फोटो : विकास चौधरी / सीएसई सुलगता मौसम...बेचैन शहर
जलवायु

आवरण कथा: बढ़ती तपिश के लिए जलवायु व भूगोल ही जिम्मेवार नहीं, 'विकास' भी दोषी!

लचर योजना से तैयार और तपिश को रोक कर रखने वाले बुनियादी ढांचे के साथ-साथ प्राकृतिक आवरण का सिमटता दायरा भारत के प्रमुख शहरों में तापमान बढ़ा रहा है

Anil Ashwani Sharma, Vivek Mishra, Akshit Sangomla, Shagun, Rajneesh Sareen, Mitashi Singh

मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका की आवरण कथा "हर पल मुश्किल" को तीन कड़ियों को यहां प्रकाशित किया जा रहा है। पहले कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, जबकि दूसरी कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। अब पढ़ें अगली कड़ी -

गर्म होती दुनिया में शहरीकरण का तपिश पर गहरा प्रभाव होता है। जैसे-जैसे किसी शहर की आबादी बढ़ती है, उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए बुनियादी ढांचे तैयार करना आवश्यक हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार कार्बन डाइऑक्साइड के वैश्विक उत्सर्जन में शहरों का दो-तिहाई से भी ज्यादा योगदान है।

हालांकि इनके पर्यावरणीय प्रभाव उत्सर्जन से परे हैं। शहरों के विस्तार के साथ-साथ जिस तरीके से भवनों, सड़कों और रेल का जाल बिछाया जाता है, इमारतों का घनत्व, ऊंचाई, आकार और उनमें इस्तेमाल हुई सामग्रियां हरित स्थानों, जलाशयों की तादाद, वाहनों और वातानुकूलन के इस्तेमाल जैसी मानवीय गतिविधियां मिलकर यह तय करती हैं कि आसपास के इलाके में कितनी तपिश बरकरार रहेगी।

बाहर छोड़े जाने पर ये तपिश नजदीकी वायुमंडल का तापमान बढ़ा देती है। जैसे-जैसे ग्रे इंफ्रास्ट्रक्चर या मानवीय इंजीनियरिंग से तैयार बुनियादी ढांचा घना और ज्यादा केंद्रित होता है, यह उन प्राकृतिक स्थानों को कमजोर करता जाता है जो गर्मी के निकास मार्ग के रूप में कार्य करते हुए पर्यावरण को ठंडा रखते हैं। बेलगाम छोड़ दिए जाने पर ऐसा घटनाक्रम शहरी हीट आइलैंड प्रभाव तैयार कर सकता है, जिससे शहरों में ऊंचे तापमान दर्ज होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकते हैं और जानलेवा भी साबित हो सकते हैं।

देश में अर्बन हीट आइलैंड की स्थिति का विश्लेषण करने और ऐसे बदलावों के नतीजतन गर्मी के मौजूदा बोझ को स्थापित करने के लिए दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने 9 शहरों दिल्ली, जयपुर, कोलकाता, नागपुर, पुणे, अहमदाबाद, हैदराबाद, चेन्नई और भुवनेश्वर में एक अध्ययन किया। अलग-अलग आकार और विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में स्थित ये शहर दर्शाते हैं कि तपिश की समस्या विशेष किसी प्रकार की जलवायु या भूगोल तक सीमित नहीं है।

इन शहरों में पिछले 10 वर्षों (2014-23) में तपिश के रुझानों पर सीएसई का विश्लेषण बताता है कि गर्मियों के महीनों में इनमें से चार शहरों के 80 प्रतिशत से ज्यादा इलाके भयंकर तपिश की चपेट में रहे। सीएसई ने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण की लैंडसैट श्रृंखला के उपग्रहों द्वारा रिकॉर्ड इन शहरों की सतही भूमि के तापमान (एलएसटी) पर विचार करके ये निष्कर्ष निकाला।

स्रोत: जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र अंतर-सरकारी पैनल

एलएसटी धरती के ऊपरी हिस्से के तापमान का संकेत करता है, जो शोध के मुताबिक हवा के तापमान से 2-7 डिग्री सेल्सियस तक ऊपर जा सकता है। भयंकर तपिश की स्थितियों का निर्धारण करने के लिए सीएसई ने 8 शहरों के लिए 45 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा और तटीय शहर चेन्नई के लिए 42 डिग्री सेल्सियस से अधिक की एलएसटी का विश्लेषण किया। ये हवा के तापमान के आधार पर लू के निर्धारण को लेकर भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) की सीमा-रेखा के अनुरूप हैं। मैदानों में तापमान के 40 डिग्री सेल्सियस पार करने पर मौसम विभाग लू की घोषणा करता है, जबकि तटीय क्षेत्रों के लिए लू की सीमा-रेखा 37 डिग्री सेल्सियस है।

