फोटो: विकास चौधरी 
वायु

सांसों का आपातकाल: 10 साल में वायु प्रदूषण से मारे गए 38 लाख भारतीय

लगभग 40 सालों से वायु प्रदूषण पर शोध एवं रिपोर्टों का सार प्रस्तुत करती सीएसई की नई किताब "सांसों का आपातकाल" के पहला अध्याय में भारत के शहरों में बढ़ रहे वायु प्रदूषण का विश्लेषण किया गया है

Centre for Science and Environment

सांसों का आपातकाल पुस्तक की प्रस्तावना में आपने पढ़ा कि वायु प्रदूषण मां के गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी चपेट में ले रहा है। आज पढ़ें, पुस्तक का पहला अध्याय

जिंदगी की बागडोर थामने वाली सांसें ही अब भारत में जानलेवा साबित हो रही हैं। यहां हर सांस धीरे-धीरे मौत की तरफ धकेलती है। स्वीडन स्थित कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट की एक रिसर्च के मुताबिक, 2009-2019 के दशक में भारत में वायु प्रदूषण की वजह से 38 लाख लोगों की जान गई, क्योंकि हवा में पीएम 2.5 की मात्रा मानक स्तर 40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कहीं ज्यादा पहुंच गई। कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक इस मामले में और भी सख्त हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, सिर्फ 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक ही वायु की गुणवत्ता सामान्य मानी जाती है। इससे तुलना करें तो प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या कई गुना बढ़कर 1.66 करोड़ तक पहुंच जाती है। यह आंकड़े पूरे रिसर्च पीरियड के दौरान कुल मृत्यु दर का 25 फीसदी हैं।

अध्ययन में इस पर खासतौर पर ध्यान दिलाया गया है कि भारत की पूरी आबादी ऐसे इलाकों में रहती है, जहां पीएम 2.5 का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से ज्यादा है। पीएम 2.5 बहुत ही बारीक कण होते हैं, जिनका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम होता है। इंटरनेशनल एडवोकेसी ग्रुप द नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल के मुताबिक, पीएम 2.5 के आकार को ऐसे समझ सकते हैं, “अधिकतर बैक्टीरिया कम से कम 5 माइक्रोन चौड़े होते हैं। एक रेड ब्लड सेल का व्यास करीब 6 माइक्रोन होता है, जबकि एक बाल की मोटाई लगभग 70 माइक्रोन तक होती है। एक पीरियड (पूर्णविराम) पर हजारों पीएम 2.5 कण समा सकते हैं। कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने अपने अध्ययन में यह चेतावनी भी दी है कि पीएम 2.5 में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से मौतों में 8.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 2009 से 2019 तक हुई रिसर्च के दौरान भारत के 655 जिलों के लोगों पर यह दुष्प्रभाव देखा गया।

दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश भारत के लगभग सभी लोग जिंदा रहने के लिए जरूरी सबसे बुनियादी काम “सांस लेने” के दौरान भी प्रदूषित हवा की चपेट में आ जाते हैं। इससे उनके ऊपर बीमारियों का बोझ और बढ़ जाता है। विभिन्न अध्ययनों में यह साबित हो चुका है कि कई क्षेत्रों में पीएम 2.5 का स्तर लगातार बढ़ रहा है। इतना ही नहीं, पीएम 2.5 के कण सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इससे दूर-दराज के बड़े इलाकों तक प्रदूषण फैल जाता है।

भारत के शहरों में बढ़ता वायु प्रदूषण गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। बड़े महानगरों और छोटे शहरों के बीच हवा की गुणवत्ता में काफी अंतर है। वहीं, अब एक और परेशान करने वाला ट्रेंड दिखाई दे रहा है। पहले जिन छोटे शहरों को अपेक्षाकृत साफ माना जाता था, वे अब खतरनाक रूप से उच्च स्तर का प्रदूषण झेल रहे हैं। असम-मेघालय सीमा पर स्थित एक छोटा औद्योगिक शहर है बर्नीहाट। यह शहर अब भारत में प्रदूषण का नया हॉटस्पॉट बन गया है। यहां के सालाना पीएम 2.5 स्तर ने दिल्ली को भी पीछे छोड़ दिया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों के अनुसार, बर्नीहाट में पीएम 2.5 का स्तर 133.4 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया। यह राष्ट्रीय मानक से 3.3 गुना अधिक है।

