किंग एयर एयरक्राफ्ट से ली गई तस्वीर में खुले पानी पर सी स्मोक और उसके ऊपर बनते शुरुआती बादल दिखाई दे रहे हैं। फोटो साभार: केमिस्ट्री इन दि आर्कटिक: क्लाउड्स, हेलोगेंस, एंड ऐरोसोल्स (चाचा ) शोध टीम
जलवायु

तेल उत्सर्जन से आर्कटिक में हो रहे हैं रासायनिक बदलाव, जलवायु परिवर्तन हो रहा है तेज

वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला कि समुद्री बर्फ की दरारें और तेल-क्षेत्र उत्सर्जन आर्कटिक तापमान तेजी से बढ़ा रहे हैं।

Dayanidhi

  • आर्कटिक में समुद्री बर्फ की दरारें गर्मी नमी बादल बढ़ाकर फीडबैक चक्र बनाती हैं और बर्फ पिघलने तेज करती हैं

  • तेल क्षेत्र से निकलने वाले उत्सर्जन आसपास की हवा की रासायनिक संरचना बदलकर प्रदूषण और स्मॉग रूप से बढ़ाते हैं

  • नमकीन तटीय बर्फ से निकलने वाला ब्रोमीन ओजोन नष्ट करता है जिससे अधिक धूप सतह को गर्म करती है तेजी से

  • तेल क्षेत्रों में दर्ज प्रदूषण स्तर शहरी इलाकों जैसे ऊंचे पाए गए जिससे आर्कटिक की शुद्धता पर सवाल उठे गंभीर

  • चाचा परियोजना से मिले आंकड़े वैज्ञानिकों को आर्कटिक बदलाव समझने और भविष्य के जलवायु मॉडल सुधारने में मदद करते हैं

पृथ्वी की जलवायु बहुत तेजी से बदल रही है और इसका सबसे गहरा असर ध्रुवीय क्षेत्रों में देखा जा रहा है। आर्कटिक क्षेत्र, जो लंबे समय तक बर्फ और ठंड के लिए जाना जाता था, अब तेजी से गर्म हो रहा है। हाल ही में पेन स्टेट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने आर्कटिक के वातावरण का गहराई से अध्ययन किया और पाया कि प्राकृतिक प्रक्रियाओं के साथ-साथ मानवजनित गतिविधियां भी इस बदलाव को तेज कर रही हैं।

इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने दो महीनों तक एक विशेष फील्ड अभियान चलाया। इस दौरान दो शोध विमानों और जमीन पर लगे उपकरणों की मदद से हवा के नमूने और अन्य आंकड़े इकट्ठे किए गए। शोधकर्ताओं ने आर्कटिक के दो अलग-अलग इलाकों और उत्तरी अमेरिका के सबसे बड़े तेल क्षेत्र (प्रुधो बे, अलास्का) की तुलना पास के कम प्रभावित क्षेत्रों से की। इससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि औद्योगिक गतिविधियां आर्कटिक की वायुमंडलीय रसायन प्रक्रिया को कैसे बदल रही हैं।

चाचा परियोजना

यह शोध केमिस्ट्री इन दि आर्कटिक: क्लाउड्स, हेलोगेंस, एंड ऐरोसोल्स (चाचा ) नाम की एक बड़ी वैज्ञानिक परियोजना का हिस्सा है। इस परियोजना का उद्देश्य यह समझना है कि धरती की सतह के पास मौजूद हवा जब ऊपर उठती है, तो उसमें रासायनिक बदलाव कैसे होते हैं। ये बदलाव नमी, बादलों और प्रदूषकों के साथ मिलकर आर्कटिक की जलवायु को प्रभावित करते हैं।

बुलेटिन ऑफ द अमेरिकन मेटियोरोलॉजीकल सोसाइटी में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं ने बर्फ से ढकी जमीन, जमी हुई समुद्री बर्फ, खुले पानी के हिस्सों और अलास्का के तेल-गैस क्षेत्रों के ऊपर की हवा का अध्ययन किया। यह अध्ययन फरवरी से अप्रैल 2022 के बीच किया गया, जब ध्रुवीय सूर्योदय के बाद लगातार सूरज की रोशनी मिलने लगती है। इस समय पराबैंगनी किरणें बढ़ जाती हैं, जिससे रासायनिक प्रतिक्रियाएं और तेज हो जाती हैं।

समुद्री बर्फ में दरारें और उनका असर

शोध में यह पाया गया कि समुद्री बर्फ में बनने वाली दरारें, जिन्हें “लीड्स” कहा जाता है, वातावरण पर बड़ा असर डालती हैं। ये दरारें कुछ फीट से लेकर कई मील तक चौड़ी हो सकती हैं। इनके कारण गर्म हवा, नमी, पानी की भाप और छोटे कण ऊपर की ओर उठते हैं और बादल बनते हैं।

ये बादल गर्मी को फंसा लेते हैं, जिससे आसपास की बर्फ और तेजी से पिघलती है। इससे और अधिक दरारें बनती हैं। इस तरह एक फीडबैक चक्र बन जाता है, जिसमें बर्फ पिघलने से गर्मी बढ़ती है और गर्मी बढ़ने से और बर्फ पिघलती है।

तटीय बर्फ और ब्रोमीन की भूमिका

आर्कटिक के तटीय इलाकों में नमकीन बर्फ पाई जाती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इस बर्फ से ब्रोमीन नामक रसायन निकलता है। ब्रोमीन हवा में मौजूद ओजोन को तेजी से खत्म कर देता है। ओजोन कम होने से सूरज की अधिक किरणें धरती तक पहुंचती हैं, जिससे सतह और ज्यादा गर्म होती है। यह गर्मी और ब्रोमीन छोड़ती है, जिससे एक और फीडबैक चक्र बन जाता है।

तेल-क्षेत्र उत्सर्जन का प्रभाव

शोध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रुधो बे तेल-क्षेत्र से निकलने वाले उत्सर्जन पर केंद्रित था। वैज्ञानिकों ने पाया कि तेल और गैस निकालने के दौरान निकलने वाली गैसें आसपास की हवा की रासायनिक संरचना को बदल देती हैं। ये गैसें हवा को अम्लीय बनाती हैं और हानिकारक पदार्थों व धुंध (स्मॉग) के निर्माण में मदद करती हैं।

हैरानी की बात यह थी कि प्रदूषण का स्तर कभी-कभी लॉस एंजेलिस जैसे बड़े शहरों के बराबर पहुंच गया। उदाहरण के लिए, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का स्तर 60–70 पार्ट्स पर बिलियन तक दर्ज किया गया, जो आमतौर पर शहरी प्रदूषण से जुड़ा होता है।

भविष्य के लिए महत्व

यह अध्ययन दिखाता है कि आर्कटिक अब पूरी तरह “शुद्ध” क्षेत्र नहीं रहा। मानव गतिविधियां, खासकर तेल और गैस उद्योग, प्राकृतिक प्रक्रियाओं के साथ मिलकर जलवायु परिवर्तन को तेज कर रही हैं। वैज्ञानिक अब इन आंकड़ों का उपयोग जलवायु मॉडल बनाने में करेंगे, ताकि यह समझा जा सके कि आर्कटिक में हो रहे ये स्थानीय बदलाव पूरी पृथ्वी की जलवायु को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।

इस शोध से यह स्पष्ट होता है कि आर्कटिक में हो रहे परिवर्तन सिर्फ वहां तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका असर पूरी दुनिया पर पड़ सकता है।