2014-23 के दौरान गर्मियों के महीनों में नागपुर में हीट स्ट्रेस सबसे ज्यादा (97.79 प्रतिशत) था, जिसके बाद अहमदाबाद (95.25 प्रतिशत), चेन्नई (88.51 प्रतिशत) और पुणे (81.2 प्रतिशत) का स्थान रहा (देखें “भट्टी बनते शहर”)। अध्ययन के दशक में इन इलाकों में छह साल से भी अधिक के कालखंड में प्रचंड गर्मी दर्ज की गई, जिससे पता चलता है कि यहां रहने वाली जनसंख्या ने लंबे समय तक जबरदस्त तपिश का सामना किया है। बाकी बचे शहरों में जयपुर (79.23 प्रतिशत) और दिल्ली (55.34 प्रतिशत) ने भी विश्लेषण में शामिल दशक के दौरान प्रचंड गर्मी के दबाव का प्रदर्शन किया। अपने भूगोल और बड़ी संख्या में जलाशयों की उपस्थिति के कारण हैदराबाद (37.28 प्रतिशत), कोलकाता (12.06 प्रतिशत) और भुवनेश्वर (5.67 प्रतिशत) जैसे शहरों की स्थिति थोड़ी राहत भरी रही है।

एलएसटी के विश्लेषण ने उन वर्षों को भी दर्शाया जब हरेक शहर में तपिश “चरम” पर पहुंच गई। कोलकाता और भुवनेश्वर को छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रचंड गर्मी का अनुभव किए जाने वाले महीनों में उनके भौगोलिक क्षेत्र का 90 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा शामिल रहा।

स्रोत: अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण की लैंडसट श्रृंखला के उपग्रहों और नासा द्वारा रिकॉर्ड भूमि की सतह के तापमान का सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा किया गया विश्लेषण (मानचित्र पैमाने के लिए नहीं )

जान की दुश्मन बनती नमी

भारतीय शहरों में गर्मी का संकट महज तापमान में बढ़ोतरी तक सीमित नहीं है। सीएसई का विश्लेषण खुलासा करता है कि खासतौर से तटीय शहरों में तपिश से राहत दिलाने वाली नमी अब गर्मी के प्रकोप को और बढ़ा रही है।

मनुष्य पसीने के जरिए गर्मी से राहत पाता है, जो बदन को ठंडा रखने में मदद करता है। हालांकि तपिश और आर्द्रता के ऊंचे स्तरों से हवा में नमी का स्तर संतृप्त बिंदु तक पहुंच जाता है जिससे शीतकरण की ये प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। इस बिंदु पर शरीर के तापमान को उचित रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। लंबे समय तक ऐसी परिस्थितियों में रहना घातक साबित हो सकता है।

तापमान और सापेक्षिक आर्द्रता का मिला-जुला प्रभाव, या संतृप्त बिंदु के नीचे हवा में नमी के स्तर का या तो किसी स्थान के वेट-बल्ब तापमान या हीट इंडेक्स से आकलन किया जा सकता है।

विश्लेषण में शामिल 9 शहरों के आर्द्रता स्तर की माप के लिए सीएसई ने अमेरिकी राष्ट्रीय महासागरीय और वायुमंडलीय प्रशासन (एनओएए) की गणनाओं पर आधारित हीट इंडेक्स या ह्यूमिडेक्स का अध्ययन किया।

इस मूल्यांकन में नमी-युक्त गर्मी का आकलन किया जाता है, जिसे किसी शहर में ताप के चलते होने वाली बेचैनी या “फील लाइक” भी कहा जाता है- ताकि दर्ज किए गए तापमान के आधार पर “सावधानी”, “बेहद सावधानी” या “खतरे” की चेतावनी दी जा सके।

सीएसई के अध्ययन से पता चलता है कि 2023 में चेन्नई में करीब दो महीनों तक नमी-युक्त गर्मी खतरनाक स्तरों पर थी, जहां ह्यूमिडेक्स 40 डिग्री सेल्सियस और 52 डिग्री सेल्सियस के बीच रिकॉर्ड किया गया था (देखें “चेतावनी के संकेत”)। इस स्तर पर लंबे समय तक तपिश में रहने या शारीरिक गतिविधियों से हीट क्रैंप्स (गर्मी से ऐंठन) या तपिश के चलते थकान और कमजोरी पैदा हो सकती है, जिससे हीट स्ट्रोक यानी लू लगने की आशंका भी पैदा हो सकती है। भुवनेश्वर और कोलकाता भी इस स्तर के ह्यूमिडेक्स के साथ एक-एक महीने से अधिक तक खतरे के दायरे में रहे, जबकि दिल्ली में 13 दिन, जयपुर में 4 दिन और नागपुर में तीन दिनों तक ऐसे हालात देखने को मिले।

2023 में 32.5 डिग्री सेल्सियस और 40 डिग्री सेल्सियस के बीच ताप बेचैनी के साथ चरम सावधानी की स्थितियां पुणे को छोड़कर सभी शहरों में दर्ज की गई।

