कृषि

आवरण कथा- सरकार के वादे, किसानों की बर्बादी: चंदन की खेती का सच

डाउन टू अर्थ ने कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 19 गांवों की यात्रा कर जाना यह सच

Himanshu Nitnaware

जब के. शरणप्पा ने वर्ष 2009 में अपनी 2.8 हेक्टेयर भूमि में 1,000 चंदन के पौधे लगाए थे तब वे सिर्फ पेड़ नहीं उगा रहे थे, वे अपना भविष्य दांव पर लगा रहे थे और वह भी एक ऐसी चीज पर जिसका व्यापार कभी प्रतिबंधित हुआ करता था। व्यावसायिक रूप से देश की सबसे मूल्यवान वृक्ष प्रजातियों में से एक भारतीय चंदन (सैंटलम एल्बम) की लकड़ी बेशकीमती होती है।

उच्च गुणवत्ता वाले भारतीय चंदन की कीमत 78 लाख रुपए प्रति टन (1,000 किलोग्राम) तक होती है जिसके कारण इसे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में “डॉलर कमाने वाला परजीवी” उपनाम दिया गया है। कर्नाटक के कोपल जिले में स्थित अदापुरा गांव के निवासी शरणप्पा ने एक सरल योजना बनाई थी, 15 वर्षों में पेड़ बड़े हो जाते जिससे उन्हें अनुमानित 4 करोड़ रुपए की कमाई होती। यह राशि राज्य सरकार के एक पुलिस अधिकारी के रूप में मिलने वाले उनके मामूली वेतन से कई सौ गुना अधिक है। वह बताते हैं, “मैंने 2023 में अपनी सेवानिवृत्ति के समय को ध्यान में रखकर यह योजना बनाई थी। मैंने सोचा था कि मैं आर्थिक रूप से सुरक्षित हो जाऊंगा और मेरे बेटों को एक संपन्न व्यवसाय विरासत में मिलेगा।” हालांकि वह आगे कहते हैं, “लेकिन अब यह एक बोझ बन गया है।” उनकी आवाज जो कभी उम्मीद से भरी थी अब उसमें मोहभंग का वजन साफ महसूस होता है।

नवंबर 2024 में डिस्कवर एप्लाइड साइंसेज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार शरणप्पा कर्नाटक में चंदन के वृक्ष लगाने वाले पहले लोगों में से हैं। भारत के प्राकृतिक चंदन का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा कर्नाटक में पाया जाता है। उन्होंने चंदन की खेती दो दशक पहले शुरू की थी जब कर्नाटक सरकार ने चंदन के व्यापार पर सरकारी नियंत्रण ढीला किया था। 1792 में तत्कालीन मैसूर राज्य ने इसे “शाही पेड़” घोषित किया था। तब से चंदन की कटाई और बिक्री पर सरकार का एकाधिकार बना रहा है। भले ही चंदन का पेड़ किसी की निजी जमीन पर प्राकृतिक रूप से उगा हो फिर भी भूस्वामी का उस पर कोई अधिकार नहीं होता था। केवल यही नहीं पेड़ के संरक्षण की जिम्मेदारी भी उस पर होती थी।

हालांकि, 2001 की स्थिति में परिवर्तन आया है। कर्नाटक वन (संशोधन) अधिनियम पारित किया गया जिसने निजी व्यक्तियों को चंदन की खेती करने की अनुमति प्रदान की। लेकिन इसमें एक पेंच था, व्यापार अब भी सरकार के नियंत्रण में ही था। 2008 में एक छोटी सी सफलता तब हासिल हुई जब कर्नाटक ने दो राज्य समर्थित एजेंसियों कर्नाटक सोप्स एंड डिटर्जेंट लिमिटेड (केएसडीएल) और कर्नाटक स्टेट हैंडीक्राफ्ट्स डेवलपमेंट कारपोरेशन (केएसएचडीसी) को निजी उत्पादकों से सीधे चंदन खरीदने की अनुमति दी। 2022 में एक और बड़ा बदलाव तब आया जब कर्नाटक वन (संशोधन) नियमों ने आखिरकार किसानों को अपनी फसल राज्य सरकार के अलावा किसी भी “संस्था या किसी राज्य सरकार के उपक्रम” को बेचने की अनुमति प्रदान की। जैसा कि 2024 के अध्ययन में कहा गया है कर्नाटक ने बागवानी विभाग द्वारा समर्थित सार्वजनिक वितरण के लिए पौधे उगाने की पहल के साथ-साथ सिरीचंदन वन और कृषि अरण्य योजना जैसी विभिन्न योजनाएं भी शुरू की हैं।

