फाइल फोटो: सीएसई 
वायु

सांसों का आपातकाल: गंगा के तटीय क्षेत्रों में रह रहे बच्चे बन रहे सांसों के मरीज

सीएसई की किताब "सांसों का आपातकाल" में गंगा के तटीय क्षेत्रों में बढ़ रहे वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में बढ़ रही बीमारियों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। पढ़ें एक और कड़ी-

Centre for Science and Environment

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "सांसों का आपातकाल" में प्रकाशित अध्यायों की कड़ी में पढ़ें एक और कड़ी -

डॉक्टरों का कहना है कि गंगा के तटीय यानी इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र में बच्चों में श्वसन रोगों में तेजी से वृद्धि हुई है। यहां की वायु गुणवत्ता लगभग पूरे साल “खराब” श्रेणी में रहती है। पुणे की क्लाइमेट टेक्नोलॉजी कंपनी रेस्पिरर लिविंग साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड के विश्लेषण के अनुसार, देश के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में से 7 शहर इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र के ही हैं।

2018 में गैर-लाभकारी संस्था क्लाइमेट एजेंडा ने उत्तर प्रदेश के 14 जिलों का अध्ययन किया और वायु प्रदूषण पर “एयर किल्स” नाम से एक रिपोर्ट जारी की। पेपर में पाया गया कि गोरखपुर और मऊ जैसे छोटे शहर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और यूपी की राजधानी लखनऊ से भी अधिक प्रदूषित हैं।

इसमें कहा गया है कि वायु प्रदूषण से ग्रामीण क्षेत्र भी प्रभावित हैं और पूरा राज्य “स्वास्थ्य आपातकाल” का सामना कर रहा है। दिल्ली स्थित सीएसई ने अक्टूबर 2022 से फरवरी 2023 तक, सर्दियों के दौरान बिहार की वायु गुणवत्ता का विश्लेषण किया। इसमें पाया गया कि राज्य के कम से कम 10 कस्बों में पीएम 2.5 का स्तर दिल्ली से भी काफी अधिक है।

यह स्थिति चिंताजनक है। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र वाले राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में देश के लगभग आधे बच्चे (0-14 वर्ष) रहते हैं। वहीं, वायु प्रदूषण के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील 5 साल से कम उम्र के लगभग दो-तिहाई बच्चे भी यहीं रहते हैं।

सीएसई के वैज्ञानिक मोहन पी जॉर्ज ने कहा, “आईजीपी में एक चार सप्ताह का शिशु, जिसका वजन 4 किलो है और जो प्रति मिनट 40 बार सांस लेता है, वह प्रति दिन 184 माइक्रोग्राम पीएम 2.5 सांस के जरिए ग्रहण करता है।” जॉर्ज की गणना क्षेत्र की हवा में पीएम 2.5 के 100 माइक्रोग्राम के वार्षिक औसत स्तर पर आधारित थी।

कोलकाता में नवंबर 2023 में आयोजित इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में तीन दशकों से अधिक समय से कार्यरत बाल रोग विशेषज्ञ सुभमोय मुखर्जी ने बताया, “मैं शहर के उत्तरी क्षेत्र में बच्चों का इलाज करता हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि पिछले कुछ दशकों में रोगियों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, लेकिन दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों ही वास्तविक प्रभाव को बताना मुश्किल है क्योंकि आंकड़े अपर्याप्त हैं।”

एक अन्य प्रसिद्ध पल्मोनोलॉजिस्ट अरूप हलदर ने बताया कि बच्चों में पहली पीढ़ी के अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं। विशेषकर सर्दियों में जब वायु प्रदूषण बढ़ता है तो श्वसन संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं। पहले अस्थमा के रोगियों के मामले में हम आमतौर पर पारिवारिक इतिहास देखते थे, लेकिन अब बिना पारिवारिक इतिहास के बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे वायु प्रदूषण की वजह से बीमार पड़ रहे हैं।

इसी तरह, सर्दियों के दौरान जब वायु प्रदूषण बढ़ता है तो बिहार के सरकारी अस्पतालों और निजी क्लीनिकों में सांस की बीमारी की वजह से बच्चों, खासकर शिशुओं की संख्या में बढ़ जाती है। इलाज करने वाले डॉक्टरों ने इसके लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार बताया।

पटना स्थित सरकारी नालंदा मेडिकल कॉलेज (एनएमसीएच) में बाल चिकित्सा विभाग के प्रोफेसर अतहर अंसारी बताते हैं कि अस्पताल आने वाले करीब एक तिहाई बच्चे और नवजात शिशुओं को सांस लेने में कठिनाई हो रही होती है। डॉ. अंसारी ने कहा, “वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में एलर्जी बढ़ रही है।

हम बड़ी संख्या में बच्चों के स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण का प्रभाव देख रहे हैं, क्योंकि वे खराब वायु गुणवत्ता का सामना नहीं कर पा रहे हैं।” पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) के स्त्री रोग विभाग के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा, “हमारे सामने ऐसे कुछ मामले आए हैं जैसे नवजात बच्चे प्रसव के तुरंत बाद नहीं रोते हैं और वायु प्रदूषण के प्रभाव के कारण उनके अति सक्रिय वायु मार्गों में ऑक्सीजन की कमी के कारण उन्हें सांस लेने में कठिनाई होती है।”