अहमदाबाद (85 दिन), चेन्नई (83 दिन), कोलकाता (76 दिन), नागपुर (75 दिन) और भुवनेश्वर (71 दिन) में दो महीनों से भी ज्यादा की अवधि तक इस स्तर की ताप बेचैनी दर्ज की गई, जबकि जयपुर में करीब दो महीने और हैदराबाद और दिल्ली में डेढ़-डेढ़ महीने तक ऐसे हालात बने रहे। इस स्तर की बेचैनी वाले वातावरण में लंबे समय तक रहने से लू लगने, ऐंठन आने या थकान और कमजोरी का खतरा रहता है।

विश्लेषण से ज्यादातर शहरों में सावधानी के स्तर वाले ह्यमिडेक्स स्तरों की व्यापकता का पता चला। पुणे में 149 दिन, हैदराबाद में 101 दिन, दिल्ली में 96 दिन और जयपुर में 91 दिनों तक ऐसे हालात अनुभव किए गए। एनओएए के ह्यूमिडेक्स के अनुसार इस श्रेणी में 26.6 डिग्री सेल्सियस और 32.5 डिग्री सेल्सियस के बीच के तापमान शामिल हैं, जिनमें लंबे समय तक रहने या शारीरिक गतिविधि से थकान पैदा हो सकती है।

नोट: ह्यूमिडेक्स ताप बेचैनी या “फील-लाइक” तापमान है स्रोत: अमेरिकी राष्ट्रीय महासागरीय और वातावरणीय प्रशासन (एनओएए) की गणनाओं के उपयोग से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा ह्यूमिडेक्स का विश्लेषण

शहर क्यों तप रहे हैं

इन शहरों में हीट स्ट्रेस की मौजूदगी मुख्य रूप से नियोजित मानवीय बुनियादी ढांचे का संकेत करती है। इनमें मकान, व्यावसायिक इमारतें, स्कूल, सड़कें शामिल हैं। ऊपर की अभेद्य सतहों की व्यापक रूप से मौजूदगी इनकी खासियत है, जिनमें कंक्रीट, छत और दीवारों की अनुपयुक्त सामग्रियां, इमारतों की मूर्खतापूर्ण संरचना और नक्शे शामिल हैं। ये न तो गर्मी की रोकथाम करते हैं और न ही हवा के प्रबल प्रवाह को सहारा देते या उसका उपयोग करते हैं। जलाशय और वनस्पति यानी नीले-हरित क्षेत्र गर्मी सोखने वाले प्राकृतिक कारक के तौर पर काम करते हैं, जिनमें गिरावट दर्ज होने पर समस्या और विकराल हो जाती है।

उदाहरण के तौर पर 1999 और 2021 के बीच कोलकाता में बिल्ट-अप एरिया में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन शहर ने अपने सतही जल आवरण का 39 प्रतिशत और हरित आवरण का 18.7 प्रतिशत हिस्सा गंवा दिया (देखें “हाथ से निकला अहम आवरण”)। इसी कालखंड में पुणे ने अपने सतही जल का 31.8 प्रतिशत और हरित आवरण का विशाल 91.3 प्रतिशत हिस्सा खो दिया। जयपुर ने अपने सतही जल और हरित आवरण का क्रमश: 21.5 प्रतिशत और 88.6 प्रतिशत हिस्सा गंवाया, जबकि दिल्ली अपने सतही जल के लगभग आधे और हरित आवरण के 63.6 प्रतिशत हिस्से से हाथ धो बैठी।

निजी मोटरीकृत वाहनों के जरूरत से ज्यादा उपयोग और घर-घर में रेफ्रिजरेटर्स और एयर-कंडीशनरों के बढ़ते इस्तेमाल से दबाव और बढ़ रहा है। बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग में अपनी भूमिका के लिए इस प्रकार की मानवीय गतिविधियां पहले से ही कठघरे में हैं। 2019 में जारी इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान के अनुसार रेफ्रिजरेशन और एयर-कंडिशनिंग को पहले से ही वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के 10 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार माना जाता है। स्विस एजेंसी फॉर डेवलपमेंट एंड कोऑपरेशन और भारत के ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा शुरू की गई द्विपक्षीय पहल इंडो-स्विस बिल्डिंग एनर्जी एफिशिएंसी प्रोजेक्ट (बीईईपी) द्वारा 2019 के पत्र में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार 2037-38 तक भारत के 40 प्रतिशत शहरी परिवार कम से कम एक रूम एयर कंडिशनर के मालिक होंगे। फिलहाल ये आंकड़ा 10 प्रतिशत से भी नीचे है।

स्रोत: अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण की लैंडसट श्रृंखला के उपग्रहों और नासा द्वारा जुटाई गई नीले-हरित बुनियादी ढांचे की तस्वीरों का सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा किया गया विश्लेषण

