जलवायु परिवर्तन धरती की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। इस समस्या के निदान के लिए पूर्वी यूरोप व पश्चिमी एशिया के बीच बसे देश अजरबेजान के शहर बाकू में दुनिया भर के देश जुटे। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन द्वारा आयोजित इस सम्मेलन को कांफ्रेंस आफ दी पार्टीज यानी कॉप कहा जाता है और इस साल यह 29वां सम्मेलन था।
11 से 23 नवंबर तक चले इस सम्मेलन में फैसला लिया गया कि विकासशील देशों को हर साल विकसित देशों द्वारा 300 अरब डॉलर की रकम मुहैया कराई जाएगी। इस विषय को गंभीरता से समझने लिए हमें सबसे पहले जलवायु वित्त पोषण यानी क्लाइमेट फाइनेंस समझना होगा।
दरअसल पेरिस समझौते के वक्त यह कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जिन विकासशील या गरीब देशों को नुकसान हो रहा है और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेवार जीवाश्म ईंधन को छोड़ कर रिन्यूएबल एनर्जी को अपनाने पर होने वाले खर्च की भरपाई के लिए सालाना अमीर देश एक मुश्त राशि गरीब देशों को देंगे। साल 2009 में तय हुआ था कि साल 2020 तक विकासशील देशों की सहायता के लिए विकसित देशों से हर साल 100 अरब डॉलर जुटाए जाएंगे।
अब यह राशि 300 अरब डॉलर कर दी गई है। बेशक यह राशि तीन गुणा बढ़ गई है, लेकिन विकासशील देश इससे नाराज हैं। नाराज देशों की अगुवाई भारत कर रहा है। कॉप सम्मेलन खत्म होने के बाद भारतीय प्रतिनिधि चान्दनी रैना ने इस समझौते पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि इससे पता चलता है कि विकसित देश अपनी जिम्मेवारी लेने से बच रहे हैं।
उन्होंने समझौता दस्तावेज को दृष्टि भ्रम या ऑप्टिकल इल्यूज़न बताया। दरअसल विकासशील देशों ने सम्मेलन के दौरान अपनी ओर से एक प्रस्ताव पारित कर जलवायु वित्त पोषण के तौर पर 1300 अरब डॉलर की मांग की थी, जो 300 अरब डॉलर के मुकाबले कहीं अधिक है।
यही वजह है कि विकासशील देशों ने एक बयान जारी कर इस समझौते को अपमानजनक बताया है। विशेषज्ञों का भी मानना है कि जलवायु कार्रवाई के लिए 1,000 से 1,300 अरब डॉलर की धनराशि की आवश्यकता होगी। इस रकम के जरिए जलवायु प्रभावों के कारण होने वाली हानि व क्षति से निपटने में जरूरतमन्द देशों को मदद दी जाएगी। उनके लिए बचाव, अनुकूलन उपाय किए जाएंगे और स्वच्छ ऊर्जा की नई प्रणालियों का निर्माण किया जाएगा।
वहीं, यूएनएफसीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों (एनडीसी) को हासिल करने के लिए 2030 तक 5,012 से 6,852 अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता बताया था।
विकासशील देशों का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से उनके देशों में आपदाएं बढ़ गई हैं, जिसमें बाढ़, सूखा, जंगलों में आग, भीषण गर्मी, लू, भारी बारिश की घटनाएं शामिल हैं। जबकि जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश ही जिम्मेवार हैं। इसलिए विकसित देशों को भरपाई करने की जिम्मेवारी लेनी चाहिए।
कॉप29 की एक उपलब्धि और मानी जा रही है। वह है, पेरिस समझौते के छठे अनुच्छेद पर सहमति। इसे एक बड़ा कदम माना जा रहा है। दरअसल, अनुच्छेद 6 में कार्बन बाजार की व्यवस्था की गई है। यह कार्बन बाजार संयुक्त राष्ट्र समर्थित होगा। यह कार्बन बाजार, कार्बन क्रेडिट के क्रय-विक्रय को आसान बनाएगा और देशों को अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को कम करने और जलवायु – अनुकूल परियोजनाओं में निवेश करने के लिए रियायत देगा।
लेकिन विशेषज्ञों ने इस पर चिंता जताई है। विशेषज्ञों की चिंता यह है कि उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार देश अब कार्बन क्रेडिट के बहाने और तेजी से अधिक उत्सर्जन करेंगे। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एक रिपोर्ट में इस पर पहले ही चिंता जताई गई थी। सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में पाया था कि कार्बन क्रेडिट के खरीदार अपना उत्सर्जन जारी रखते हैं, बल्कि कई कंपनियों ने यह कहते हुए अपना उत्सर्जन बढ़ा दिया है कि उन्होंने क्रेडिट खरीदा है।
कुल मिलाकर देखें तो विकसित देशों नें सिर्फ 300 अरब डॉलर का वादा किया है जो विकासशील देशों की मदद के लिए पर्याप्त नहीं है। यानी कहीं न कहीं ग्लोबल नॉर्थ क्लाइमेट फाइनेंस के मामले में ग्लोबल साउथ का साथ छोड़ दिया है.