भारत में प्रारंभ से ही चंदन के उत्पादन और बिक्री को विनियमित अवश्य किया गया है लेकिन कभी भी न तो चंदन के डिस्टिलर्स पर प्रतिबंध लगाया गया है और ना ही लकड़ी की नक्काशी करने वाले कारीगरों पर। दरअसल डिस्टिलर्स पेड़ से बेशकीमती हार्टवुड तेल को निकालते हैं। इस नीतिगत अंतर से एक अवैध व्यापार को बढ़ावा मिला था। प्रतिबंधों में ढील देने के पीछे कर्नाटक सरकार का उद्देश्य तस्करी पर अंकुश लगाना और भारत की घटती चंदन की संख्या को पुनर्जीवित करना था। न्यू फाइटोलॉजिस्ट फाउंडेशन के 2022 के एक अध्ययन के अनुसार 1900 के दशक के अंत में राज्य में केवल 4,360 कटाई योग्य चंदन के पेड़ बचे थे। 1997 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने भारतीय चंदन को “वल्नरेबल” अथवा दुर्बल के रूप में वर्गीकृत किया और यह चेतावनी भी दी कि 30 सेंटीमीटर व्यास से अधिक के पेड़ दुर्लभ हो चुके थे।

कर्नाटक के शिवमोग्गा में स्थित केलाडी शिवप्पा नायक कृषि और बागवानी विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत का वार्षिक चंदन उत्पादन भी 1960 के दशक के 4,000 टन से गिरकर 2014 में केवल 350 टन रह गया है। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि इस कमी के कारण भारत को 2019 से 2024 के बीच ऑस्ट्रेलिया से लगभग 20,000 किलोग्राम चंदन आयात करना पड़ा है जिसकी कीमत 100 करोड़ रुपए है।

बेंगलुरु स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ वुड साइंस एंड टेक्नोलॉजी (आईडब्ल्यूएसटी) के प्रमुख राजेश कालेजे बताते हैं कि हालांकि कर्नाटक ने 2001 में चंदन की खेती पर प्रतिबंध हटा लिया था लेकिन “इस बात का कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है कि कितने किसान चंदन की लकड़ी उगा रहे हैं।” देहरादून में भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद के अंतर्गत आनेवाला यह संस्थान चंदन अनुसंधान के लिए जाना जाता है। वे आगे कहते हैं, “हमें तभी पता चलता है जब कोई कटाई की अनुमति मांगता है और हम उसकी पुष्टि करने के लिए खेत का दौरा करते हैं।”

के अमरनारायण चंदन उगाते हैं और गैर-लाभकारी संस्था कर्नाटक सैंडलवुड एंड फार्म फॉरेस्ट्री ग्रोअर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। वह कहते हैं कि 550 चंदन के किसान इस नेटवर्क से जुड़े हैं। केएसडीएल के अनुसार कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में कम से कम 1,000 किसान चंदन की खेती शुरू कर चुके हैं। उनमें से अधिकांश के पेड़ अब परिपक्व हो चुके हैं और बस यह देखना बचा है कि इस लकड़ी पर लगाया उनका दांव सही बैठेगा या नहीं।

कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के येल्लापुरा गांव के किसान जया गौड़ा चंदन की चोरी के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने 8,000 पेड़ लगाए थे। पिछले एक साल में उनके 40,000 रुपए के परिपक्व पेड़ चोरी हो गए हैं। अपने बगीचे की सुरक्षा के लिए 10 सीसीटीवी कैमरे लगाने पर उन्होंने 2.5 लाख रुपए खर्च किए हैं फिर भी चोरी जारी है

फीकी पड़ती सुगंध

शरणप्पा ने जो 1,000 पौधे लगाए थे, उनमें से केवल 650 ही जीवित बचे हैं। इससे भी दुखद बात 2024 में हुए एक निरीक्षण में पता चली कि पेड़ों में पर्याप्त मात्रा में हार्टवुड विकसित नहीं हुआ है। हार्टवुड वह कठोर अंदरूनी हिस्सा होता है जो चंदन को मूल्यवान बनाता है।

चंदन का एक पेड़ आठ से 10 साल में परिपक्व होना शुरू हो जाता है लेकिन असली पुरस्कार यानि कि सुगंधित तेल से भरपूर हार्टवुड 10वें वर्ष के बाद से ही बनता है। एक आईडब्ल्यूएसटी वैज्ञानिक ने नाम न बताने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताया कि हार्टवुड को पूरी तरह विकसित होने में कम से कम 20-25 साल लगते हैं। हार्टवुड जितना सघन होगा उसका व्यावसायिक मूल्य उतना ही अधिक होगा क्योंकि फिर उसका उपयोग इत्र, धूपबत्ती और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में किया जा सकता है। हालांकि शरणप्पा के पेड़ अब 15 साल पुराने हो चुके हैं लेकिन मूल्यांकन करने वाले आईडब्ल्यूएसटी के वैज्ञानिकों ने उन्हें अगले 5-10 साल तक इंतजार करने का सुझाव दिया है ताकि हार्टवुड बेहतर विकसित हो सके।