तापीय असमानता के लक्षण

वैसे तो सभी शहर हीट स्ट्रेस से जूझ रहे हैं, लेकिन लोगों पर इसका प्रभाव एक समान नहीं है। किसी भी शहर में अन्य आयु वर्गों की तुलना में बच्चों और बुजुर्गों की सेहत को ज्यादा खतरा देखने को मिलता है। अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार बदलते तापमान के हिसाब से तेजी से अनुकूलित होने की अक्षमता और दो या दो से अधिक बीमारियों की मौजूदगी के चलते बुजुर्ग खतरे की जद में हैं। “द 2023 रिपोर्ट ऑफ द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज” के अनुसार 1990 के दशक से दुनिया भर में 65 साल से ऊपर के लोगों में गर्मी के चलते होने वाली मौतों में 85 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। रिपोर्ट बताती है कि अगर वैश्विक औसत तापमान में महज 2 डिग्री सेल्सियस से थोड़ा नीचे की बढ़ोतरी जारी रही तो इस जनसंख्या वर्ग में गर्मी से जुड़ी सालाना मृत्यु में इस सदी के मध्य तक 370 प्रतिशत का इजाफा होने का अनुमान है।

सीडीसी के मुताबिक शरीर में पानी की पर्याप्त मात्रा बरकरार रखने के लिए वयस्कों पर अपनी निर्भरता के चलते बच्चे ज्यादा संवेदनशील होते हैं। जनसंख्या के इस वर्ग के भीषण गर्मी की चपेट में आने से जुड़ी आशंकाएं स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां जल्द घोषित होने या उनका विस्तार किए जाने से प्रमाणित होती हैं, जिसका देश में अब चलन हो गया है।

आमतौर पर तंग और बेहद प्रदूषित स्थानों पर निवास करने के चलते देश की गरीब जनसंख्या भी बेहद असुरक्षित है। अप्रैल 2023 में जर्नल प्लॉस क्लाइमेट में प्रकाशित यूके और अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में भी इस तर्क का समर्थन किया गया है। इसमें बताया गया है कि पूरी की पूरी दिल्ली खतरनाक ह्यूमिडेक्स स्तरों की जद में है। उच्च नमी सूचकांक वाले स्थानों में झुग्गी बस्तियों की मौजूदगी जैसे कारक इस शहर में तपिश से जुड़ी असुरक्षा को और गंभीर बना रहे हैं। बेहिसाब भीड़-भाड़, तिरपाल और टिन की चादरों जैसी खराब सामग्रियों के इस्तेमाल के साथ-साथ बिजली, पानी, स्वच्छता या स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच की कमी से हालात और भयावह हो जाते हैं। अक्सर घर से बाहर, खुले आसमान के नीचे कामकाज के चलते गरीब आबादी लंबे समय तक तपते वातावरण में रहने का जोखिम उठाती है।

सीएसई द्वारा किए गए व्यापक जलवायु ताप असुरक्षा विश्लेषण में वनस्पति और जलाशयों की उपस्थिति, गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या, छत तैयार करने वाली सामग्रियों के ताप प्रदर्शन, बिजली और पानी तक पहुंच जैसे पहलुओं को शामिल किया गया। इस अध्ययन से खुलासा हुआ कि कोलकाता के तकरीबन आधे वार्डों में उच्च से मध्यम दर्जे की ताप असुरक्षा है। शहर का लगभग 3,755 हेक्टेयर क्षेत्र अधिसूचित मलिन बस्ती के तहत आता है, जिसमें से 73 प्रतिशत इलाका तपिश से प्रभावित है। लगभग 10 लाख लोग इन इलाकों में निवास करते हैं।

गरीब जनसंख्या गर्मी के जबरदस्त खतरे झेल रही है और उसके पास राहत पाने के साधन न के बराबर हैं। इसके बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में लचीलेपन और प्रतिक्रियात्मक कार्रवाइयों में वो प्रमुखता से दिखाई नहीं देते। दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा किए गए एक स्वतंत्र मूल्यांकन में ये बात साबित हुई है। थिंक टैंक ने मार्च 2023 की रिपोर्ट में देश भर में शहर, जिला और राज्य स्तरों पर करीब 37 ताप कार्य योजनाओं का मूल्यांकन किया है। इसमें पाया गया कि गर्मी से निपटने की लगभग सभी योजनाएं “असुरक्षित समूहों की पहचान करने और उन्हें लक्षित करने में लचर हैं।” जनहानि और आर्थिक नुकसान कम करने और उत्पादकता में सुधार लाने के लिए इस खाई को पाटना बेहद जरूरी है।

कंक्रीट का मकड़जाल

नौ शहरों की संरचना और नक्शे पर नजदीक से नजर डालें तो इंसानी बुनियादी ढांचे के निर्माण द्वारा ताप विनियमन पर होने वाला प्रभाव सामने आता है। शहरी आकृति विज्ञान (मॉर्फोलॉजी) एक स्थानीयकृत क्षेत्र में निर्मित वातावरण की व्यापक समझ में आसानी लाता है। शहरी आकृति विज्ञान में आस-पड़ोस में हरित आवरण और जलीय निकायों की उपलब्धता के साथ-साथ निर्मित वातावरण की ज्यामिति, जैसे भवनों की ऊंचाई और दो निर्माणों के बीच का स्थान शामिल होता है (देखें “आकृति विज्ञान की अहमियत”)।

