शहर की झुग्गियों और उसकी अंधेरी तंग गलियों, बजबजाती नालियों, किसी बेवड़े की गालियों और आवारा कुत्तों के एक साथ रोने के आवाजों से कोसों दूर एक आलीशान होटल के शांत ठंडे कमरे में जलीम-सावेद नामी दो मशहूर लेखकों की जोड़ी बैठी थी। वे मुंबई के गरीब लोगों, कामगारों के जीवन पर आधारित एक फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे थे जो कभी सुपरहिट हुई थी। लिखते-लिखते जलीम थक गए और एक बहुत बड़ी-सी खिड़की के सामने खड़े हो गए जहां से दूर तक अरब सागर दिखता था और गरीबी का सागर भी।
“जलीम भाई कहानी में एक ट्विस्ट होना मांगता लेकिन वो नहीं आ रहा है” सावेद ने कहा।
“क्या तुमने चुनावों का जिक्र किया है?” जलीम ने सावेद से पूछा ।
“चुनाव” सावेद अपनी कुर्सी से गिरते-गिरते बचे, “यह चुनाव का दीवार हमारे स्क्रिप्ट में कब आ गया?”
“खिलाड़ियों पर बायोपिक बन सकती है, नेताओं पर मायोपिक बन सकती है तो हमारी कहानी में चुनाव क्यों नहीं आ सकता? यह मेरी मार्केटिंग स्ट्रेटिजी है प्यारे। लाओ अब मैं इस पटकथा पर काम करता हूं।”
इतना कहकर जलीम काम पर जुट गए और जो पटकथा बनी वह कुछ यूं थी-
आम चुनाव में मतदान का एक दिन। विजय वर्मा सो रहा है। रवि वर्मा कमरे में आता है, “भाई! आज मतदान है और तुम सो रहे हो?”
“मत-दान! यानी मत करो दान” विजय कहता है और फिर करवट बदलकर सो जाता है।
“भाई तुम मतदान करने चलोगे या नहीं?” रवि अब शशि कपूर के अंदाज में पूछता है।
“नहीं जाऊंगा मतदान करने” अचानक विजय की आवाज भी बदल जाती है “पहले उसको मतदान केंद्र में बुलाओ जिसने कभी कहा था कि हमारे खाते में पंद्रह लाख रुपए आएंगे। पहले उसको बुलाकर लाओ जो बिहार में चुनाव जिसके खिलाफ लड़ता है, चुनावों के बाद उसी के साथ गठबंधन करता है। जाओ और उसे बुलाकर लाओ जिसने हमें पीने का साफ पानी, रोजगार, हमारे बच्चों को शिक्षा, हमारे गांव में अस्पताल का वादा किया था। पहले उसे बुलाकर लाओ जिसने मेरे टीवी पर लिख दिया था कि मेरा एंकर शोर है! मैं जाऊंगा मतदान केंद्र पर अकेले नहीं जाऊंगा। इन सबको लेकर जाऊंगा”
इतने लंबे डायलॉग के लिए रवि तैयार नहीं था। वह टुकुर-टुकुर कर कभी विजय, कभी अम्मा तो कभी दर्शकों की ओर देखता रहता है।
विजय उसको कुहनी मारते हुए दबी जुबान में कहता है, “अब तुम्हारा डायलॉग है, बोलो, मां तुम...”
रवि को डायलॉग याद आ जाता है। वह कहता है, “मां, तुम मेरे साथ चलो!”
विजय बोलता है, “तुम्हे जहां जाना हो जाओ पर मां कहीं नहीं जाएगी।”
“मां जाएगी” विजय-रवि की मां निरुपा राय की अंदाज में बोलती है।
“मां, तुम नहीं जाओगी!” विजय बोलता है, “तुम्हें अभी कल रात के बर्तन धोने हैं, घर बुहारना है, हमारे कपड़े फीचना है... हमारे लिए खाना...”
“कौन था वह तेरा जिसने तुझसे पंद्रह लाख रुपए, अस्पताल, शिक्षा का वादा किया था? एक नेता! नेता तो झूठे वादे करेंगे ही। पर तू तो मेरा बेटा है। तूने कैसे एक नेता की बातों पर भरोसा कर लिया? चल रवि मतदान करने!”
रवि अपनी मां को लेकर मतदान केंद्र की ओर चल पड़ता है। वह जिससे भी मिलता उससे कहता, “मेरे पास मत है... मेरे पास मत है!”
विजय क्या करता, वह भी मतदान केंद्र की ओर चल पड़ता है। मतदान के लिए नहीं बल्कि इस उम्मीद से कि पीने को पऊआ न सही पर खाने के लिए पूड़ी-सब्जी तो किसी न किसी मतदान केंद्र में मिल ही जाएगी।