सात दशकों के दौरान आई बाढ़ के विश्लेषण से पता चला है कि हिन्दू कुश हिमालय में बाढ़ की घटनाएं बढ़ रही है। इन ऊंचे पहाड़ों पर न केवल बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि हुई है, बल्कि साथ ही यह इतनी जटिल हो चुकी हैं कि इनका पूर्वानुमान भी कठिन हो रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके लिए जलवायु में आता बदलाव जिम्मेवार है।
इस बारे में एक नया अध्ययन जर्नल साइंस बुलेटिन में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन में एशिया के उंचें पर्वतीय क्षेत्र में आई एक हजार से भी ज्यादा बाढ़ की घटनाओं का अध्ययन किया गया है।
अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि 2000 के बाद से बाढ़ की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि इन बढ़ती घटनाओं के लिए तापमान में होती वृद्धि जिम्मेवार है।
पेकिंग विश्वविद्यालय, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) और कोलोराडो विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए इस अध्ययन में 1950 के बाद से एशिया के उंचें पहाड़ी क्षेत्रों में आई विभिन्न प्रकार की बाढ़ों का अध्ययन किया गया है। बाढ़ के पैटर्न, प्रकार और कारणों के विश्लेषण से यह समझने में मदद मिली है कि ये बाढ़ कैसे और क्यों आ रही हैं।
हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र, एशिया के आठ देशों में फैली 3,500 किलोमीटर लंबी पर्वत श्रृंखला है। यह पर्वत श्रृंखला भारत अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान में फैली है। धरती पर करीब 200 करोड़ लोग अपने भोजन, पानी और ऊर्जा के लिए इस पर निर्भर है। यह क्षेत्र कई अनोखी प्रजातियों का घर है। हालांकि यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है, जो जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जैव विविधता को होते नुकसान जैसे खतरों से जूझ रहा है।
बेहद अप्रत्याशित होता जा रहा है बाढ़ का समय
अध्ययन में पुष्टि हुई है कि बाढ़ की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अध्ययन में एक और खास बात सामने आई है और वो यह है कि बाढ़ का समय बेहद अप्रत्याशित हो रहा है। ऐसे में इसका पूर्वानुमान बेहद जटिल होता जा रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक बाढ़ की अधिकांश घटनाएं मानसून के दौरान होती हैं, लेकिन मानसून के अलावा भी अन्य मौसमों में भी बाढ़ की घटनाएं में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है।
वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि जीवाश्म ईंधन जैसे तेल, कोयला और गैस के बढ़ते दहन से भी क्षेत्र में चारों प्रमुख प्रकार की बाढ़ की घटनाओं में इजाफा हो रहा है।
इनमें सबसे आम बाढ़ बारिश और पिघलती बर्फ के कारण आती है। लेकिन कहीं ज्यादा विनाशकारी बाढ़ें ग्लेशियल झीलों के फटने और भूस्खलन से बनी झीलों के कारण आती हैं। हालांकि बाढ़ की यह घटनाएं उतनी आम नहीं है, लेकिन एकाएक आने वाली बाढ़ की यह घटनाएं गंभीर नुकसान पहुंचाती हैं।
वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि बढ़ती आबादी और बुनियादी ढांचे के विस्तार से जोखिम बढ़ रहा है। लेकिन बाढ़ की इन सभी घटनाओं के लिए तापमान में होती वृद्धि प्रमुख रूप से जिम्मेवार है।
रिपोर्ट से जुड़े लेखकों में से एक सोनम वांगचुक ने प्रेस विज्ञप्ति में चेताया है कि, "बाढ़ के नियम बदल रहे हैं और अनुकूलन की खिड़की बंद हो रही है।" मतलब की तैयारी का समय खत्म होता जा रहा है। उनके मुताबिक मानसून में भारी बारिश या ग्लेशियर टूटने से आपदाओं की एक श्रृंखला शुरू हो सकती है, जो उन क्षेत्रों को काफी महंगी पड़ सकती है, जो इनसे निपटने के लिए तैयार नहीं हैं।
बाढ़ की रियल टाइम निगरानी आवश्यक
उनका आगे कहना है कि, "हमें संवेदनशील घाटियों में बाढ़ की रियल टाइम में निगरानी करनी चाहिए, वहीं जिन क्षेत्रों में जोखिम बेहद ज्यादा है, वहां बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं को रोकना और निर्माण से बचना चाहिए।" उनके मुताबिक सीमा पार के खतरों से निपटने के लिए उन देशों को डेटा साझा करना चाहिए, जहां एशिया के यह ऊंचे पहाड़ मौजूद हैं।
शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन सभी प्रकार की बाढ़ों को बदतर बना रहा है, लेकिन प्रत्येक प्रकार में जटिल गतिशीलता और अपने कारण हैं।