सीएसई के विश्लेषण के अनुसार, शहरों के चिन्हित ताप केंद्रों में सुगठित मध्यम-ऊंचाई और खुली मध्यम-ऊंचाई वाली आकृतियों ने 46.36 डिग्री सेल्सियस से 48.09 डिग्री सेल्सियस की अपेक्षाकृत निम्न एलएसटी का प्रदर्शन किया। इन आकृतियों में मध्यम-ऊंचाई वाली इमारतों वाला आस-पड़ोस शामिल होता है, जिनमें ग्राउंड फ्लोर के अलावा तीन से सात मंजिल होने के साथ-साथ अच्छे से औसत दर्जे का हरित आवरण होता है। सूरज की सीधी रोशनी को ढांचों पर पड़ने से रोकने के लिए पारस्परिक आवरण यानी म्यूचुअल शेडिंग और हरित क्षेत्रों की मौजूदगी को एलएसटी को नीचे लाने के प्रमुख वाहकों में पाया गया।

इसके विपरीत, निम्न-ऊंचाई वाले भवनों के इलाकों ने 46.79 डिग्री सेल्सियस से 52.35 डिग्री सेल्सियस तक के एलएसटी का प्रदर्शन किया।

कच्चे मकान और औद्योगिक इलाकों वाले आस-पड़ोस में ये आकृति विज्ञान देखा गया। सीएसई के विश्लेषण से पता चला है कि इन इलाकों में अधिकतम सतही तापमान, मध्यम-ऊंचाई वाले निर्माणों में पाए गए तापमान से लगभग 4 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। इससे ना केवल यहां के मोहल्लों में विरल हरियाली के संकेत मिलते हैं बल्कि गलियों में आग उगलते सूरज से खुला संपर्क भी सामने आता है, जिससे रुकी हुई तपिश की मात्रा बढ़ जाती है।

हालांकि, हीट-ट्रैपिंग के संदर्भ में औद्योगिक क्षेत्रों में विशाल निम्न-ऊंचाई वाली आकृतियों (50.53 डिग्री सेल्सियस) और अनियोजित बस्तियों में कम वजन की निम्न-ऊंचाई वाली आकृतियों (50.91-55.16 डिग्री सेल्सियस) का प्रदर्शन सबसे खराब पाया गया। छत बनाने के लिए खराब सामग्रियों, जैसे लोहे की जस्तेदार चादरों और प्लास्टिक शीट्स का इस्तेमाल इसके पीछे की प्रमुख वजह है। सीएसई के अध्ययन के अनुसार ये सामग्रियां एलएसटी में 7.33 डिग्री सेल्सियस का इजाफा कर सकती हैं। ऐसे मोहल्लों में शीतलता लाने के लिए छत तैयार करने की बेहतर सामग्रियों जैसे, रिफ्लेक्टिव पेंट और कूल रूफ्स का उपयोग किया जा सकता है। ये सामग्रियां सूरज की गर्मी को सोखने की बजाए उसे परावर्तित कर देती हैं। इसके अलावा पर्याप्त हरियाली के साथ हरित छत या ग्रीन रूफ्स का भी उपयोग किया जा सकता है।

स्रोत: गूगल अर्थ

उभरती चिंता

गाड़ियां खड़ी करने के खुले स्थान बड़ी मात्रा में तपिश को कैद करने वाला एक और शहरी कारक है। आमतौर पर पार्किंग के ऐसे स्थानों का निर्माण कंक्रीट या एस्फाल्ट से किया जाता है, जो तपिश को बरकरार रखते हैं। अमेरिका में लॉस एंजेलिस स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरमेंट एंड सस्टेनेबिलिटी की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि कड़ी धूप में खड़ी कारों और एस्फॉल्ट की वजह से खुले पार्किंग लॉट्स में सतही तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है (देखें “भारी जोखिम”)।

इसी प्रकार, 2020 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा अर्बन क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में राष्ट्रीय राजधानी के कनॉट प्लेस इलाके में कंक्रीट से बने क्षेत्रों में तपिश के ठहराव को रेखांकित किया गया था। अध्ययन के अनुसार इस व्यावसायिक और कारोबारी केंद्र में अच्छी तादाद में हरियाली है, फिर भी ये बाकी दिल्ली से 4 डिग्री सेल्सियस गर्म है, जिसकी वजह कंक्रीट से तैयार बड़े और बिना आवरण वाले पार्किंग स्थान हैं।

पूर्ववर्ती उत्तर दिल्ली नगर निगम की आधिकारिक वेबसाइट बताती है कि मार्च 2021 तक नगर निगम क्षेत्र में बिना आवरण वाले कार पार्किंग के 12,524 स्थान थे जिनका कुल क्षेत्रफल 200,505 वर्ग मीटर था।

शहरी क्षेत्रों में निजी कारों का स्वामित्व लगातार बढ़ रहा है, ऐसे में पार्किंग लॉट्स में आवरण को विस्तार देने के चतुराई भरे उपायों की जरूरत है (देखें “ठंडे पार्किंग की दरकार” पृष्ठ 55)। ये इलाके नवाचार और कार्बन-मुक्ति के अवसर साथ लेकर आते हैं। उदाहरण के तौर पर आवरण के रूप में काम करने वाले उपकरणों के ऊपर सोलर पीवी पैनल जोड़े जाने या इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) चार्जिंग स्टेशन लगाए जाने से बढ़ती गर्मी के हिसाब से अनुकूलित होने और उसकी रोकथाम करने में मदद मिल सकती है।