इस लंबे इंतजार की भारी कीमत किसान को चुकानी पड़ती है। वास्तविकता में पेड़ों के परिपक्व होने के दौरान किसानों को भारी खर्च करना पड़ता है। चोरी भी बड़े पैमाने पर होती है। चंदन के बागानों की रखवाली के लिए निरंतर सतर्कता की आवश्यकता होती है। मसलन बाड़ लगाना, सुरक्षाकर्मी और सीसीटीवी कैमरे को लगाने जैसे काम करने पड़ते हैं। कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के येल्लापुरा गांव के जया गौड़ा ने 15.7 हेक्टेयर में 8,000 पेड़ लगाए थे। 2024 में चोरी के कारण उन्हें 40,000 रुपए मूल्य के परिपक्व पेड़ों की हानि हुई है। उन्होंने 10 सीसीटीवी कैमरे लगाए जिसमें 2.5 लाख रुपए का खर्च आया था। आईडब्ल्यूएसटी अधिकारी का कहना है कि चोरी के डर से कई उत्पादक 15 साल के पहले ही अपने चंदन के पेड़ों को काट लेते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें हानि उठानी पड़ती है।

आईडब्ल्यूएसटी द्वारा चंदन की खेती पर दिसंबर 2023 में प्रकाशित ब्रोशर के अनुसार 1 हेक्टेयर चंदन की लकड़ी के लिए निवेश लागत (पौधे, स्थानीय पौधे ,सिंचाई और रखरखाव) 15 वर्षों में 27.5 लाख रुपए तक है। चूंकि चंदन एक अर्ध परजीवी है जो पानी और पोषक तत्वों के लिए अन्य पौधों पर निर्भर करता है इसलिए मेजबान पौधों की आवश्यकता होती है। हालांकि चंदन के लिए उपयुक्त 150 से अधिक मेजबान वृक्षों की प्रजातियां हैं लेकिन कर्नाटक में किसान आमतौर पर आम और जामुन (काला बेर) जैसे फलों के पेड़ या महोगनी जैसे लकड़ी के पेड़ उगाते हैं। ये वृक्ष अतिरिक्त आय का साधन होते हैं। आईडब्ल्यूएसटी ब्रोशर में यह भी कहा गया है कि 1 हेक्टेयर में 320 वृक्ष लगाए जाने चाहिए जिससे एक किसान लगभग 2,240 किलोग्राम हार्टवुड (7 किलोग्राम प्रति पेड़) प्राप्त कर सकता है। इसका मूल्य 1.34 करोड़ रुपए होगा। लागत घटाने के बाद 1.06 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ होता है। हालांकि, यह आदर्श स्थिति है।

इस मामले में सबसे बड़ी निराशा हार्टवुड के गुणवत्ता की है। कर्नाटक के रामनगर जिले के गुडेमरनहल्ली गांव के पी. बायरप्पा ने वर्ष 2014 में 2,100 पौधे लगाए थे। दस साल बाद अब पेड़ बड़े हो गए हैं लेकिन हार्टवुड उम्मीद के मुताबिक नहीं है। बायरप्पा कहते हैं, “आईडब्ल्यूएसटी अधिकारियों ने मुझे बताया है कि हार्टवुड की मात्रा कम है। अब मुझे एहसास हो रहा है कि यह एक तरह का जुआ है।”

किसान यह भी पूछ रहे हैं कि क्या खेतों में उगाए जाने वाले चंदन और जंगल में उगने वाले चंदन की लकड़ी की गुणवत्ता समान होती है। नाम न बताने की शर्त पर कर्नाटक के एक वन अधिकारी कहते हैं, “नहीं। जंगल में पेड़ सूखे, कीटों और प्रतिस्पर्धा को झेलते हैं। इस तनाव से उबरने लिए वे कार्बनिक यौगिक स्रावित करते हैं जिससे अंततः उच्च गुणवत्ता वाले हर्टवुड का निर्माण होता है। लेकिन अच्छी तरह से बनाए गए बागानों में पेड़ आराम से बढ़ते हैं। बगीचों में उगाए चंदन में हार्टवुड इस कारण विकसित नहीं होता है।”

यह समस्या तब और बढ़ जाती है, जब पेड़ों की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए किया गया सिंचाई और उर्वरकों का उपयोग अक्सर हार्टवुड के बजाय लकड़ी का नया व मुलायम या जैविक रूप से सक्रिय बाहरी भाग जिसे सैपवुड कहते हैं,उसकी मात्रा में वृद्धि करता है।

गुणवत्ता के इस अंतर से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। केएसडीएल खेतों में उगाए जाने वाले अधिकांश चंदन को मिल्वा चिल्टा के रूप में वर्गीकृत करता है। यह हर्टवुड और सैपवुड का मिश्रण होता है जिसकी कीमत केवल 4,000- 5,000 रुपए प्रति किलोग्राम है। इसके विपरीत उच्च गुणवत्ता वाला हर्टवुड 20,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक बिकता है और यह मुख्यतः जंगलों में पाया जाता है। चंदन की लकड़ी से तेल बनने की दर प्रति 100 किलोग्राम मात्र 2-3 प्रतिशत है, जिसका अर्थ है कि एक लीटर तेल भी 2 लाख रुपए तक में बिक सकता है। लेकिन खेतों में उगाए गए चंदन की लकड़ी शायद ही कभी इस मानक पर खरा उतर पाती है। केएसडीएल के अधिकारी बताते हैं कि किसानों से प्राप्त केवल 2-3 प्रतिशत पेड़ों में ही अच्छी गुणवत्ता वाला हार्टवुड होता है।

