‘जय जवान–जय किसान–जय विज्ञान’ उद्घोष के साथ शुरू हुई हरित क्रांति भारतीय कृषि का स्वर्णिम काल रही है, जिसने देश को कृषि उत्पादकता और आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाया। हरित क्रांति तकनीक अपनाने से पिछले छह दशकों में खाद्यान्न उत्पादन 50 मिलियन टन से बढ़कर 300 मिलियन टन तक पहुंचा। इसी तरह अन्य कृषि उत्पादों जैसे फलों, सब्जियों, दूध, मांस, अंडे, कपास आदि में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई।
ब्रिटिश शासनकाल के बंगाल प्रांत में वर्ष 1943 में अनाज की कमी से उत्पन्न अकाल में 30 लाख लोगों की भूख से मृत्यु हुई थी। उस समय मानसूनी वर्षा की विफलता के कारण राज्यों का अकालग्रस्त होना आम बात थी।
कृषि को सुरक्षित बनाने के लिए पंजाब में 1945 में सर छोटूराम ने भाखड़ा डैम योजना को स्वीकृत किया। इसका निर्माण 1946 में प्रारंभ होकर 1956 में भाखड़ा नहर बनने पर पूरा हुआ, जिससे पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के विशाल भू-भाग में सिंचाई की व्यवस्था संभव हुई।
इसके अलावा, वहां से उत्पन्न बिजली से संचालित ट्यूबवेलों के विस्तार से भूजल आधारित सिंचाई सुनिश्चित हुई। पिछले पांच दशकों से हरियाणा–पंजाब का केंद्रीय खाद्य भंडार में प्रमुख योगदान रहा है। इसी तरह मानसूनी वर्षा पर निर्भरता कम करने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में नहरों, नलकूपों और बांधों का निर्माण करके सिंचाई सुविधाओं का उल्लेखनीय विस्तार किया गया।
सदियों तक भारतीय कृषि कम उत्पादकता वाले बीज और पारंपरिक खेती पद्धति पर निर्भर रही। ब्रिटिश शासनकाल में 1905-06 के दौरान भारत में पूसा (सबौर), कानपुर, नागपुर, कोयंबटूर और लायलपुर में पांच प्रमुख कृषि महाविद्यालय स्थापित हुए, जिससे वैज्ञानिक कृषि शिक्षा की शुरुआत हुई।
स्वतंत्रता के बाद अमेरिकी लैंड-ग्रांट पद्धति पर विभिन्न राज्यों में कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। इसके अतिरिक्त उन्नत बीज उत्पादन और वितरण के लिए ‘स्टेट फार्म्स कॉर्पोरेशन’ और ‘राष्ट्रीय बीज निगम’ का गठन किया गया तथा उर्वरकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए ‘इफ्को’ जैसी सहकारी संस्था बनाई गई।
अंतरराष्ट्रीय गेहूं और धान अनुसंधान संस्थानों का हरित क्रांति की सफलता में उल्लेखनीय योगदान रहा। हरित क्रांति के जनक, नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. नॉर्मन बोरलॉग की बौनी गेहूं किस्में और अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान की धान किस्में अपनाने से अनाज उत्पादन में कई गुना वृद्धि हुई। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थानों द्वारा विकसित बाजरा, ज्वार आदि की संकर किस्में और गेहूं–धान सहित अन्य फसलों के उन्नत बीजों ने हरित क्रांति को टिकाऊ बनाने में मदद की।
महंगी तकनीक अपनाने से बढ़ी खेती की लागत को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955’ के अंतर्गत 1966 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नीति लागू की। वर्तमान में इस नीति के अंतर्गत केंद्र सरकार 24 फसलों के एमएसपी घोषित करती है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए किसानों से अनाज खरीदती है, जो आमतौर पर कुल उत्पादन का लगभग 10% होता है। शेष अनाज को बिचौलिये घोषित एमएसपी से कम कीमत पर खरीदकर किसानों का शोषण करते हैं।