सूक्ष्म जलवायु पर ध्यान

नीले और हरित स्थानों का विस्तार, शहरों को ठंडा करने का सबसे प्रभावी समाधान है। सूक्ष्म जलवायु में सुधार की अपार क्षमता के चलते ये रक्षात्मक उपायों की पहली पंक्ति में आते हैं। ये तत्व आस-पड़ोस के तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस तक की शीतलता ला सकते हैं और 250 मीटर से भी ज्यादा दूरी तक इनका प्रभाव रह सकता है (देखें “सूक्ष्म जलवायु विस्तार”)।

हालांकि सीएसई की पड़ताल से सभी नौ शहरों में हरित और नीले स्थानों में गिरावट का रुझान देखने को मिला है। सच्चाई ये है कि इनमें से किसी भी शहर में उस न्यूनतम स्तर की हरियाली भी नहीं है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सेहतमंद जिंदगी के लिए जरूरी मानता है। डब्ल्यूएचओ प्रति व्यक्ति कम से कम 9 वर्ग मी. हरित स्थान सुनिश्चित करने का प्रस्ताव करता है, जबकि किसी शहर में 50 वर्ग मी. प्रति व्यक्ति हरित क्षेत्र स्थापित करना उसकी आदर्श सीमा है। सपारो, जापान के शोधकर्ताओं द्वारा 2019 में किए गए एक शोध के मुताबिक अध्ययन में शामिल शहरों में से दिल्ली में प्रति व्यक्ति 10.4 वर्ग मी, जयपुर में 6.67 वर्ग मी और कोलकाता में 6.61 वर्ग मी हरित स्थान है। यह अध्ययन अर्बन साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है। एम्बायो पत्रिका में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक लेख के अनुसार पुणे में प्रति व्यक्ति हरित स्थान महज 1.4 वर्ग मी. है।

हरित स्थानों का वितरण भी असमान है। मिसाल के तौर पर दिल्ली का मध्य भाग हरा-भरा है, लेकिन शहर के पूर्वी हिस्से में विरले ही कोई हरित स्थान मौजूद है। मौजूद वनस्पति की किस्म भी तपिश की रोकथाम कर पाने की उनकी क्षमता का निर्धारण करती है। घास और झाड़ियों की तुलना में घने छायादार पेड़ तपिश की रोकथाम करने में ज्यादा कारगर होते हैं।

शमनकारी क्रियाएं

भले ही सीएसई का विश्लेषण नौ शहरों तक सीमित है, लेकिन देश भर के तमाम इलाके खतरे की जद में हैं। महानगर तपती जलवायु की मार झेलते हुए संघर्ष कर रहे हैं और उनके मौजूदा बुनियादी ढांचे को दोबारा संयोजित या रेट्रोफिट किए जाने की आवश्यकता है। दूसरी ओर, छोटे शहर विस्फोटक विकास की कगार पर हैं और उन्हें मास्टर प्लान और उप-नियमों के जरिए विकास प्रक्रिया को तत्काल “तपिश से बचाने” की दिशा में कार्य करना होगा।

शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) में गर्मी को लेकर जरूरी कार्रवाई करने की जबरदस्त क्षमता है, जिसकी केंद्र सरकार ने भी पहचान की है। स्वच्छ हवा, जलवायु कार्रवाई और ऊर्जा संरक्षण की उभरती जरूरतें शहरी स्थानीय निकायों के क्रियाकलापों से सीधे तौर पर जुड़ी हैं।

मिसाल के तौर पर 15वें वित्त आयोग ने शहरी निकायों के लिए 1,21,055 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं जिनमें से 38,196 करोड़ रुपए, 10 लाख से अधिक की जनसंख्या वाले शहरों के लिए हैं। 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों के लिए इस अनुदान को आस-पास की हवा की गुणवत्ता में सुधार करने और पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता और ठोस कचरा प्रबंधन पर सेवा-स्तरीय मानक पूरे करने में उनके प्रदर्शन से जोड़ा गया है। ये अनुदान और उसके कार्यान्वयन को शहर-स्तरीय कार्यों के लिए सबसे अहम क्रियान्वयनकारी और निगरानी उपकरण बना देता है।

