भारत में रिकॉर्ड गर्म अक्टूबर, स्पेन में भीषण बाढ़, फ्लोरिडा में विनाशक तूफान और दक्षिणी अमेरिका के जंगलों में धधकती आग यह कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो स्पष्ट तौर पर दर्शाती हैं कि यदि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान पर समय रहते लगाम न लगाई गई तो उसकी कितनी भारी कीमत मानवता को चुकानी पड़ सकती है।
ऐसे में एक बार फिर दुनिया की निगाहें जलवायु परिवर्तन पर होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन कॉप-29 पर टिकी हैं। यह सम्मेलन 11 नवम्बर से अजरबैजान की राजधानी बाकू में शुरू हो गया।
जलवायु परिवर्तन से बचाव का एक कारगर उपाय ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन में कटौती करना माना जाता है। इसी को ध्यान में रखते हुई इस बार चर्चा में जीवाश्म ईंधन के साफ सुथरे विकल्पों को ढूंढने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने के मुद्दे को शीर्ष पर रखा गया है।
गौरतलब है कि इस सम्मेलन से ठीक पहले नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने एक नया पोजिशन पेपर जारी किया है। इस पेपर में सीएसई ने न केवल जलवायु वित्त से जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला है, साथ ही ऐसे सिद्धांत भी प्रस्तुत किए हैं, जो सम्मेलन में निष्पक्ष और महत्वाकांक्षी परिणाम सुनिश्चित कर सकते हैं।
सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का भी कहना है कि, "कॉप-29, पेरिस के बाद सबसे महत्वपूर्ण जलवायु सम्मेलन हो सकता है, क्योंकि विकासशील देशों द्वारा जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वित्तीय सहायता बेहद मायने रखती है।
गौरतलब है कि इस सम्मलेन से कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि यदि इस मुद्दे पर तत्काल कदम न उठाए गए तो वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि जल्द ही डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकती है। वहीं सदी के अंत तक तापमान में होती वृद्धि औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकती है।
इस बीच कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी पुष्टि की है कि जलवायु इतिहास में 2024 के अब तक के सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज होना करीब-करीब तय हो गया है। बता दें कि इससे पहले 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष था, जब बढ़ता तापमान औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था।
वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि 2024 में बढ़ता तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकता है। औद्योगिक पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का उपयोग शुरू होने के बाद यह पहला मौका है, जब बढ़ते तापमान ने इस सीमा को छुआ है।
भारत भी जलवायु में आते इन बदलावों से अनछुआ नहीं है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने पुष्टि की है कि 1901 के बाद से औसत और न्यूनतम तापमान के लिहाज से 2024 में अक्टूबर का महीना अब तक का सबसे गर्म अक्टूबर था। इसके लिए वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि भी जिम्मेवार है।
ऐसे में यदि इस मुद्दे पर जल्द से जल्द कार्रवाई न की गई तो बार-बार जानलेवा चरम मौसमी घटनाओं का सामना करने को मजबूर होना होगा। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस मामले में सभी से मिलकर तुरन्त कार्रवाई करने का आहवान किया है। उन्होंने जी20 समूह और प्रमुख उत्सर्जकों से आग्रह किया है कि वे इस संकट को रोकने के लिए ठोस प्रयास करें।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने अपनी नई रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ एक्सट्रीम वेदर रिपोर्ट इन इंडिया’ के मुताबिक चरम मौसमी घटनाओं ने 2022 और 2023 की तुलना में 2024 में ज्यादा गंभीर असर डाला है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2024 के पहले नौ महीनों में भारत को 93 फीसदी दिनों यानी 274 में से 255 दिनों में गर्मी और ठंडी हवाओं, चक्रवात, बिजली, भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन का सामना करना पड़ा। इन घटनाओं ने 3,238 लोगों की जान ले ली, इनसे 32 लाख हेक्टेयर फसलें प्रभावित हुईं थी।
क्या है संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन?
