वन्य जीव एवं जैव विविधता

जल्लीकट्टू: संस्‍कृति बनाम संरक्षण

बुनियादी सवाल अभी अनुत्तरित है क्या जल्लीकट्टू पारिस्थितिकी के लिहाज से महत्वपूर्ण प्रथा है या सिर्फ एक खूनी खेल?

Sunita Narain

चेन्नई के मरीना बीच पर आक्रोश शांत हो चुका है, जहां युवा आंदोलनकारी बैलों के साथ धक्का-मुक्की के पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध हटाने की मांग को लेकर डटे हुए थे। चलिए संस्कृति, परंपरा और आधुनिक युग में इनसे जुड़ी प्रथाओं के व्यापक एवं गंभीर मुद्दों पर विचार करते हैं। मेरे जैसी पर्यावरणवादी के लिए यह बेहद विवादास्पद और धुव्रीकरण करने वाला मुद्दा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पारंपरिक संस्कृतियों ने पर्यावरण के साथ सहानुभूति रखते हुए प्रकृति के साथ जीना और अभाव के समय संसाधनों का समझदारी से उपयोग करना सीख लिया था। संसाधनों का यह विवेकपूर्ण उपयोग परंपराओं, रस्मों-रिवाजों और आस्था से जुड़कर संस्कृति का हिस्सा बन गया। लेकिन समय बदलता है; और उसी के साथ सोच और संवेदनाएं भी बदलती हैं। मगर क्या हमें ऐसी रस्मों-रिवाजों को महत्व देना चाहिए जो सिर्फ अब केवल प्रतीकात्मक रह गए हैं?

ये सवाल मैं ऐसे समय उठा रही हूं, जब देश एक नया शब्द ‘जल्लीकट्टू’ सीख चुका है (और निश्चित ही इसका गलत उच्चारण कर रहा है)। इस परंपरा को निभाने वाले तमिलों का कहना है कि यह स्पेन में सांड़ों की लड़ाई से अलग है। वे बैल को मारते नहीं, अपितु उसके सींग से बंधे सोने और पैसों को खोलने का खेल खेलते हैं। इसमें यह देखा जाता है कि व्यक्ति (जो हमेशा पुरुष ही होता है) उग्र बैल को काबू में करते हुए उसके सींग से सोने के सिक्के को कैसे छुड़ाता है। इसलिए इस मामले को केंद्र सरकार तक पहुंचाने वाले पशु अधिकार कार्यकर्ता जल्लीकट्टू को एक खेत मानते हैं। वर्ष 2011 में, तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश बैल को उन पशुओं की सूची में शामिल करने पर सहमत हो गए थे, जिनका प्रशिक्षण और प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के तहत प्रतिबंधित है। उनके बाद पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बैल को इस श्रेणी से बाहर रखना चाहा, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में हस्तक्षेप कर दिया। मई 2014 में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इस खेल पर रोक लगा दी कि जल्लीकट्टू, बैलों की दौड़ और ऐसी अन्य गतिविधियां वास्तव में पशुओं के प्रति क्रूरता है।

तब से हर बार पोंगल (जल्लीकट्टू पोंगल के मौके पर खेला जाता है) आते ही इस मुद्दे पर विरोध के स्वर उभरते रहे हैं। केंद्र सरकार ने भी पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में संशोधन का वादा कर इस विवाद को हवा दी। लेकिन इस साल तो कहर ही टूट गया। हजारों की तादाद में नौजवान सोशल मीडिया के माध्यम से लामबंद हुए और चेन्नई में समुद्र किनारे जुटने लगे। तमिलनाडु के बाकी शहरों में भी भीड़ सड़कों पर उतर आई जो राज्य सरकार पर दबाव बनाने के लिए काफी थी। राज्य सरकार रातों-रात एक अध्यादेश लाई कि ग्रामीण खेलों में बैलों का इस्तेमाल प्रतिबंधित नहीं है। लेकिन बुनियादी सवाल अभी अनुत्तरित है–क्या जल्लीकट्टू पारिस्थितिकी के लिहाज से महत्वपूर्ण प्रथा है या सिर्फ एक खूनीी खेल?

जल्लीकट्टू समर्थक कहते हैं कि राज्य में बैलों की देसी कंगायम नस्ल को बचाने का यही एकमात्र तरीका है। यदि इस खेल पर रोक लगा दी गई तो बैलों को पालने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और वे बूचडखानों में पहुंच जाएंगे।

लेकिन क्या देसी नस्ल के सरंक्षण का यह मकसद सोचा-समझा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार और यहां तक कि केंद्र सरकार की ओर से पेश तर्कों पर गौर करें तो पता चलता है कि इस खेल को जारी रखने की मांग का एकमात्र कारण संस्कृति और परंपरा रही है। यह दलील भी दी गई कि पशु क्रूरता इस खेल में पहले से प्रचलित नहीं है, और क्रूरता पर अंकुश लगाया जा सकता है। जल्लीकट्टू समर्थकों ने पहले कभी भी देसी नस्ल बचाने के पारिस्थतिकी उद्देश्य को व्यक्त नहीं किया, क्योंकि इसे साबित करना पड़ता।

आज पूरे देश और विशेषकर तमिलनाडु में घरेलू जानवरों की देसी नस्लें विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन नस्लों का संरक्षण और संवर्धन होना ही चाहिए। आज मवेशियों की भारतीय नस्लें अन्य देशों की आर्थिक तरक्की का आधार बन रही हैं। अफ्रीका ने हमारी साहीवाल और ब्राजील ने नैलोर नस्लों का संवर्धन किया है। लेकिन हम जर्सी या होल्सटीन फ्रीजियन जैसी नस्लों को अपना चुके हैं। वर्ष 2012 में जारी हुई पशुधन गणना मवेशियों की तादाद में इस गिरावट को दिखाती है। वर्ष 2007 और 2012 के बीच देसी बैलों की संख्या 19 प्रतिशत घटी है जबकि इसी दौरान विदेशी या संकर नस्ल के गाय-बैलों की तादाद में 20 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। वर्ष 2003 की पशुगणना के मुकाबले दुधारू देसी पशुओं की संख्या 65 प्रतिशत घटी है। तमिलनाडु में भी यही स्थिति है। इसलिए यह कहना एकदम उचित होगा कि जल्लीकट्टू से देशी नस्लों के संरक्षण का कतई कोई प्रमाण नहीं हैं, जैसा कि इसके समर्थक अब दावा कर रहे हैं।

बात जल्लीकट्टू के समर्थन या विरोध की नहीं है। लेकिन परंपरा को अगर सही मायनों में बचाए रखना है तो इसके समर्थकों की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए। जाहिर है देसी नस्लों को बचाए रखने के लिए बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है। पशुपालन से जुड़ी अर्थव्यवस्था के लिए भी यह जरूरी है। और यही असली मुद्दा है!