15वें वित्त आयोग द्वारा सामने रखे गए दिशानिर्देशों में शहरों में हीट स्ट्रेस को रोकने और उसका शमन करने के लिए तत्काल उपायों को एकीकृत करने की क्षमता है। उदाहरण के तौर पर नवंबर 2022 में पार्टीज टु यूएनएफसीसीसी के 27वें सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कंवेंशन में सुपुर्द की गई भारत की दीर्घकालिक निम्न उत्सर्जन रणनीति ने अनेक स्थानीयकृत जलवायु उपायों को सामने रखा है। इनमें शहरी जलवायु कार्य योजनाएं तैयार करना, और सापेक्षिक मास्टर प्लान और भवन उप-नियमों के साथ उनका एकीकरण शामिल है। रणनीति दस्तावेज शहरी स्थानीय निकाय के स्तर पर जलवायु परिवर्तन सेल के गठन का भी सुझाव देता है ताकि विभिन्न योजनाओं के तहत जारी जलवायु कार्रवाइयों को साथ जोड़ा जा सके, असुरक्षा का मूल्यांकन हो सके, तपिश को सोख लेने वाले कारकों का खाका तैयार हो सके और हीट एक्शन प्लान तैयार किया जा सके।

इतना ही नहीं, केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा विचारित नवाचार, एकीकरण और स्थिरता के लिए शहरी निवेश (सीआईटीआईआईईएस) 2.0 जलवायु कार्रवाई के लिए एक त्रि-स्तरीय ढांचा तैयार कर रहा है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स, दिल्ली के सहयोग और ईयू और यूरोपीय एजेंसियों के साथ मिलकर सीआईटीआईआईईएस 2.0 साल 2023 से 2027 तक क्रियान्वित रहेगा। ये एक राष्ट्रीय जलवायु डेटा वेधशाला की स्थापना के साथ-साथ शहरों और राज्य जलवायु डेटा मंचों के लिए राज्य जलवायु केंद्रों और शहरी निकायों के तहत जलवायु परिवर्तन विभागों के गठन का प्रस्ताव करता है। इन संस्थानों को 15वें वित्त आयोग के मौजूदा ढांचे के साथ एकीकृत किया जा सकता है।

मौजूदा ताप कार्रवाई का खाका आपदा प्रतिक्रिया के इर्द-गिर्द तैयार किया गया है। हालांकि शहरों को ताप कार्रवाई उपायों को प्राथमिकता देने और उपयुक्त रूप से अमल में लाने की जानकारी देने के लिए 15वें वित्त आयोग के ढांचे के साथ इसका निपटारा किया जा सकता है।

इसके साथ ही तमाम केंद्रीय मंत्रालय हरित जलवायु कोष (जीसीएफ) जैसी स्वैच्छिक कवायदों का भी लाभ उठा सकते हैं। गौरतलब है कि विकासशील देशों को जलवायु अनुकूलन और शमन अभ्यासों में मदद करने के लिए यूएनएफसीसीसी रूपरेखा के अंतर्गत जीसीएफ का गठन किया गया है। इसमें राष्ट्रीय स्तर पर निर्दिष्ट प्राधिकार द्वारा साल-भर चलने वाली प्रक्रिया का निर्माण करना शामिल है। जो शहरों में ताप कार्रवाई के लिए एक मान्यता प्राप्त संस्था द्वारा तैयार कोष प्रस्ताव, तैयार या इकट्ठा कर सकता है और एक तकनीकी सलाहकार पैनल और जीसीएफ बोर्ड द्वारा इसकी मंजूरी प्राप्त कर सकता है, जो इस कोष की निगरानी करता है।

शहरी स्थानीय निकाय हरित बॉन्ड जैसे अन्य स्वैच्छिक उपकरणों की भी पड़ताल कर सकते हैं, जो खासतौर से जलवायु और ताप संबंधित परियोजनाओं के लिए निर्दिष्ट होते हैं। इसके लिए सरकारी निकायों को एक परिभाषित मानदंड स्थापित करना चाहिए, जो परिणाम-उन्मुख हो। फिलहाल हरित बॉन्ड के तहत नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, स्वच्छ परिवहन, हरित इमारतें, प्राकृतिक संसाधन और भूमि उपयोग, जल और कचरा प्रबंधन और प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम आते हैं। ये क्षेत्र ताप शमन के लिए कार्रवाई की प्रकृति के साथ परस्पर व्याप्त होते हैं।

वैसे तो वैश्विक रूप से पहला हरित बॉन्ड 2008 में विश्व बैंक द्वारा जारी किया गया था, लेकिन स्विस कार्बन फाइनेंस कंसल्टेंसी साउथ पोल द्वारा 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक गाजियाबाद, अहमदाबाद, सूरत, विशाखापट्टनम, अमरावती, इंदौर, भोपाल, पुणे, हैदराबाद, लखनऊ और वडोदरा द्वारा हरित म्यूनिसिपल बॉन्ड उतारे गए हैं।

शहरी स्तर पर मास्टर प्लान और उप-नियमों के संदर्भ में तपिश को बढ़ाने वाले कारकों का अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। सीएसई के अध्ययन से एक ताप शमन पिरामिड सामने आया, जो तपिश को प्रभावित करने वाले मापकों को इकट्ठा करता है। विश्लेषण से पता चलता है कि ताप को प्रभावित करने वाले प्रमुख वाहकों में प्रभावी हरियाली, जलीय निकाय और सामग्रियों की पसंद शामिल है। इसके बाद एयर-कंडिशनरों, वाहनों और घरेलू स्तर पर इस्तेमाल होने वाले दूसरे उपकरणों के निकास से उत्सर्जित ताप का भी योगदान देने वाले कारकों के तौर पर अध्ययन किए जाने की जरूरत है।