लगातार बढ़ते घाटे के फलस्वरूप वैज्ञानिक और वन अधिकारी अब वृक्षारोपण के तरीके को पूरी तरह से बदलने की सिफारिश कर रहे हैं। वृक्षों को सिंचाई और उर्वरक देने के बजाय उन्हें जंगल जैसी परिस्थितियों में उगाने का सुझाव दिया जा रहा है, जैसे न्यूनतम पानी, सूखे से उत्पन्न होने वाला तनाव और मौसम में अत्यधिक बदलाव आदि। किसानों को भी चाहिए कि वे देशी एवं उच्च गुणवत्ता वाले आनुवंशिक स्टॉक के पौधे ही लगाएं। अमरनारायण कहते हैं, “वन प्रभाग 2001 से ही अपने नेटवर्क के किसानों को चंदन उगाने की सलाह दे रहे हैं। राज्य सरकार ने 2012 में श्रीचंदन वन कार्यक्रम भी शुरू किया। अखबारों में विज्ञापनों के माध्यम से किसानों को अप्रत्याशित लाभ के सपने दिखाए गए। अब जब पेड़ों की कटाई का समय आ चुका है तब वे एक अलग ही कहानी बता रहे हैं। हम अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।”

लाल चंदन के व्यापारी कामराज रेड्डी और उनके बेटे वरदराज रेड्डी का कहना है कि कोविड-19 महामारी के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी आई है। कभी लग्जरी फर्नीचर के लिए अमीर चीन के खरीदारों के बीच भारी मांग में रहनेवाली इस लकड़ी की बिक्री में गिरावट देखी गई है क्योंकि चीन का रियल एस्टेट क्षेत्र संघर्ष कर रहा है

नए नियम, समस्याएं पुरानी

अगर कोई हार्टवुड के परिपक्व होने का इंतजार कर भी ले वैसी स्थिति में भी पेड़ों को काटना और बेचना आसान नहीं है। हालांकि चंदन की लकड़ी उगाने के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है लेकिन कर्नाटक वन (संशोधन) नियम, 2022 कहता है कि चंदन की लकड़ी की कटाई और परिवहन दोनों के लिए वन विभाग से पूर्व अनुमति अनिवार्य है। प्रत्येक कटाई के लिए कठोर सत्यापन की आवश्यकता होती है। वन अधिकारियों के सामने पहले यह प्रमाणित करना होगा कि पेड़ निजी भूमि पर उगाया गया है न कि जंगल में। उसके उपरांत ही भूमि रिकॉर्ड की जांच के लिए राजस्व विभाग को आवेदन भेजा जाता है। पेड़ को काटने की अनुमति उसके बाद ही दी जाती है। पेड़ की कटाई भी वन अधिकारियों की देखरेख में ही की जानी चाहिए। चंदन की कटाई के लिए आवेदन हेतु राज्य सरकार की वेबसाइट के अनुसार परमिट 30 दिनों के भीतर जारी हो जाना चाहिए फिर भी कुछ मामलों में तो किसानों को दो वर्ष तक का लंबा इंतजार करना पड़ता है।

कर्नाटक के रायचूड़ जिले के सुगुरु गांव के साठ वर्षीय अडप्पा को अपने चंदन के पेड़ों की कटाई हेतु अनुमति प्राप्त करने के लिए एक साल तक इंतजार करना पड़ा। उन्हें अनुमति मिल पाती इससे पहले ही चोरों ने हाथ साफ कर दिया। जुलाई 2023 में उनके खेत से 11 पेड़ चुरा लिए और उसके अगले महीने चार और पेड़ चुरा लिए। उन्हें अगस्त 2024 में जाकर अनुमति मिली। वह कहते हैं, “मैंने पेड़ों की रखवाली करने के लिए अपने कुत्ते के साथ खेतों में कई महीने गुजारे और अनुमति के लिए सरकारी कार्यालयों के बार-बार चक्कर लगाए।”

