यूरोप में बढ़ती गर्मी और लू का कहर इस कदर हावी हुआ कि उसने 10 दिनों में 2,300 जिंदगियों को निगल लिया। चिंता की बात है कि इनमें से 65 फीसदी मौतों के लिए सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन जिम्मेवार था। मतलब कि अगर इंसान प्रकृति से खिलवाड़ न करता तो शायद ये मौतें टाली जा सकती थीं।
यह खुलासा इंपीरियल कॉलेज लंदन, वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन सहित यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, डेनमार्क और स्विट्जरलैंड के पांच प्रमुख शोध संस्थानों के 12 से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। यह भीषण गर्मी और लू से होने वाली मौतों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए किया गया पहला रैपिड अध्ययन है।
वैज्ञानिकों ने चेताया है कि जैसे-जैसे ग्रीनहाउस गैसें वातावरण में जमा हो रही हैं, लू पहले से कहीं ज्यादा गंभीर और जानलेवा होती जा रही है। ऐसे में यदि बढ़ते तापमान पर लगाम न लगाई गई तो भविष्य में ऐसी त्रासदियां और गंभीर रूप ले सकती हैं।
रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि यूरोप में हाल ही में पड़ी भीषण गर्मी और लू के कहर को बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वैज्ञानिकों के मुताबिक 23 जून से 2 जुलाई के बीच महज दस दिनों में भीषण गर्मी ने 12 यूरोपीय शहरों में 2,300 जिंदगियों को निगल लिया। इनमें से करीब 1,500 मौतें सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन के कारण हुईं।
भीषण गर्मी और लू से मिलान सबसे अधिक प्रभावित रहा, जहां कुल 499 में से 317 मौतें जलवायु परिवर्तन की वजह से हुईं। इसी तरह पेरिस, बार्सिलोना और लंदन भी बुरी तरह प्रभावित हुए, जहां अकेले लंदन में 273 में से 171 मौतें इंसानी गतिविधियों से बढ़े तापमान की वजह से दर्ज की गईं।
कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के मुताबिक यूरोप में जून 2025 के दौरान लू की दो प्रमुख घटनाएं दर्ज की गई। पहली लहर 17 से 22 जून के बीच अपने चरम पर थी, जिसने पश्चिमी और दक्षिणी यूरोप के बड़े हिस्सों को प्रभावित किया। दूसरी हीटवेव जून के अंत और जुलाई की शुरुआत में आई, जिसमें 30 जून से 2 जुलाई के बीच तापमान और भी अधिक चरम स्तर पर पहुंच गया।
पश्चिम यूरोप ने अब तक के सबसे गर्म जून का सामना किया जब सतह के पास तापमान में होती वृद्धि बढ़कर 2.81 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई। इस दौरान स्पेन में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया। वहीं बार्सिलोना, मैड्रिड, लंदन और मिलान जैसे बड़े शहरों में तापमान सामान्य से 2 से 4 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया।
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अध्ययन में यह भी उजागर किया गया है कि कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों के जलने से तापमान में औसतन 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हुई, जिससे गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या करीब तीन गुना बढ़ गई।
रिपोर्ट के अनुसार, इस हीटवेव के सबसे ज्यादा शिकार 65 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोग हुए, जिनमें पहले से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक पाई जाती हैं। आंकड़ों के मुताबिक, मरने वालों में 88 फीसदी लोग 65 वर्ष या उससे अधिक उम्र के थे।
इंपीरियल कॉलेज लंदन के वैज्ञानिक बेन क्लार्क ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "जलवायु परिवर्तन ने गर्मी को और घातक बना दिया है। कुछ लोगों के लिए यह मौसम अभी भी 'सहनीय' हो सकता है, लेकिन लाखों लोगों के लिए यह सीधे जीवन-मृत्यु का सवाल है।"
रिपोर्ट में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि लू का असर खासकर शहरों में अधिक रहा, जहां कंक्रीट और इमारतें गर्मी को सोखकर माहौल और गर्म कर देती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि तापमान में महज दो से चार डिग्री सेल्सियस का इजाफा भी जिंदगी और मौत के बीच का फर्क बन सकता है।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया ने जीवाश्म ईंधन का बढ़ता उपयोग बंद नहीं किया और नेट जीरो उत्सर्जन के लक्ष्यों को हासिल नहीं किया तो भविष्य में गर्मी कहर कहीं ज्यादा बढ़ सकता है।
देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन अब केवल भविष्य की चिंता नहीं है, यह ऐसा संकट है जो मौजूदा पीढ़ी पर मंडरा रहा है। हालात यह हैं कि तापमान में हर डिग्री की बढ़ोतरी हजारों-लाखों लोगों के लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन रही है।