीय जर्नल ग्लोबल एनवायर्नमेंटल चेंज में प्रकाशित हुए हैं।

चिंता: भय और बदलाव दोनों का कारण

अध्ययन के मुताबिक, जो लोग जलवायु परिवर्तन को एक गंभीर खतरा मानते हैं और वैज्ञानिकों के बीच इसके कारणों और खतरों पर बनी सहमति को समझते हैं, उनके जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित होने की आशंका अधिक पाई गई।

लीपजिग यूनिवर्सिटी और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता डॉक्टर क्लारा क्यूनर के मुताबिक, “यह चिंता मानसिक सुख-शांति और स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, वहीं दूसरी ओर यह लोगों को पर्यावरण अनुकूल व्यवहार को अपनाने और जलवायु नीतियों का समर्थन करने के लिए भी प्रेरित करती है।“

कई लोगों के लिए जलवायु संकट और उसके परिणाम किसी डरावने सपने से कम नहीं हैं। मतलब की जहां एक ओर चिंता की भावना डर पैदा करती है, वहीं दूसरी ओर सकारात्मक बदलाव के लिए भी प्रेरित करती है।

यही वजह है कि जलवायु चिंता – यानी जलवायु परिवर्तन से जुड़ी डर और चिंता की भावना – अब लोगों और वैज्ञानिकों की बढ़ती रुचि का विषय बन गई है।

अपने इस मेटा-विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने 94 प्रमुख अध्ययनों को शामिल किया है, जिसमें 27 देशों के 1,70,747 प्रतिभागी शामिल थे। इससे यह स्पष्ट हुआ कि जलवायु चिंता, सामान्य चिंता से अलग एक अनोखी मानसिक स्थिति है।

इस नए मेटा-विश्लेषण में जलवायु चिंता और उससे जुड़ी 33 अन्य बातों के बीच संबंधों को समझने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि जलवायु चिंता किन लोगों में हो सकती है और इसका क्या असर पड़ता है।

डॉक्टर क्यूनर के मुताबिक, जलवायु चिंता के संबंध अलग-अलग इसलिए दिखे क्योंकि इसे मापने के तरीके अलग-अलग थे। अध्ययन की गुणवत्ता भी मायने रखती है — बेहतर गुणवत्ता वाले शोधों में कुछ संबंध ज्यादा मजबूत नजर आए। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि जलवायु को लेकर पैदा हुई चिंता सामान्य चिंता से अलग है, ऐसे में इसे एक अलग मानसिक स्थिति माना जाना चाहिए।

क्या करें नेता और नीति निर्माता?

अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता हेंस जैचर ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “जलवायु चिंता को हल्के में लेना खतरनाक होगा। यह हमें सिर्फ चेतावनी ही नहीं देती, बल्कि एक मौका भी प्रदान करती है कि हम समय रहते ठोस कदम उठाएं।“

उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि राजनेताओं, पत्रकारों और उद्योगपतियों को जनता की इस गंभीर चिंता को अनदेखा नहीं करना चाहिए। बल्कि, इसे समझकर सही दिशा में मोड़कर जलवायु समाधान के लिए प्रेरित करने का प्रयास करना चाहिए। इस तरह, हम अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए भविष्य को सुरक्षित बना सकते हैं।

शोधकर्ता खासतौर पर उन लोगों के लिए मदद की सलाह देते हैं, जो जलवायु को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं, जैसे युवा या वे लोग जिन्हें बार-बार इस समस्या से जूझना पड़ता है।

ग्लोबल साउथ पर असर ज्यादा, पर अध्ययन कम

अध्ययन में इस बात का भी खुलासा किया है कि अध्ययन में शामिल अधिकांश शोध उत्तर यानी विकसित देशों में किए गए थे, जबकि ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कहीं अधिक होने की आशंका है। इस कारण, शोधकर्ताओं ने ग्लोबल साउथ में जलवायु चिंता पर और अधिक शोध करने की आवश्यकता जताई है।

देखा जाए तो जलवायु को लेकर पैदा चिंता कोई भ्रम नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्ची चेतावनी है। यह जहां एक ओर मानसिक बोझ बन सकती है, वहीं अगर सही दिशा में मोड़ी जाए तो समाज को सही दिशा भी दे सकती है।