पिरामिड शहरी आकृति विज्ञान को रेखांकित करता है, जिसमें घटक के रूप में एस्पेक्ट रेशियो, स्काई व्यू फैक्टर और गलियों की अनुस्थिति शामिल है। स्थानीय जलवायु के हिसाब से नियोजित और तैयार नहीं किए जाने पर ये स्थानीय पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। एस्पेक्ट रेशियो, इमारत की ऊंचाई का गली की चौड़ाई से अनुपात होता है, स्काई व्यू कारक का अर्थ जमीन पर एक बिंदु और इमारतों के बीच से दिखने वाला आसमान है। इसी से ये तय होता है कि सतह द्वारा कितनी गर्मी रोककर रखी जाएगी और कितनी तपिश गायब हो जाएगी।

अगर उचित ढंग से योजना बनाकर संरचना तैयार की जाए तो ये तत्व तपिश के रुके रहने की प्रवृत्ति पर लगाम लगा सकती है और शहरों को ठंडा करने में मददगार साबित हो सकती है।

सड़क या गली का सिरा जिस दिशा में हो उससे धूप से संपर्क और हवा की गति के चलते हासिल की गई तपिश का निर्धारण होता है। केंद्रीय शहरी मामले और आवास मंत्रालय द्वारा जारी शहरी और स्थानीय विकास योजना निर्माण और क्रियान्वयन (यूआरडीपीएफआई) दिशानिर्देशों के अनुसार सड़कें और गलियां किसी शहर के क्षेत्रफल का करीब पांचवां हिस्सा होती हैं और पैदल चलने वालों की सुविधा को अहम रूप से प्रभावित कर सकती हैं। आवरण और सूक्ष्म-जलवायु विस्तार के तत्वों को शामिल करके ताप-लचीले रास्तों के निर्माण से तपिश के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसे हासिल करने के कुछ तरीकों में, खासतौर से व्यस्त व्यावसायिक इलाकों या केंद्रीय कारोबारी जिलों में सड़क किनारे पौधरोपण या आवरण उपकरण लगाना शामिल हो सकता है, जिससे पैदल चलने वालों को तपिश से राहत पाने में मदद मिल सकती है।

स्रोत: “ब्लू ग्रीन सिस्टम्स फॉर अर्बन हीट मिटिगेशन: मैकेनिज्म्स, इफेक्टिवनेस एंड रिसर्च डायरेक्शंस,” ब्लू-ग्रीन सिस्टम्स, दिसंबर 2022 की जानकारियों का उपयोग करके सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा तैयार

इतना ही नहीं छोटे जल-क्षेत्रों, वर्षा उद्यानों, तालाबों की स्थापना और चौड़ी सड़कों और चौराहों (हवा की गति की दिशा में) पर फव्वारे स्थापित करने से शहर का सौंदर्य सुधारने के साथ-साथ उसे ठंडा रखने के उपाय करने में भी मदद मिल सकती है। वाष्पीकृत पवन मीनारों जैसी सक्रिय प्रणालियों के साथ जल-संवेदनशील शहरी संरचना और नियोजन में आस-पड़ोस के तापमान में 3-8 डिग्री तक की कमी लाने की क्षमता है। इसके अलावा, फुटपाथ, पार्किंग लॉट या दूसरी पक्की सतहों को घास से तैयार छिछली परतों से बदल देने से रुकी हुई तपिश में गिरावट आ सकती है। ऐसे समाधानों को नियोजन से जुड़े विनियमनों के साथ एकीकृत किए जाने की दरकार है।

सीएसई का विश्लेषण दिखाता है कि शहरों के ताप केंद्रों के बीच आकृति विज्ञान के लिहाज से एक साझा सूत्र सुगठित रिहाइशी निर्माण और औद्योगिक क्षेत्र ही हैं। ऐसे इलाके घने होते हैं और यहां नक्शे में सुधार या हरित और नीले स्थानों की सीमित गुंजाइश होती है। लिहाजा यहां निर्माण की अच्छी सामग्रियों और रेट्रोफिट का इस्तेमाल महत्वपूर्ण हो जाता है।

रेट्रोफिट्स में अन्य कारकों के अलावा आवरण उपकरणों का प्रतिष्ठापन, रोधन मुहैया कराना, परावर्तनीय सामग्रियों का इस्तेमाल, ठंडे और हरित छत शामिल हैं। मिसाल के तौर पर कूल रूफ्स घरेलू तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस तक की कमी ला सकते हैं। एक ओर जहां तेलंगाना ने शहरी हीट आइलैंड प्रभाव से निपटने के लिए कूल रूफ नीति जारी करते हुए 2028 तक 300 वर्ग किमी कूल रूफ हासिल करने का लक्ष्य तय कर रखा है, तो वहीं यूआरडीपीएफआई दिशानिर्देशों का परिशिष्ट शहरी नियोजन की रणनीति के रूप में अनिवार्य कूल रूफ्स सुनिश्चित करने का प्रस्ताव करता है।