Waste

न समस्या मानेंगे, न हल निकलेगा

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग में पर्यावरण विषय पर न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर के व्याख्यान के अंश -

DTE Staff

अमेरिका में 1970 के दशक के शुरुआत में एक गणितज्ञ थे। वह पियानो बजाते थे और उन्हें गाने का भी शौक था। उन्होंने एक गीत की रचना की जिसके बोल थे, “व्हेन यू कम टू न्यूयॉर्क सिटी, यू हैव टु बी केयरफुल अबाउट टू थिंग्स- वन डोंट ड्रिंक द वाटर एंड सेकेंड डोंट ब्रीथ द एयर” (जब भी आप न्यूयॉर्क शहर में आओ, आपको दो चीजों के बारे में सावधान रहना होगा, पहला पानी न पीना और दूसरा हवा में सांस न लेना)। एक बार अगर तुम ये करने में कामयाब रहते है तो तुम बिल्कुल सुरक्षित हो। इसके बाद से न्यूयॉर्क में चीजें बदल गईं लेकिन भारत में हम अब तक नहीं जागे हैं।

हम जिन पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनमें से एक है लोगों की मानसिकता। हालांकि हम व्यक्तिगत रूप से कुछ कर सकते हैं लेकिन राज्य अर्थात केंद्र, राज्य और नगरपालिका आदि का सहयोग भी अहम है। मध्य भारत, पूर्वोतर, छत्तीसगढ़ और झारखंड के न्यायालयों के मुझे अपने अनुभव याद हैं। जब कभी वहां बिजली नहीं होती थी या बारिश होने लगती थी तो जज यह कहकर कुर्सी छोड़कर चले जाते थे कि वह बिना बिजली के काम नहीं कर सकते। इसके बाद अदालत की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित हो जाती थी।

हमने अदालतों को कंप्यूटरीकृत करने की कोशिश की लेकिन बिजली के बिना कंप्यूटर भी नहीं चलते। इस कारण हमने सौर ऊर्जा की वकालत की। मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि उस समय बहुत से मुख्य न्यायाधीशों ने कहा कि यह काम सरकार का है। लेकिन सरकार की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। तमाम अनुदान और अभियानों के बावजूद किसी राज्य सरकार ने आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि हम अदालतों की मदद करेंगी। अदालतों ने भी राज्य से मदद नहीं मांगी। ऐसी स्थिति में पत्रकार मानसिकता में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

पर्यावरण संबंधी मामलों को देखने के दौरान मैंने दूसरा सबक यह सीखा कि हमारे पास प्रयोगसिद्ध अध्ययन नहीं हैं। मुझे अपना बचपन अब भी याद है जब हम गंगा के पानी को एक बोतल में भर लेते थे और हमें कहा जाता था कि यह पानी दूषित नहीं हो सकता। आज यह बुरी तरह दूषित हो चुका है। इसके बावजूद प्रामाणिक अध्ययन नहीं हुए हैं।

जब भी कोई स्वतंत्र संस्थान कोई अध्ययन जारी करता है तो सरकार उसके निष्कर्षों को संदेह की नजर से देखती है। ऐसे कुछ मामलों की सुनवाई के दौरान हमें बताया गया कि वायु प्रदूषण से चितरंजन पार्क में बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसकी प्रतिक्रिया में कहा गया कि हम किसी विदेशी एजेंसी, किसी विश्वविद्यालय और कुछ डॉक्टरों के अध्ययन पर कैसे भरोसा करें। लेकिन तब भी भारत सरकार द्वारा कोई अध्ययन नहीं किया गया। सरकार की रणनीति कुछ इस तरह काम करती है- अगर आप किसी मौजूदा समस्या को मान्यता नहीं देंगे तब तक आप उसे हल करने के लिए विवश नहीं हैं।