हवा के बहाव से होने वाला प्रदूषण का फैलाव इस क्षेत्र के वायु गुणवत्ता प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके लिए न केवल प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों को देखना होगा, बल्कि हवा के साथ बहकर आए प्रदूषण के बाहरी स्रोतों पर भी ध्यान देना होगा। जहां बड़े पैमाने पर प्रदूषण होता है, वहां से हवा जिस दिशा में बहती है, उस दिशा में आने वाले इलाकों में प्रदूषण का असर सबसे ज्यादा महसूस होगा।

हवा प्रदूषण को अपने साथ उड़ाकर ले जाती है और जिस तरफ वह जाती है, उधर प्रदूषण ज्यादा फैलता है। प्रदूषक लंबी दूरी तय कर सकते हैं, जिससे हवा के बहाव वाले क्षेत्रों के लिए स्वच्छ वायु मानकों को पूरा करना कठिन हो जाता है। इस बात के सबूत पहले से मौजूद हैं कि दिल्ली जैसे शहर में प्रदूषण का 60 फीसदी हिस्सा दूसरे शहरों से आता है। जबकि, सर्दियों के दौरान उत्तर प्रदेश (यूपी) के नोएडा में पार्टिकुलेट मैटर के प्रदूषण का 40 फीसदी हिस्सा खुद दिल्ली से उड़कर पहुंचता है।

आईजीपी क्षेत्र में प्रदूषण की यह घटना बड़ी चिंता का विषय बन चुकी है। यह क्षेत्र कई मायनों में खास है। यहां का मौसम प्रदूषण के अनुकूल है, यह इलाका चारों तरफ से जमीन से घिरा हुआ है और यहां प्रदूषण के साथ-साथ आबादी भी बहुत ज्यादा है। इन वजहों से यहां प्रदूषण की समस्या बहुत गंभीर हो गई है। इसी गंभीरता को देखते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 9 सितंबर 2021 को एक आदेश जारी किया। इसमें एनजीटी ने कहा कि दूसरे इलाकों के मुकाबले आईजीपी में प्रदूषण बहुत ज्यादा है और इसे कम करने के लिए और बेहतर व उन्नत तरीके अपनाए जाने चाहिए।

इस आदेश के बाद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तहत विशेषज्ञ समिति ने आईजीपी का एकीकृत मूल्यांकन किया और एक क्षेत्रीय उत्सर्जन सूची तैयार की। इसमें बताया गया कि इस क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सबसे अधिक पीएम 2.5 उत्सर्जित करने वाला राज्य है, उसके बाद पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब और हरियाणा का स्थान आता है।

इस क्षेत्र में कुल उत्सर्जन के 48.5 प्रतिशत हिस्से के लिए अकेले उद्योग क्षेत्र ही जिम्मेदार है। 19 फीसदी उत्सर्जन घरों में खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किए गए ठोस ईंधन से होता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल का पाया गया। खाना पकाने के किफायती ऊर्जा स्रोत चुनौती बने हुए हैं। परिवहन प्रदूषण में सबसे ज्यादा योगदान दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ जैसे महानगरों और औद्योगिक क्षेत्रों का है।

आईजीपी के किसी भी शहर या कस्बे के लिए स्वच्छ वायु के लक्ष्य को हासिल करना तब तक मुश्किल साबित होगा, जब तक पूरे क्षेत्र का प्रदूषण कम करने के लिए कदम न उठाए जाएं। ऐसे बड़े भौगोलिक क्षेत्र एयरशेड कहलाते हैं, जहां प्रदूषक वायुमंडल में फंस जाते हैं और हवा के प्रवाह के साथ बहते हुए प्रदूषण फैलाते हैं।

अभी तक आईजीपी में एयरशेड के एकीकृत प्रबंधन का कोई औपचारिक ढांचा मौजूद नहीं है, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके। यह ढांचा इसलिए जरूरी है, क्योंकि प्रदूषण किसी एक शहर या राज्य की सीमा में नहीं रहता, बल्कि हवा के साथ कई प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रों में फैल जाता है। इसे नियंत्रित करने के लिए सभी संबंधित राज्यों और अधिकारियों को मिलकर काम करना होगा, जिसके लिए एक खास कार्यकारी ढांचे और राज्य परिषदों की जरूरत पड़ेगी।

अच्छी बात यह है कि दिल्ली और एनसीआर में ऐसे एक मॉडल की स्थापना हो चुकी है। लोगों के आंदोलन, अदालतों के दखल और फिर “वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग” के बनने से यह साबित हो गया है कि एनसीआर के चार राज्यों में प्रदूषण को क्षेत्रीय स्तर पर एकसाथ मिलकर नियंत्रित किया जा सकता है। अब इस सफल उदाहरण का इस्तेमाल भारत के बाकी हिस्सों में भी ऐसे ही ढांचे के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। दुनिया भर में कई देशों ने अपने यहां और दूसरे देशों के साथ मिलकर सीमा पार प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ऐसे ढांचे बनाना शुरू कर दिए हैं।

जारी ...