ठीक इसी प्रकार कर्नाटक के कलबुर्गी जिले के यारानाले गांव के रवि तेजा ने 28 अगस्त 2022 को एक पेड़ चोरी होने की सूचना दी और अपने 2,000 पेड़ों वाले बगीचे से 100 परिपक्व पेड़ों को तुरंत काटने के लिए आवेदन किया। वह कहते हैं, “वन विभाग ने मुझे बिना मतलब की कागजी कार्रवाई के बोझ तले दबा दिया और पेड़ों के स्वामित्व को सत्यापित करने के लिए कई दस्तावेजों की मांग की।” हताश होकर उन्होंने 28 अगस्त 2024 को मंत्रिस्तरीय बैठक में अपना मामला रखने का फैसला किया। 600 किलोमीटर से अधिक की इस यात्रा के बाद ही उन्हें अनुमति मिल पाई। अमरनारायण कहते हैं, “राजनीतिक हस्तक्षेप न हो तो ये अनुमतियां कभी भी समय पर नहीं मिल पाती हैं।” कर्नाटक के वन अधिकारी इस देरी के लिए चंदन के स्रोत को सत्यापित करने की विस्तृत प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह खासकर उन मामलों में होता है जहां भूमि स्वामित्व विवाद उत्पन्न होते हैं।

परमिट की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं होती है। पेड़ों को काटने के बाद किसानों को लकड़ी राज्य सरकार के डिपो या केएसडीएल अथवा केएसएचडीसी के स्वामित्व वाले डिपो तक ले जाने के लिए वन विभाग से एक ट्रांजिट परमिट लेना होगा। यदि कोई किसान अपने माल को किसी निजी डिस्टिलर को बेचना चाहे वैसी स्थिति में तो यह प्रक्रिया और भी अधिक जटिल हो जाती है और डिस्टिलर की पूर्व स्वीकृति और सत्यापन की आवश्यकता होती है। शरणप्पा कहते हैं, “ कभी-कभी लकड़ी को 400 किलोमीटर से अधिक की दूरी तक ले जाने वाला ट्रांजिट परमिट केवल एक दिन के लिए वैध होता है।” वह कहते हैं, “इतने कम समय में लकड़ी का परिवहन असंभव है।”

किसान अब इन परमिटों को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। अमरनारायण बताते हैं कि कर्नाटक वन (संशोधन) अधिनियम 2001 के अनुसार जो व्यक्ति चंदन का पेड़ उगाता है वही उसका असली मालिक है। वह पूछते हैं, “भला यह सरकार क्यों तय करेगी कि हम पेड़ को कब और कैसे काट सकते हैं? चंदन अन्य फसलों से अलग नहीं है।” कर्नाटक के वन अधिकारी ने इस मांग को खारिज करते हुए यह कहा कि चंदन एक असुरक्षित अथवा वल्नरेबल प्रजाति है। उन्होंने आगे कहा, “अवैध कटाई को रोकने के लिए वन भूमि के बाहर उगाए गए हर पेड़ का दस्तावेजीकरण करना आवश्यक है।”

किसान अब चंदन को बागवानी फसल के रूप में वर्गीकृत करने की भी मांग उठा रहे हैं। अमरनारायण कहते हैं, “हमने पिछले दो वर्षों में कर्नाटक के वन मंत्री और प्रधानमंत्री से इस बदलाव की मांग करते हुए 13 पत्र भेजे हैं।” उनकी अन्य मांगों में एकल खिड़की निकासी प्रणाली और बेहतर उपज के लिए वैज्ञानिक सहायता शामिल है। उत्पादक यह भी चाहते हैं कि किसान उत्पादक कंपनियां घरेलू बिक्री और अंतरराष्ट्रीय निर्यात की सुविधा प्रदान करें। अमरनारायण कहते हैं, “वैश्विक मांग होने के बावजूद चंदन उत्पादक सीधे बाजारों तक नहीं पहुंच पाते हैं।”

तेलंगाना के निर्मल गांव के नल्ला वेंकटरामा रेड्डी ने लाल चंदन को काटने की अनुमति पाने के लिए दो साल तक इंतजार तो किया लेकिन खरीदार ने उनके 26 लाल चंदन के पेड़ों की लकड़ी का निरीक्षण करने के बाद अपने कदम पीछे खींच लिए। लगभग एक टन लकड़ी न बिकने और पेड़ों को काटने में 1 लाख रुपए खर्च होने से निराश रेड्डी अब अपने सपनों के निवेश का इस्तेमाल घर के लिए फर्नीचर बनाने में करने की योजना बना रहे हैं

खतरे का निशान

लकड़ी की खराब गुणवत्ता, सीमित बाजार पहुंच और लाल चंदन के निर्यात की विरोधाभासी नीति किसानों को नुकसान पहुंचा रही है

लाल चंदन/रक्त चंदन एक और लकड़ी है जो बेशकीमती तो है लेकिन भारत में इसका कैप्टिव वृक्षारोपण एक जोखिम भरा कदम है। हालांकि, लाल चंदन की घरेलू मांग नगण्य है लेकिन यह इसका एक विशाल वैश्विक बाजार है। जहां जापान में इसका उपयोग एक पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र शमिसेन को बनाने में होता है। वहीं चीन में यह लक्जरी फर्नीचर बनाने के काम आता है। इसके हार्टवुड से प्राप्त एक प्राकृतिक रंग सैंटालिन का उपयोग फार्मास्यूटिकल्स(दवाइयां), खाद्य उत्पादों, चमड़े और कपड़ों में किया जाता है। वर्तमान में उच्च गुणवत्ता वाले लाल चंदन की हार्टवुड की कीमत 1,000 से 4,500 रुपए प्रति किलोग्राम के बीच है।