तीसरा पहलू निगरानी और फॉलोअप का है। कुछ कानूनों में हमारे पास सोशल ऑडिट का प्रावधान है लेकिन हम नहीं जानते कि वे कहां हो रहे हैं और समाज के सभी वर्ग उससे लाभांन्वित हो रहे हैं या नहीं। उदाहरण के लिए बंधुआ मुक्ति मोर्चा का मामला ही लीजिए। 1984 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लिया कि हरियाणा में बड़ी संख्या में बंधुआ मजदूरों को मुक्त किया जाएगा। लेकिन मुक्त हुए बंधुओं मजदूरों को नौकरी नहीं मिली और वे दोबारा उसी ठेकेदार के पास आ गए। तब ठेकेदार ने उसने कहा, “जब तुम छोड़कर गए थे तब तुम्हें 100 रुपए दे रहे थे, अब हम तुम्हें 80 रुपए देंगे।” मजदूरों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, इसलिए उन्हें ठेकेदार की बात माननी पड़ी।

ऐसा दूसरा उदाहरण 1997 का है जब सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा मामले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए दिशानिर्देश बनाए थे। संसद को इस मामले में कानून बनाने में 15 साल लग गए। इस तरह सरकारी तंत्र से क्रियान्वयन और सोशल ऑडिट खत्म होता जा रहा है।

ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। इनमें सूखा, पानी का संकट, अपशिष्ट प्रबंधन और प्लास्टिक मुख्य रूप से शामिल है। न्यायपालिका वे निर्णय नहीं ले सकती जो कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हैं। अदालत निगरानी भी नहीं कर सकती। जब मैं दिल्ली हाई कोर्ट में था तब हमने मोटे प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर रोक लगाने के आदेश पारित किया था लेकिन आज भी हम सभी जगह हर तरफ का प्लास्टिक देख सकते हैं। सरकार ने इस मामले में कोई फॉलोअप नहीं किया। स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है लेकिन समस्या अमल में है। जब तक चेतना जागृत नहीं की जाएगी, तब तक स्वच्छ हवा और पानी के अधिकार से हम वंचित रहेंगे।

ऐसे बहुत से मामले हैं जो पर्यावरणीय प्रदूषण को प्रदर्शित करते हैं। ताजमहल वायु प्रदूषण से नष्ट हो रहा है। ऐसा तब हो रहा है जब ताजमहमल देखने वाले पर्यटकों की संख्या एफिल टावर देखने जाने वालों का दसवां हिस्सा है। आप वन्यजीव प्रबंधन को भी देख सकते हैं। बिजली और ट्रेन की चपेट में आने से हाथी मर रहे हैं। ऐसे जटिल मामलों के लिए दृढ़ निश्चय के साथ फैसले होने चाहिए। क्या हम तभी कुछ करेंगे जब अगला हादसा या संकट पैदा होगा।

एक डरावना तथ्य यह भी है कि विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित राशि खर्च नहीं की जा रही है या वह बर्बाद हो रही है। कैंपा (कैंपेनसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी) के तहत एकत्रित 50,000 करोड़ की धनराशि का इस्तेमाल नहीं किया गया है। आखिर क्यों?

एक संसदीय समिति ने हाल ही में कहा कि निर्भया फंड का इस्तेमाल निर्माण कार्यों में हो रहा है। कैंपा फंड का इस्तेमाल वनरोपण के बजाय दूसरे कामों में हो रहा है। इसी तरह निर्भया फंड का इस्तेमाल महिला सुरक्षा के बजाय दूसरी जगह किया जा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं है कि प्लास्टिक, खनन, ऑटोमोबाइल और ईंधन से जुड़ी औद्योगिक लॉबियां हैं लेकिन हम इनसे तभी जूझ सकते हैं जब समाज में जागरुकता हो। समस्या यह है कि हमने से बहुत से लोग स्थानीय विधायक या पार्षद को भी नहीं जानते। एक बार कनाडा के एक जज ने मुझसे कहा था कि जिस तरह एक छोटा मच्छर हमारी नींद खराब कर सकता है, उसी तरह सामान्य नागरिक भी बदलाव लाजा सकता है। यह समय, रणनीति और इसे करने के तरीके पर निर्भर करता है।