इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) भी पुष्टि की है कि पेड़ों की एक तिहाई से ज्यादा प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है; फोटो: आईस्टॉक 
जलवायु

जलवायु संकट: सदी के अंत तक बदलते मौसम से जूझ रही होंगी पेड़ों की 70 फीसदी प्रजातियां

आशंका है कि पेड़ों की 32,000 प्रजातियों में से 70 फीसदी को इस सदी के अंत तक ऐसे मौसम का सामना करना पड़ेगा, जैसे उन्होंने पहले कभी नहीं झेला

Lalit Maurya

पेड़ धरती पर जीवन का आधार हैं। वे न केवल हमारी सांसों को साफ हवा देते हैं, कार्बन को संजोते हैं, पानी को स्वच्छ बनाते हैं, बल्कि साथ ही हमारे स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को भी सहारा देते हैं। लेकिन अब ये धरती के फेफड़े हमारे जीवनदाता खुद खतरे में हैं।

एक नई अंतराष्ट्रीय वैज्ञानिक रिपोर्ट के मुताबिक, इस सदी के अंत तक दुनिया भर की 32,000 से अधिक पेड़ प्रजातियों में से करीब 70 फीसदी ऐसे जलवायु हालात का सामना करने को मजबूर होंगी, जो उन्होंने पहले कभी नहीं झेले।

यह संकट खास तौर पर और गहरा जाएगा अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी  से बढ़ता रहा। ऐसे में यदि उत्सर्जन को रोका नहीं गया तो लाखों पेड़ों के लिए यह धरती घर नहीं, कब्रगाह बन सकती है। इस अध्ययन के नतीजे प्रतिष्ठित जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर कोलीन बूनमैन ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी साझा करते हुए कहा, "सदी के अंत तक करीब पेड़ों की करीब 70 फीसदी प्रजातियों को उनके आवास के किसी न किसी हिस्से में जलवायु में आने वाले बड़े बदलाव को झेलना होगा।"

उनके मुताबिक अगर तापमान चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया, तो कुछ प्रजातियों के लिए उनका आधे से ज्यादा आवास क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं।

बता दें कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने पहले ग्लोबल ट्री असेसमेंट में जानकारी दी है कि पेड़ों की एक तिहाई से ज्यादा प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में पेड़ों की 47,282 ज्ञात प्रजातियों में से कम से कम 16,425 के विलुप्त होने का खतरा है।

गौरतलब है कि भारत में भी पेड़ों के साथ कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। देश में न केवल सड़कों, घरों आदि से पेड़ गायब हो रहे हैं, बल्कि खेतों में भी इनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है। जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि पिछले पांच वर्षों में भारत के खेतों से 53 लाख छायादार पेड़ गायब हो चुके हैं। यह अपने आप में एक बड़े खतरे की ओर इशारा है।

मतलब की इस दौरान हर किलोमीटर क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किलोमीटर क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।

कहां होगा सबसे ज्यादा असर?

अध्ययन ने उन जगहों की भी पहचान की है जहां पेड़ों की सबसे अधिक विविधता है और जहां जलवायु परिवर्तन का असर सबसे गंभीर होगा। इन 'एक्सपोजर हॉटस्पॉट्स' में यूरेशिया, उत्तर-पश्चिमी अमेरिका, उत्तरी चिली और अमेजन डेल्टा शामिल हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन इलाकों में जलवायु इतनी तेजी से बदलेगी कि कई पेड़ प्रजातियों का जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।

गौरतलब है कि पेड़ अपनी लंबी उम्र और सीमित गति के कारण जलवायु में तेजी से आते बदलावों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं।

इस अध्ययन में केवल जलवायु से जुड़ी चुनौतियों को शामिल किया गया है। इसमें वृक्षों की कटाई, जमीन का तेजी से बदलता उपयोग और बाहरी प्रजातियों के खतरों को शामिल नहीं किया गया है। यह इस बात का संकेत है कि हकीकत में इन पेड़ों पर मंडराता जोखिम इससे कहीं ज्यादा हो सकता है।

अब भी बाकी हैं उम्मीदें

रिपोर्ट में केवल पेड़ों पर मंडराते खतरे ही नहीं बताए गए, बल्कि उन जगहों को भी चिन्हित किया है, जहां उम्मीदें बाकी हैं।

इन इलाकों को वैज्ञानिकों ने 'क्लाइमेट रिफ्यूजिया' कहा है। यह ऐसी जगहें हैं जहां मौसम की स्थितियां आने वाले समय में भी अपेक्षाकृत स्थिर बनी रह सकती हैं। ऐसे में अगर इन क्षेत्रों की रक्षा की जाए, तो ये पेड़ों के लिए सुरक्षित आश्रय बन सकते हैं। ये इलाके लंबी अवधि के संरक्षण प्रयासों के लिए बेहद अहम हैं।

अध्ययन में तत्काल कार्रवाई की जरूरत पर भी जोर दिया गया है। इसके तहत जो प्रजातियां ज्यादा खतरे में हैं, उनकी निगरानी जरूरी है। इसके साथ ही क्लाइमेट रिफ्यूजिया को इंसानी दखल से बचाना भी बेहद महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिकों ने जोर दिया है कि 'असिस्टेड माइग्रेशन' जैसे सक्रिय संरक्षण उपायों पर विचार करना होगा, ताकि पेड़ों को ऐसी जगह पहुंचाया जा सके, जहां वे जीवित रह सकें।

अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता डॉक्टर जोसेप सेरा-डियाज ने जोर देकर कहा, "इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें दुनिया के पेड़ों को बचाने के लिए अभी कदम उठाने होंगे।" अध्ययन बताता है कि हमें कहां ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और जैव विविधता बनाए रखने के लिए छोटे-छोटे अवसरों को कैसे अपनाया जा सकता है।