यह भारत में वायु प्रदूषण संकट की दिशा में हो रहे बड़े बदलाव का संकेत है। अब छोटे शहर भी उसी खतरनाक स्तर के प्रदूषण से जूझ रहे हैं, जिसे पहले कभी सिर्फ मेट्रो शहरों की समस्या माना जाता था। बर्नीहाट में हवा इतनी ज्यादा प्रदूषित हो चुकी है कि इसे सुरक्षित माने जाने वाले सालाना स्तर तक लाने के लिए पीएम 2.5 में 70 प्रतिशत की भारी कमी करनी होगी। दिल्ली अपनी खतरनाक रूप से जहरीली हो चुकी हवा के लिए लंबे समय तक चर्चा में रही है। लेकिन, बर्नीहाट के मुकाबले दिल्ली में वार्षिक औसत पीएम 2.5 स्तर 104.9 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया। यहां 2024 के 101 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की तुलना में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। हाल ही में सीपीसीबी के आंकड़ों के साथ एक्यूएयर की तरफ से जारी वायु गुणवत्ता रिपोर्ट में भारत के सबसे प्रदूषित शहरों को चिन्हित किया गया है। इन शहरों में पीएम 2.5 का स्तर बेहद खतरनाक पाया गया। यह धारणा कि वायु प्रदूषण केवल “बड़े शहरों की समस्या” है, अब टूटती दिख रही है। आंकड़े साफ तौर पर दिखाते हैं कि अब छोटे शहर और औद्योगिक क्षेत्र भारत के “वायु प्रदूषण संकट” के बदतर हालात का सामना कर रहे हैं।

शहरों में लगातार बढ़ता प्रदूषण का स्तर यह दिखाता है कि वायु गुणवत्ता संकट गहराता जा रहा है और यह समस्या अब सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है। भारत के सबसे प्रदूषित शहरों की लिस्ट में गुरुग्राम, हरियाणा (91.7 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर), श्री गंगानगर, राजस्थान (87.2 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर), फरीदाबाद, हरियाणा (84.7 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर), ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश (83.6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) और मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश (83.4 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) शामिल हैं। ये आंकड़े दिखाते हैं कि औद्योगिक क्षेत्रों के साथ ही जिन इलाकों में शहरीकरण तेजी से हो रहा है, वे बढ़ते उत्सर्जन का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगत रहे हैं। हवा की गुणवत्ता में आ रहे बदलावों से जुड़े रुझानाें से यह बात भी साफ हो जाती है कि अब तक वायु प्रदूषण की राष्ट्रीय बहस में जिन छोटे शहरों को नजरअंदाज किया जाता रहा है, वे ही अब गंभीर संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में तब्दील होते जा रहे हैं, जहां तुरंत हस्तक्षेप की जरूरत है।

“एयर क्वॉलिटी टेक्नोलॉजी” पर काम करने वाली स्विट्जरलैंड की कंपनी एक्यूआई की एक हालिया रिपोर्ट भी यही संकेत देती है। हालांकि, आंकड़ों में मामूली अंतर भले ही हो, लेकिन संदेश एक ही है कि भारत में वायु प्रदूषण की समस्या का दायरा जितनी तेजी से फैल रहा है, उसकी तीव्रता भी उतनी ही बढ़ती जा रही है। लगातार नए इलाके इस संकट की चपेट में आते जा रहे हैं।

दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के अनुसार, 2024-25 की सर्दियों (1 अक्टूबर, 2024- 31 जनवरी, 2025) के दौरान भारत के महानगरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद और चेन्नई में पीएम 2.5 का स्तर और भी बदतर हो गया, जबकि इन सभी महानगरों की भौगोलिक स्थितियां और जलवायु अलग-अलग हैं। सीएसई की यह रिपोर्ट इन शहरों में सर्दियों के दौरान रीयलटाइम पीएम 2.5 डेटा के विश्लेषण पर आधारित है।