पेकिंग यूनिवर्सिटी और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डोंगफेंग ली का कहना है, वर्षा और हिमपात के कारण आने वाली बाढ़ के लिए भारी बारिश जिम्मेवार होती है। वहीं बर्फ पिघलने के कारण आने वाली बाढ़, बढ़ते तापमान और मिट्टी में बढ़ती नमी के कारण आती है।“
“इनके विपरीत ग्लेशियल झीलों के फटने और भूस्खलन से बनी झीलों के कारण आने वाली बाढ़ की घटनाओं के लिए जलवायु, ग्लेशियर और स्थलाकृति के बीच के जटिल संबंधों और अंतःक्रियाओं के कारण आती है।“
शोधकर्ताओं के मुताबिक मानवीय गतिविधियां बाढ़ को और बदतर बना देती हैं। शहरों का निर्माण, जंगलों का सफाया, और बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में भूमि उपयोग में बदलाव यानी घर या बांध बाढ़ के जोखिम को बढ़ा देते हैं और प्राकृतिक सुरक्षा को कमजोर कर सकते हैं।
जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चला है कि हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में रहने वाली करीब 49 फीसदी आबादी पर एक साथ कई आपदाओं का खतरा मंडरा रहा है। वहीं 3.6 करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जो इन जटिल आपदाओं के लिए बेहद संवेदनशील है।
शोधों में यह भी सामने आया है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते सदी के अंत तक हिंदू कुश हिमालय पर मौजूद ग्लेशियर अपनी 80 फीसदी बर्फ खो देंगें। इसके भारत सहित कई एशियाई देशों पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगें।
शोधों में यह भी सामने आया है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते सदी के अंत तक हिंदू कुश हिमालय पर मौजूद ग्लेशियर अपनी 80 फीसदी बर्फ खो देंगें। इसके भारत सहित कई एशियाई देशों पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगें।
वैश्विक औसत के मुकाबले अधिक तेजी से गर्म हो रहा हिंदु कुश हिमालय
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) द्वारा जारी रिपोर्ट "वाटर, आइस, सोसाइटी एंड इकोसिस्टम्स इन हिंदू कुश हिमालय" के मुताबिक इसकी वजह से एक तरफ जहां इस क्षेत्र में बाढ़ का खतरा और जल संकट गहरा जाएगा। साथ ही इसका खामियाजा हिन्दुकुश के पूरे पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र को भुगतना पड़ेगा, जो पहले ही अत्यंत संवेदनशील है।
रिपोर्ट में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि इस क्षेत्र में जमा बर्फ बड़ी तेजी से पिघल रही है। इन ग्लेशियरों को हो रहे नुकसान की दर जो 2000 से 2009 के बीच 0.17 मीटर प्रति वर्ष थी वो 2010 से 2019 के बीच बढ़कर 0.28 मीटर प्रति वर्ष पर पहुंच गई है। मतलब की पिछले दशक की तुलना में 2010 से 2019 के बीच हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियरों में मौजूद बर्फ 65 फीसदी ज्यादा तेजी से पिघल रही है, जो एक बड़े खतरे की ओर इशारा है।
आईसीआईएमओडी द्वारा 2019 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदु कुश हिमालय (एचकेएच) वैश्विक औसत की तुलना में कहीं अधिक तेजी से गर्म हो रहा है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भविष्य में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के बाद भी हिंदु कुश क्षेत्र कम से कम 0.3 डिग्री सेल्सियस गर्म रहेगा जबकि उत्तर पश्चिम हिमालय और कराकोरम कम से कम 0.7 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म होगा।
यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित है। हिंदु कुश देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन वैश्विक औसत का छठा हिस्सा है। फिर भी क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन की गंभीर मार पड़ रही है।
देखा जाए तो पिछले छह दशकों में इस क्षेत्र में भीषण ठंड के मौके कम होते जा रहे हैं जबकि गर्मी के मौके बढ़ रहे हैं। न्यूनतम और अधिकतम तापमान में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यह उत्तर की ओर बढ़ रहा है जो समग्र गर्मी का संकेत है।
रिपोर्ट से पता चला है कि हर दशक हिंदु कुश में एक ठंडी रात आधा ठंडा दिन कम हो रहा है। जहां हर दशक में 1.7 गर्म रातें बढ़ रही हैं, वहीं 1.2 गर्म दिन हर दशक बढ़ रहे हैं।
ऐसे में बढ़ते खतरे को देखते हुए शोधकर्ताओं ने सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रमों, स्थानीय स्तर पर बाढ़ से बचाव के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण और आपातकालीन योजना सहित बाढ़ की रोकथाम के लिए सामुदायिक प्रयासों पर जोर देने की बात कही है।