चंदन के उलट हमारे देश में इसकी निजी खेती पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं रहा है। यही नहीं 1980 के दशक से जब भारत ने जंगलों में लाल चंदन की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया था तब से सरकार ने इसकी खेती को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया है। इसके बावजूद किसानों का कहना है कि धीमी वृद्धि, जटिल नियमों और बाजार तक पहुंच न होने के कारण अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है। इस बीच अवैध व्यापार तो फल-फूल रहा ही है। वैश्विक गैर-लाभकारी संस्था ट्रैफिक के अनुसार 2016 और 2020 के बीच भारत में अवैध लाल चंदन की जब्ती की कम से कम 28 घटनाएं दर्ज हुईं। इंटरनेट पर सर्च करने पर लगभग हर महीने में अवैध लाल चंदन की जब्ती के समाचार आसानी से देखे जा सकते हैं। सबसे हालिया घटना 22 जनवरी 2025 की है जब आंध्र प्रदेश वन विभाग ने 4.5 करोड़ रुपए मूल्य का अवैध लाल चंदन जब्त किया।

सीमित क्षेत्र में पाया जाने वाला यह लाल चंदन मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश के पांच जिलों (चित्तूर, कडप्पा, कुरनूल, नेल्लोर और प्रकाशम) में पाया जाता है। यह क्षेत्र पूर्वी घाटों के चार लाख हेक्टेयर में फैला हुआ है। यह वृक्ष तमिलनाडु और तेलंगाना के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी उगता है।

अवैध व्यापार पर अंकुश लगाने के लिए आंध्र प्रदेश वन विभाग ने 1960 से 1975 के बीच 4,099 हेक्टेयर में वृक्षारोपण किया। लगभग उसी दौरान निजी नर्सरियों और ग्रीन एस्टेट एजेंटों ने किसानों को आकर्षक लाभ का वादा करते हुए लाल चंदन लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद के पूर्व महानिदेशक वी के बहुगुणा के अनुसार आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना में एक लाख से अधिक किसानों ने अपने खेतों में लाल चंदन लगाया है। उनमें से कई अब ठगा हुआ महसूस करते हैं।

तेलंगाना के रेड्डीपेट गांव के किसान लिम्बय्या ने 2011 में एक बाय-बैक समझौते के तहत 700 पौधे लगाए थे जो कभी फलीभूत नहीं हुआ। वह अपनी आपबीती सुनाते हुए कहते हैं, “एजेंट ने मुझे प्रत्येक पौधा 80 रुपए में बेचा और 10 साल में परिपक्व पेड़ खरीदने का वादा करते हुए एक अनुबंध भी किया।” यह अजीब है क्योंकि लाल चंदन के पेड़ों को परिपक्व होने में कम से कम 40 साल लगते हैं। जैसे ही समझौते की अवधि करीब आई, एजेंट ने पहले उन्हें बेहतर कीमत का लालच देते हुए परिपक्वता अवधि बढ़ाने का आग्रह किया, लेकिन फिर जल्द ही बातचीत बंद कर दी। वह पूछते हैं, “मुझे नहीं पता कि इन पेड़ों का क्या करना है। मुझे इन्हें कब तक नहीं काटना चाहिए?” इसी दौरान तेलंगाना के निजामाबाद जिले के पेड्डा वलगोटे गांव के गणपुरम राजेश को जानकारी के अभाव में रोपण के पहले चार वर्षों में ही अपने 100 लाल चंदन के पेड़ों में से 40 से हाथ धोना पड़ा। वह कहते हैं, “हमें पेड़ की मिट्टी, तापमान और पानी की जरूरतों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। हमें यह नहीं पता कि हार्टवुड बनने में कितना समय लगता है, अनुमति के लिए किससे संपर्क करना है या खरीदार कहां मिलेंगे?”

आंध्र प्रदेश और ते लंगाना के वन अधिकारियों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि व्यावसायिक प्रयोग के लिए आवश्यक गुणवत्ता वाले हार्टवुड के लिए 40 साल तक सिंचाई या उर्वरक के बिना प्राकृतिक विकास की आवश्यकता होती है। हालांकि बिचौलिए किसानों को समय के बारे में गलत जानकारी देकर गुमराह कर देते हैं। तेलंगाना के निर्मल डिवीजन के वन रेंज अधिकारी जी वी रामकृष्ण कहते हैं, “निजी भूमि पर पाए जाने वाले हार्टवुड की गुणवत्ता भी जंगलों में पाए जाने वाले हार्टवुड के आसपास भी नहीं है।” यहां तक कि हार्टवुड का मूल्य भी इलाके के अनुसार अलग-अलग होता है। वह कहते हैं, “तेलंगाना और उत्तरी आंध्र प्रदेश के पेड़ों से खराब गुणवत्ता वाला हार्टवुड मिलता है जिसकी कीमत सागौन के बराबर होती है, 10,000-15,000 रुपए प्रति पेड़ । यह कीमत किसानों द्वारा अपेक्षित 1 लाख रुपए से बहुत कम है।”

आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के कोडुरु गांव के निवासी और लाल चंदन के व्यापारी रेवंत कहते हैं कि तस्करों से जब्त लाल चंदन की कीमत लगभग 60 लाख रुपए प्रति टन है क्योंकि उसकी गुणवत्ता बेहतर होती है। उन्होंने बताया, “इसके विपरीत कृषि भूमि पर उगाई गई लकड़ी की कीमत केवल 5-10 लाख रुपए प्रति टन है।” चित्तूर के पालमनेर शहर के निवासी एक अन्य लाल चंदन व्यापारी वरदराज कहते हैं कि जब्त लाल चंदन की नीलामी तो सरकार द्वारा ऑनलाइन की जाती है लेकिन उगाए गए लाल चंदन के मामले में अंतरराष्ट्रीय खरीदार भारत आते हैं और अपनी पसंद की लकड़ियां चुनते हैं। वह कहते हैं, “इसलिए बगीचों में उगाए गए लाल चंदन के लिए खरीदार ढूंढना बहुत मुश्किल है।”

वरदराज के पिता कामराज रेड्डी कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी आई है और वे इसे बगीचे वाली लाल चंदन की लकड़ी में भारतीय व्यापारियों की रुचि न होने का कारण बताते हैं। वह कहते हैं,“यह लकड़ी मुख्य रूप से चीनी व्यापारियों द्वारा खरीदी जाती है लेकिन महामारी के दौरान रियल एस्टेट क्षेत्र के प्रभावित होने के कारण भारतीय लाल चंदन की मांग में गिरावट आई है।” पिछले पांच वर्षों में उन्हें केवल दो बार खरीदार मिल पाए हैं। वह बताते हैं कि पहला बैच 2021 का ही था जब हमने सात टन लकड़ी स्विट्जरलैंड की एक शोध कंपनी को निर्यात की थी। हम वर्तमान में एक चीनी व्यवसायी के लिए दूसरे बैच की प्रोसेसिंग कर रहे हैं।

अनपेक्षित उलटफेर

भारत ने लाल चंदन की खेती की अनुमति तो दी है लेकिन अवैध व्यापार पर अंकुश लगाने के लिए इसकी बिक्री से संबंधित नियम भी कड़े कर दिए हैं। 1980 के दशक में भारत ने कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इंडेन्जर्ड स्पीसीज औफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा (सीआईटीईएस अथवा साइट्स) के परिशिष्ट II में इसे शामिल करने की सिफारिश की थी। इस परिशिष्ट में शामिल वस्तुओं का केवल नियंत्रित व्यापार ही मान्य है। लाल चंदन को 1994 में परिशिष्ट II में शामिल किया गया था जिसके फलस्वरूप भारत के लिए लाल चंदन के निर्यात के लिए साइट्स से मंजूरी लेना अनिवार्य हो गया। इसे 2022 में वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अंतर्गत भी लाया गया। रामकृष्ण बताते हैं कि मौजूदा नियमों के अनुसार किसी व्यक्ति को बिना परमिट के 20 किलोग्राम तक लाल चंदन की लकड़ी रखने की अनुमति है। 20 किलोग्राम से एक टन तक के माल के लिए चीफ फॉरेस्ट कंजरवेटर की मंजूरी की आवश्यकता होती है जबकि 10 टन से अधिक होने पर प्रिंसिपल फॉरेस्ट कंजरवेटर की मंजूरी की आवश्यकता होती है। हर पेड़ की कटाई के लिए अनुमति की आवश्यकता होती है और 20 किलोग्राम से अधिक हार्टवुड के परिवहन के लिए ट्रांजिट परमिट की आवश्यकता होती है। लकड़ी से मूर्तियां या फर्नीचर जैसे उत्पाद बनाने के लिए भी अनुमति की आवश्यकता होती है। व्यापारियों को सरकारी लाइसेंस प्राप्त करना होता है और वे अपने स्टॉक को सरकार द्वारा अनुमोदित डिपो में ही संग्रहीत कर सकते हैं जहां से आवाजाही को विनियमित किया जाता है।