विडंबना है कि वैश्विक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत केंद्र सरकार एमएसपी की घोषणा सी-2 लागत (कुल उत्पादन लागत) पर नहीं, बल्कि ए-2+एफएल लागत पर करती है। हरियाणा–पंजाब से होने वाली लगभग 40 मिलियन टन वार्षिक सरकारी खरीद पर यह अंतर किसानों के लिए 30,000 करोड़ रुपए से अधिक के शोषण के बराबर है।
एमएसपी पर गारंटी कानून की मांग को लेकर किसान संगठन वर्षों से संघर्षरत हैं। इसके अतिरिक्त, सरकार एमएसपी पर खरीदे गए खाद्यान्न को ‘डंपिंग’ के जरिए आटा मिल मालिकों और चावल व्यापारियों को लागत से कम मूल्य पर बेचकर किसानों को भारी आर्थिक नुकसान पहुंचाती है। सरकारी–बिचौलिया–साहूकार गठजोड़ से होने वाले इस शोषण ने आत्मनिर्भरता के प्रतीक किसान को कर्ज के बोझ तले दबा दिया है, जिससे कई किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हुए हैं।
निस्संदेह, हरित क्रांति से अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियां अपनाने के कारण कुछ क्षेत्रों में समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, इसमें मिट्टी का क्षरण, जल प्रदूषण, भूजल का अत्यधिक दोहन और रसायनों का अति प्रयोग इनमें प्रमुख हैं। इनके समाधान के लिए सतत कृषि तथा मृदा एवं जल संरक्षण योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।
लेकिन सरकार द्वारा सुझाए जा रहे कुछ समाधान किसानों के लिए अव्यावहारिक हैं और भ्रांतियां फैलाते हैं। हरित क्रांति की स्वर्णिम उपलब्धियों के बावजूद सदियों पुरानी ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ को बढ़ावा देना किसानों को भ्रमित करना है, जो भविष्य में देश की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
सहकारी संस्था ‘इफ्को’ द्वारा हजारों करोड़ रुपये के अप्रमाणिक नैनो-उर्वरक की जबरन बिक्री किसानों से खुली लूट है। दिल्ली स्थित कृषि अनुसंधान संस्थान ‘हाइड्रोजल’ (डायपर पाउडर) को सिंचाई के विकल्प और ‘बायोडीकंपोज़र’ को धान की पराली के समाधान के तौर पर प्रचारित करके किसानों को गुमराह कर रहा है। जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की अनुमति देना देश की कृषि और जैव विविधता दोनों के लिए बड़ा खतरा है।
पोर्टल पर फसल पंजीकरण के बाद किसानों को उर्वरक देने का सरकारी आदेश नीति-निर्माण में गंभीर दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है। देश में बिक रहे अप्रमाणिक बीज, उर्वरक और रसायन किसानों से सीधी लूट हैं। सरकारी फसल बीमा योजना किसानों की बजाय बीमा कंपनियों के अनुचित लाभ के लिए बनाई गई है।
बिना व्यावहारिक समाधान दिए, पराली जलाने के लिए किसानों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करना और उन पर जुर्माना लगाना दमनकारी कदम है, जबकि पराली दहन के लिए स्वयं तंत्र जिम्मेदार है जिसने 2018 के आदेश के बावजूद कंबाइन हार्वेस्टर पर ‘एसएमएस’ उपकरण अनिवार्य नहीं किया। इसे लागू करने पर किसान गहरी जुताई द्वारा पराली को भूमि में दबाकर आसानी से जैविक खाद बना सकते हैं।
हरित क्रांति का एक महत्वपूर्ण पहलू भूजल आधारित सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग रहा है। कृषि रसायनों के इस गहन प्रयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य से संबंधित चिंताओं को जन्म दिया है। इनके न्यायसंगत उपयोग से ही हरित क्रांति को टिकाऊ बनाने वाली कृषि पद्धतियां विकसित हो सकती हैं।