चारों तरफ जमीन से घिरे “इंडो-गैंगेटिक प्लेन्स” यानी गंगा के मैदानी इलाकों में स्थित और मौसम की प्रतिकूल स्थितियों का सामना करने वाली दिल्ली में सबसे ज्यादा प्रदूषण स्तर दर्ज किया गया। इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र के दूसरे सिरे पर स्थित कोलकाता दूसरा सबसे प्रदूषित महानगर रहा। वहीं, इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र से बाहर स्थित महानगरों मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और बेंगलुरु में भी पीएम 2.5 के औसत स्तर में बढ़ोतरी दर्ज की गई, जबकि इन महानगरों की जलवायु परिस्थितियां बाकी शहरों की तुलना में बेहतर हैं और यहां ताजी हवा के लिए वेंटिलेशन की प्राकृतिक व्यवस्था भी है।

दिल्ली और चेन्नई को छोड़कर बाकी सभी महानगरों में तो प्रदूषण का स्थानीय औसत पिछली 3 सर्दियों के मुकाबले तो कम दर्ज हुआ, लेकिन इन शहरों में अलग-अलग जगहों पर प्रदूषण स्तर काफी ज्यादा रहा, जिससे लोगों को गंभीर स्तर के प्रदूषण से जूझना पड़ा। अलग-अलग जलवायु वाले सभी क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान प्रदूषण स्तर के चरम पर पहुंच जाने से यह साफ हो जाता है कि जहां शहरीकरण और गाड़ियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, वहां वायु प्रदूषण स्थायी समस्या बन चुका है। सर्दियां आते ही दिल्ली की वायु गुणवत्ता हर तरफ चर्चा होती है, लेकिन दूसरे महानगरों में बढ़ते प्रदूषण को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। मौसमी प्रदूषण के रुझानों में कुछ सुधार के बावजूद सर्दियों के दौरान प्रदूषण चरम पर पहुंच रहा है और कई इलाकों में यह और ज्यादा बढ़ रहा है।

दिल्ली स्थित क्लाइमेट-टेक स्टार्ट-अप रेस्पिरर लिविंग साइंसेज ने 11 महानगरों की वायु गुणवत्ता पर 4 साल (2021-2024) तक अध्ययन किया। इस रिसर्च में भारत के प्रमुख शहरी केंद्रों में पार्टिकुलेट मैटर से होने वाले प्रदूषण के खतरनाक स्तर दिखाई दिए। अध्ययन में पाया गया कि सभी 11 महानगरों में पीएम 10 का स्तर राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों को लगातार पार करता रहा। सरकारी नीतियों के बावजूद प्रदूषण का स्तर ज्यादा ही बना रहा। सबसे खराब हालात उत्तर भारत में रहे। दिल्ली, पटना, लखनऊ और चंडीगढ़ जैसे शहरों में वायु गुणवत्ता विशेष रूप से बेहद खतरनाक दर्ज की गई। 2024 में दिल्ली के आनंद विहार निगरानी केंद्र ने पीएम 10 का स्तर 313.8 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया। वहीं पटना के समनपुरा क्षेत्र में यह स्तर 237.7 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच गया। यह दोनों आंकड़े राष्ट्रीय सुरक्षा मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कई गुना अधिक हैं।

यहां तक कि जिन शहरों की वायु गुणवत्ता पारंपरिक तौर पर बेहतर मानी जाती रही है, वे भी सुरक्षा मानकों को पूरा करने में असफल रहे। बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे कुछ दक्षिणी और तटीय शहरों में कुछ निगरानी केंद्रों पर कुछ सुधार जरूर देखा गया, लेकिन लगातार पिछले चार वर्षों से कोई भी शहर सुरक्षा मानकों पर खरा नहीं उतर पाया है। रेस्पिरर लिविंग साइंसेज के संस्थापक और सीईओ रोनक सुतारिया ने कहा, “यह बात सिर्फ कभी-कभार प्रदूषण बढ़ने से संबंधित नहीं है। हम पूरे साल लगातार प्रदूषण से जूझना पड़ रहा है, जिसकी वजह से शहरी आबादी लंबे समय तक खतरनाक कणों के संपर्क में रहती है।” उन्होंने कहा, “हमारे आंकड़ों में ज्यादातर जगहों पर प्रदूषण में कोई ठोस या दीर्घकालिक गिरावट नहीं दिखाई दी।”

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यह सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की पुस्तक “सांसों का आपातकाल” के पहले अध्याय का हिस्सा है। सभी अध्यायों को सिलसिलेवार डाउन टू अर्थ की वेबसाइट पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस किताब में बताया गया है कि पिछले 40 सालों में भारत ने वायु प्रदूषण और उससे लड़ने की कोशिशों का सफर कैसा तय किया है