नियमों के इस चक्रव्यूह से पार पाना कठिन है। निजामाबाद जिले के धर्माराम बी गांव के निवासी और एक बगीचे के मालिक नक्कला सैमसन के पास 40 साल पुराने आठ लाल चंदन के पेड़ हैं। उन्होंने पहली बार 2018 में इन पेड़ों काटने की मंजूरी मांगी थी लेकिन उन्हें अनुमति 2023 में जाकर मिली। जिन्हें अनुमति मिल जाती है उनके लिए खरीदार ढूंढना एक बड़ी चुनौती है। तेलंगाना के निर्मल गांव के एक किसान नल्ला वेंकटरामा रेड्डी को अपने 26 पेड़ों के लिए खरीदार मिल जाने के बावजूद कटाई की मंजूरी पाने के लिए दो साल तक संघर्ष करना पड़ा। वह कहते हैं कि वन विभाग ने पेड़ों को काटने की मंजूरी देने से पहले खरीदार का विवरण मांगा। हार्टवुड का वजन 996 किलोग्राम था लेकिन गुणवत्ता का निरीक्षण करने के बाद खरीदार मुकर गया। निराश होकर उन्होंने बची लकड़ी का इस्तेमाल अपने घर के लिए फर्नीचर बनाने में करने का फैसला किया।

स्थिति इतनी विकट है कि चित्तूर के किसान दशकों के निवेश के बावजूद इस व्यापार को छोड़ रहे हैं। चित्तूर के बोलरेड्डीपल्ली गांव की 70 वर्षीय किसान जोगिनेनी नारायणम अम्मा ने पांच पेड़ बेचे हैं, जिनमें से प्रत्येक लगभग 50 साल पुराना है। उन्हें 2,50,000 रुपए मिले। वह कहती हैं,“मुझे प्रति पेड़ एक लाख से दो लाख रुपए की उम्मीद थी लेकिन अब मैं समझ रही हूं कि यह घाटे का सौदा था।” तेलंगाना में भी इसी तरह का संकट सामने आ रहा है। खम्मम वन प्रभाग के जिला वन अधिकारी सिद्धार्थ सिंह बताते हैं,“हमने पिछले तीन-चार वर्षों में लाल चंदन के बगीचों को खत्म करने के आधिकारिक अनुरोधों की संख्या में वृद्धि देखी है।”

संभावित समाधान

नवंबर 2023 में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। स्विट्जरलैंड के जिनेवा में हुई साइट्स की स्थायी समिति की 77वीं बैठक के दौरान भारत को लाल चंदन के रिव्यू ऑफ सिग्निफिकेन्ट ट्रेड (आरएसटी) की सूची से हटा दिया गया। आरएसटी के तहत उन देशों के खिलाफ व्यापार रोकने जैसी अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है जो साइट्स के दायित्वों को पूरा नहीं करते हैं। इस छूट का मतलब है कि भारत अब व्यावसायिक रूप से उगाए जाने वाले लाल चंदन का व्यापार कर सकता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “यह बात लाल चंदन की खेती करने वाले किसानों के लिए एक बड़ी खुशखबरी है।” हालांकि वन अधिकारियों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस संबंध में कोई सरकारी अधिसूचना जारी नहीं की गई है। सैमसन का कहना है कि वन विभाग पहले से ही अपने द्वारा जब्त लाल चंदन को वैश्विक बाजार में नीलाम कर रहा है। लाल चंदन उत्पादकों को भी नीलामी मंच की यह सुविधा दी जानी चाहिए। वह लाल चंदन उत्पादकों को संगठित कर रहे हैं ताकि सरकार से हस्तक्षेप करने और एक स्पष्ट एवं किसान हितैषी व्यापार नीति स्थापित करने का आग्रह किया जा सके। उनका तर्क है कि वर्तमान बाजार में असली व्यापारियों के बजाय बिचौलियों का दबदबा है। नवंबर 2023 में यादव को लिखे एक पत्र में किसानों ने बुनियादी ढांचे, गोदामों और परिवहन सुविधाओं की कमी, कटाई की अनुमति में देरी और अपराधीकरण के डर सहित विभिन्न चुनौतियों के बारे में बताया। यह सभी कारण निजी चंदन की खेती को हतोत्साहित करते हैं। वे ऐसे मानकीकृत दिशा-निर्देशों की मांग कर रहे हैं जिसकी मदद से वे नियंत्रित परिस्थितियों में लाल चंदन की खेती कर सकें। ऐसा करने से हार्टवुड के उत्पादन में वृद्धि होगी।

वहीं दूसरी ओर वरदराज घरेलू बाजार में अवसरों की तलाश कर रहे हैं। वह बताते हैं, “हम कप, सजावटी सामान और लाल चंदन के अर्क से युक्त खाद्य जूस जैसे नए उत्पाद लांच कर रहे हैं। इन उत्पादों में हार्टवुड की गुणवत्ता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जिससे हमें अधिक आसानी से व्यापार करने में मदद मिलती है। छोटी मूर्तियां और प्रार्थना की मालाएं पहले से ही बाजार में मौजूद हैं, लेकिन उनकी आपूर्ति एकसमान नहीं रहती है।” वरदराज ने लगभग 10,000 टन लाल चंदन की पहचान की है। यह उगाया हुआ चंदन है जो कटाई योग्य अवस्था में है और जिसे मूल्यवर्धित उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता है। वह आगे कहते हैं, “अगर हम घरेलू बाजार में सफलतापूर्वक प्रवेश कर पाए तो इससे सभी हितधारकों को लाभ होगा।”