जलवायु परिवर्तन आज एक ऐसी समस्या बन चुका है जो सरहदों के दायरे से परे है। ऐसे में इस विश्वव्यापी समस्या से निपटने के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। इसी कड़ी में हर साल जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दुनिया के करीब-करीब सभी देश एकजुट होते हैं। देखा जाए तो यह जलवायु से जुड़े गंभीर मुद्दों पर चर्चा करने और निर्णय लेने का एक प्रमुख बहुपक्षीय मंच हैं।
इस सम्मलेन में न केवल वैश्विक नेताओं के साथ-साथ सरकारी प्रतिनिधि, स्वयंसेवी संगठन, व्यापारिक नेता, जलवायु वैज्ञानिक, मूल निवासी और समाज के विविध क्षेत्रों से जुड़े लोग हिस्सा लेते हैं। यह सभी इसमें अपने दृष्टिकोण व जलवायु परिवर्तन से निपटने के समाधान साझा करते है, ताकि जलवायु कार्रवाई के खिलाफ जारी जंग को जीता जा सके।
इस सम्मेलन को जलवायु संकट से निपटने, वैश्विक तापमान को डेढ़ डिग्री की सीमा रेखा में रोक रखने के साथ-साथ कमजोर समुदायों को बदलती जलवायु के अनुकूल ढालने में मदद करने के साथ-साथ 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य पर सहमति बनाने के अवसर के रूप में देखा जाता है।
कॉप-29 में किन मुद्दों पर होगी चर्चा
इस साल अजरबैजान की राजधानी बाकू में होने वाली वार्ता का प्रमुख मुद्दा जलवायु वित्त पर सहमति बनाना होगा। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सभी देशों के पास ग्रीनहॉउस गैसों के होते उत्सर्जन में कटौती और समुदायों को सक्षम बनाने के साथ-साथ जलवायु के खिलाफ कार्रवाई के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों।
इसका उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन को घटाने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने और हुए नुकसान की भरपाई के लिए जरूरी वित्त जुटाना है। इस सिलसिले में अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे में सुधार पर हुई चर्चाओं को आगे बढ़ाया जाएगा।
कॉप-29 के दौरान पक्षकारों के बीच 'न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल' (एनसीक्यूजी) नामक एक नए जलवायु वित्त से जुड़े समझौते पर सहमति बनने की उम्मीद है।
यह समझौता 2009 में विकसित देशों द्वारा किए उस वादे की जगह लेगा जिसमें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में विकासशील देशों की मदद करने के लिए सालाना 10,000 करोड़ डॉलर दिए जाने पर प्रतिबद्धता जताई गई थी। हालांकि, यह वादा महज एक बार, 2022 में पूरा किया गया है।
अध्ययनों से पता चला है कि वैश्विक जीडीपी के महज एक फीसदी हिस्से से विकासशील देशों की जलवायु संबंधी मौजूदा आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है।
इतिहास पर नजर डालें तो 2015 में, पेरिस में कॉप-21 के दौरान, एक ऐतिहासिक समझौता हुआ था, जिसमें देशों ने वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने पर सहमति व्यक्त की थी। साथ ही इस बात का वादा किया था कि वो इसे डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का प्रयास करेंगे।
पेरिस समझौते के तहत, हर पांच वर्षों में जलवायु कार्रवाई से जुड़ी योजनाओं को आगे बढ़ाया जाता है। इसके तहत अगली राष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई योजनाएं, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित जलवायु योगदान (एनडीसी) कहा जाता है, 2025 में जारी की जाएंगी।
इनका ही सकारात्मक परिणाम है कि दुनिया में अक्षय ऊर्जा पर इतना जोर दिया जा रहा है और जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा की जगह साफ-सुथरे स्रोतों को दुनिया भर में अपनाया जा रहा है। इससे न केवल बढ़ते उत्सर्जन को रोकने में मदद मिल रही है, साथ ही रोजगार के नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहन भी मिल रहा है। देखा जाए तो अधिकांश क्षेत्रों में सौर और पवन ऊर्जा से उत्पन्न बिजली, जीवाश्म ईंधन की तुलना में अधिक किफायती हो गई है।